पठनीय पुस्तक
कृषि संकट और खासतौर से किसान आत्महत्याओं के बारे में काफी कुछ लिखा जा रहा है। सरकारी रिपोर्टें और टीवी अखबार जहां एक ओर किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ों और कारणों पर पर्दा डालने में ही ज्यादातर पन्ने काले कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सिर्फ आंकड़ों को ही दुरुस्त करने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है।
इन सबके बीच आत्महत्याओं के साये में जीने को मजबूर महिलाएं इस संकट को कैसे भुगत रही हैं। इस बारे में कम ही पढऩे-जानने को मिलता है। ऐसे में पंजाब की औरतों पर कृषि संकट के प्रभाव की जांच-पड़ताल करती रंजना पाढ़ी की किताब ‘खुदकुशी के साये में जिन्दगी की बातें’ उन महिलाओं के हालात से करीब से रूबरू कराती हैं।
पंजाब हरित क्रांति का गढ़ रहा है। हरित क्रांति के विनाशकारी परिणाम जल्दी ही सामने भी आने लगे। आज हरित क्रांति का यह गढ़ खुशहाल खेती से ज्यादा किसान आत्महत्याओं के कारण चर्चा में है।
इस किताब में उन 136 परिवारों की मांओं, पत्नियों का सर्वेक्षण है, जिन्होंने इस संकट के चलते अपने बेटों-पतियों को खो दिया। आत्महत्याओं के ये मर्मस्पर्शी विवरण स्पष्ट करते हैं कि दिल दहला देने वाले ये हादसे राज्य की कृषि नीति द्वारा पैदा हुए संकट का परिणाम हैं। कृषि का आम संकट तथा कर्ज का दानव जो किसानों को अपने खूंखार शिकंजे में कसता जा रहा है, वह चिकित के निजीकरण के चलते और मजबूत हो गया है।
रंजना पाढ़ी हमें संकट से जूझने की हृदयविदारक घटनाओं से रूबरू कराती हैं। ऐसी ही कहानी एक तेरह वर्षीय लड़के की है, जिसने इसलिए खुदकुशी कर ली थी, क्योंंकि उसका परिवार उसे स्कूल नहीं भेज सकता था या एक बेटी की कहानी जिसका विवाह पिता की आत्महत्या के बाद दहेज के बिना ही किया गया और ससुराल में रोज-रोज के अपमान से तंग आकर उसने आत्महत्या कर ली। उसकी मां के लिए बच गया तो सिर्फ मृत पति और मृत बेटी का गम।
मुक्तसर जिले की गुरविन्द्र (बदला हुआ नाम) पचास वर्ष की हैं। कर्ज के भारी बोझ और आढ़तिए से तंग आकर 2003 में उनके पति ने कीटनाशक पीकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। अब गुरविंदर कौर अपने दो एकड़ के खेत पर हर तरह का कृषि कार्य करती हैं। हर फसल कटाई के बाद उन्हें 2.5 लाख के कर्ज की किश्तें चुकानी होती हैं। साल में दो बार 20-20 हजार की आमदनी होती है और कर्ज की किश्त चुकाने के बाद ज्यादा कुछ बचता नहीं। वे कहती हैं कि ‘मगर मैं अपने बच्चों का हौंसला बनाए रखती हूं। हमारी जीविका दांव पर लगी है, मैं आज भी कर्ज में दबी हूं….मेरा एक बेटा दसवीं क्लास में और दूसरा आठवीं क्लास में है। मगर छोटे किसानों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की चिंता किसको है। लोग कहते हैं कि आजकल दसवीं क्लास कुछ नहीं है। मगर मैं जानती हूं कि किस मुश्किल से उसे दसवीं तक लायी हूं…अपने खून पसीने से कर पायी हूं।’
यही हाल आत्महत्याग्रस्त अन्य परिवारों का भी है। ऐसे परिवारों के प्रति सरकारी उपेक्षा के कारण ही ज्यादातर परिवार मौत के सदमे के बावजूद कड़ी मेहनत कर कर्ज की किश्तें चुका रहे हैं और अपनी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया, अपनी जमीनें बेचने को मजबूर हैं।
किसान की खासियत है कि इसमें तथ्यों और आंकड़ों को प्रमुखता से रखा गया है। आंकड़ें खुद ही इस संकट की विकरालता को बोलते नजर आते हैं।
