मां के कंगन (लघुकथा) – विनोद वर्मा 'दुर्गेश

लघु कथा

मां के कंगन

आज रजत को अपनी पहली पगार मिली थी। पगार लेकर वह सीधा बाजार गया और अपनी पत्नी आशा के लिए दबके वाली साड़ी, कंगन, झुमके और गजरा लेकर आया। आशा इतनी सारा सामान देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई। वह खुशी से पागल हुई जा रही थी। वह झूमते हुए बोली-‘रजत, तुम मेरा कितना ख्याल रखते हो। पहली पगार के इन बेशकीमती तोहफों ने यह सिद्ध कर दिया कि तुम मुझे बेइंतहा मुहब्बत करते हो। यकीनन तुम मुझे ताउम्र खुश रखोगे। इस पर रजत ने सिर्फ इतना कहा था- ‘आशा] तुम बहुत भोली हो।’

इतना कहकर वह अंदर बेडरूम में गया। उसने अलमारी से एक लाल रंग का पर्स निकाला। उसे खोलकर देखा तो उसमें सोने के कंगन और झुमके थे। वह एकटक उन्हें निहारता रहा और फिर उन्हें चूमकर वापस उसी पर्स में डाल दिया। उसकी आंखें नम हो आई थी। उसका कलेजा भर आया था। वह अपने आपको रोक नहीं पाया और तेज कदमों से बेडरूम से बाहर निकला। आशा रजत की मनोदशा देखकर सन्न रह गई। उसने अविनाश को रोक कर पूछा-&*आखिर माजरा क्या है\ अभी-अभी तो हंसते-हंसते घर आए थे। मेरे लिए ढ़ेरों बेशकीमती सामान लेकर आए थे। अचानक ऐसा क्या हुआ जो आंखें नम हो गई और मन भारी हो गया।’

‘आशा] आज जितना खुशी का दिन तुम्हारे लिए है] उससे कहीं ज्यादा मेरे लिए है। पिता जी के देहांत के बाद मां ने मुझे पढ़ाने के लिए अपने सोने के कंगन और झुमके गिरवी रखे थे। मैं एक काबिल इंसान बनूं] मां की यह दिली तमन्ना थी। अपना कलेजा काटकर उन्होंने मुझे पढ़ाया-लिखाया। आज अगर मैं जिला क्लेक्टर बना हूं तो वह सब मेरी मां की बदौलत है। आज मुझे पहली पगार मिली तो सबसे पहले मैं मां के कंगन और झुमके छुड़ाकर लाया हूं। मां को उनके कंगन वापस करके ही मेरे हृदय की ज्वाला शांत होगी। मां का कर्ज तो मैं इस जन्म में जीते जी नहीं चुका सकता किन्तु मां के अरमानों को दफन होने से बचाने का एक तुच्छ सा प्रयास कर ही सकता हूं।’

आशा मन ही मन उस ईश्वर का धन्यवाद कर रही थी कि उसे एक खुद्दार पति मिला है। वह अपनी खुशी को भुलाकर रजत के साथ मां के कंगन और झुमके देने चल पड़ी।

-विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’

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