हरियाणवी ग़ज़ल
अपणा फरज भुलावण लाग्गी।
बाड़ खेत नैं खावण लाग्गी।
जिनकै मुस्से कलां करैं थे,
उनकै माया आवण लग्गी।
खुदगरजां तै बोट्टां पाकै,
जनता फेर पछत्यावण लाग्गी।
बान, मंडा, बराती छोड्डे,
कोर्ट ब्याह् करवावण लाग्गी।
मंतरी, अफसर चै चपड़ासी,
सबननै रिसवत भावण लाग्गी।
दादा लखमी-सी कविताई,
सेह्ली-सी के पावण लाग्गी।
मेह्णतकश नैं बाह्या पसीना,
हरी फसल लहरावण लाग्गी।
बेटी नैं इसे कपड़े पह्रे,
जननी माँ शर्मावण लाग्गी।