किताब की भूमिका में रंजना पाढ़ी लिखती हैं ‘खुदकुशी तो एक ज्यादा गहरे रोग का लक्षण भर है। रोग यह है कि पूरे कृषक समुदाय का गैर-कृषिकरण किया जा रहा है। आज तक दर्ज ढाई लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्याएं लाखों अन्य किसानों, खासकर खेतिहर मजदूरों की सच्चाई को उजागर करती हैं जो इस देश में तबाही के कगार पर हैं। किसान आत्महत्याओं के लगभग सारे अध्ययनों और समाचारों में खेतिहर मजदूरों द्वारा आत्महत्या के मामले शामिल नहीं किए जाते हैं। उदाहरण के लिए पंजाब के भटिंडा और संगरूर जिलों में कुल 2890 आत्महत्याएं दर्ज की गयी हैं, इनमें से 61 प्रतिशत किसान और 39 प्रतिशत खेतिहर मजदूर थे।’
यह किताब आर्थिक मसलों से आगे बढ़कर सामाजिक परिवेश में घुसने का प्रयास करती है और जातिगत तथा सामुदायिक पहचान के कारण अतिरिक्त बोझ और संकट की भी जांच-पड़ताल करती है। बुरी तरह आर्थिक तंगी झेलने के बावजूद जाट-सिख समुदाय की गुरविन्द्र कौर कहती है ‘किसी और के खेत में खेती का काम करने की हमें मनाही है। हम सिर्फ अपने खेत में कपास चुनने का काम कर सकते हैं, चाहे हमारे पास एक-दो एकड़ जमीन है, हम हैं तो जमींदार, मजदूर नहीं।’ जमीन बड़े किसानों को बेच देने की बात पर वह कहती हैं कि ‘मगर ऐसा हुआ तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। कोई मेरे बेटों से शादी नहीं करेगा।’
इसी तरह दहेज के लिए कर्ज लेना आज भी बदस्तूर जारी है। मुक्तसर जिले के गिदड़बाहा ब्लाक के अन्य जाट-सिख परिवार में तेज कौर के पति और पति के भाई ने 1999 में आत्महत्या कर ली थी, अमरीकन बोलवर्म (फसल में लगने वाला कीड़ा) ने फसल को लगभग पूरी तरह से नष्ट कर दिया था। पति के सिर पर 9 लाख से ज्यादा कर्ज चढ़ गया था। अपनी पूरी 10 एकड़ जमीन बेचकर भी वह कर्ज नहीं चुका पाया था। अकेली रह जाने के बाद आज तेज कौर मवेशी पालकर 1500 रुपए महीना कमाती है। 2006 में अपनी बेटी की शादी के लिए उन्हें एक बार फिर डेढ़ लाख रुपए कर्ज लेना पड़ा था। वे आज भी कर्ज चुका रही हैं। यह सिर्फ एक घर की बात नहीं। संकट की शिकार भटिंडा जिले की एक अन्य महिला ने बताया कि ‘मेरे देवर ने पैसे की कमी के कारण शादी ही नहीं की। यहां हर घर में ऐसी समस्या है।’
दहेज की कुप्रथा के बारे में लेखिका का कहना है कि ‘हरित क्रांति के सरप्लस (अधिशेष) ने पंजाब के भूस्वामी किसानों के लिए यह संभव कर दिया कि वे शादी का तड़क-भड़क पूर्ण जश्न मनाएं। सत्तर के दशक में शादी के आलीशान जश्न और दहेज पंंजाब में कुख्यात हो गए। सजावट, बड़े-बड़े पंडाल, दावतें, महंगे तोहफे वगैरह सब अपनी नव-अर्जित सम्पदा की नुमाइश के साधन बन गए। बड़े और मझोले किसानों को इस दिखावटी शान की नकल कुछ हद तक छोटे किसानों ने भी शुरू कर दी। हरित क्रांति से उत्पन्न खुशहाली इतनी ज्यादा थी कि बढ़ती लागत के बावजूद नए कर्ज काफी विश्वास के साथ लिए-दिए जा रहे थे। अलबत्ता जब प्रति एकड़ उपज घटने लगी तो यह खुशफहमी ज्यादा दिनों तक जारी नहीं रही।’
हरित क्रांति खुशहाली के साथ-साथ बीमारियांं लेकर भी आयी। रसायनों और कीटनाशकों के बेइन्तहा उपयोग से न सिर्फ मिट्टी, हवा और भूजल स्थायी रूप से दूषित हो गए, बल्कि इस सबका परिणाम कैंसर के प्रकोप के रूप में सामने आया। भटिंडा एक्सप्रेस आज ‘कैंसर एक्सप्रेस’ के नाम से कुख्यात है। सैंकड़ों लोग रोजाना इस ट्रेन में सवार होकर बीकानेर, राजस्थान से आचार्य तुलसी क्षेत्रीय कैंसर उपचार व अनुसंधान केंद्र में मुफ्त उपचार तथा जांच के लिए जाते हैं।
ये हमारे समाज की वे तस्वीरेें हैं, जिन्हें स्वर्णिम भारत के नकाब के पीछे छिपाया जाता है। रंजना पाढ़ी की यह किताब इस नकाब को उलट कर समाज की सच्चाई को सामने लाती है। इस उम्मीद के साथ कि हालात को बदला जा सकता है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस ��रियाणा ( सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पेज- 58-59