जा बसे निरंजन राय -कबीर

साखी – कस्तूरी कुण्डली बसे, मृग ढूंढे वन माहि।
जैसे राम घट-घट बसे, दुनिया जाने नाही।।
जा बसे निरंजन राय, बैकुण्ठ कहां मेरे भाई।
चरण – कितना ऊंचा कितना नीचा कितनी है गहराई।
अजगर पंछी फिरे भटकता, कौन महल को जाई।।
जो नर चुन-चुन कपड़ा पेरे, चाल निरखता1 जाई।
चार पदारथ2 पाया नाही, मुक्ति की चाह नाही।।
कोई हिन्दू कोई तुरक कहावे, कोई बम्मन बन जाय।
मिटा स्वांस जब जला पिंजरा3, एक बरण4 हो जाय।।
बंदी गऊ कबीर ने छुड़ाई, ले गंगा को न्हाई।
खोल डुपट्टा आंसू पोछे, चारा चरो मेरी माई।।
आदा सरग5 तक पहुंचे हंसा, फिर माया घर लाई।
ले माया नरक में डूबी, लख चौरासी पाई।।
औदा6 आया, औंदा जाया, औंदा लिया बुलाई।
कहे कबीर औंदी का जाया, कभीयन सीधा होई।।

  1. देखना 2. वस्तु 3. शरीर 4. समान 5. स्वर्ग 6. उल्टा

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