मेरा जन्म 2 अगस्त 1926 को पश्चिमोत्तर पंजाब की मुलतान-मियांवाली रेलवे लाईन पर 60-70 मील दूर जिला मुजफ्फरगढ़ के एक कस्बे में हुआ। देश-विभाजन के समय जब साम्प्रदायिक हिंसा की आग सर्वत्र भड़क रही थी, हमारा जिले का अधिकांश क्षेत्र मुस्लिम-बहुल होते हुए भी यथापूर्व अपेक्षाकृत शांत बना रहा।
मेेरे जन्मस्थान ‘दायरादीन पनाह’ में जून 1947 में अचानक कुछ उपद्रवी तत्व पंजाब के सीमा प्रांत (वर्तमान वज़ीरिस्तान के कबाइली क्षेत्र जहां अब तालिबान का ही प्राय: अधिकार है।) से आए। हट्टे-कट्टे लंबे पठानों को मैंने देखा जो हिन्दू दुकानदारों के साथ अकारण झगड़ा कर मारपीट कर रहे थे। मेरे लिए यह सर्वथ अप्रत्याशित दृश्य था, पहले भी ये पठान और मजबूत कद-काठी की पठानियां अपनी पीठकर अपने नन्हें बच्चों को कपड़े की थैली में रखे, सूखे मेवे और चमन के प्रसिद्ध अंगूर बेचने आया करती थीं। यह घटना निकट भविष्य में विस्थापन की शायद सुनियोजित भूमिका थी।
किंतु सुखद आश्चर्य हुआ, जब आसपास हिंसक दंगों की सूचनाएं मिलने लगीं तो हमारे गांव के पठान थानेदार ने अल्पसंख्यक हिंदुओं को भयभीत न होने का आश्वासन देकर केवल 15-20 सिपाहियों के साथ सुरक्षा का कड़ा प्रबंध कर दिया। दशहरा का पर्व इस बार न मनाने का निश्चय करने पर हिंदुओं को यथापूर्व नि:संकोच त्यौहार मनाने और गांव के खेतों में रावण का पुतला यथापूर्व धूमधाम से जलाने के लिए राजी कर लिया। रात को कभी-कभी गांव के कुछ कट्टरपंथी उपद्रवी ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के जिहादी नारे लगाने का जब सामूहिक प्रयास करते तो घोड़े पर चढ़कर वो बंदूक लेकर सिपाहियों के साथ पहरा देता रहता। युसुफ खान पठान जैसे एक आदर्श थानेदार की ऐसी कत्र्तव्यपराण्यता सचमुच अविस्मरणीय है।
नवम्बर, 2010 में दूसरी बार पाकिस्तान-यात्रा में जब मैं अपने शायद मित्र डा. एम.पी. चांद के साथ गया और उनके जन्म स्थान ‘करोड़ लालहर्षण’ में उनके खस्ताहाल मकान को देखा तो वहां उनके स्वागत में एकत्र उनके मित्रों को उन्होंने एक घटना सुनाई कि भारत में भी एक सिख ने अपने मुसलमान दोस्त की कैसे जान बचाई। उनका परिवार भी विस्थापित होकर जिला फिरोजपुर के निकट ‘ज़ीरा’ कस्बे में आ गया था, जहां उनके पिता जी सरकारी हाई स्कूल के हैडमास्टर थे। वहां स्कूल पुस्तकालय में एक उर्दू पत्रिका में ‘साकिब जीरवी’ नाम से समाचार छपा था कि जीरा के दंगाइयों को जब पता चला कि वह शायर अपने दोस्त सरकार गुरमुख सिंह दर्ज के घर छुआ हुआ है तो उन्होंने उसकी हत्या करने के लिए वहां हल्ला बोल दिया। गुरमुख सिंह ने तुरंत अपने मुसलमान मित्र की जान बचाने के लिए अपनी बीमार पत्नी के साथ उसे लिटा दिया और पत्नी का कम्बल भी उस पर डाल दिया। पत्नी का मुख कम्बल से बाहर दिखाई दे रहा था।
बलवाइयों ने कहा कि आप घर में आकर देख लें। वह यहां केवल मेरी बीमार बीवी पड़ी है। बलवाइयों ने सारा घर देखा और लौट गए। वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि अपने मुस्लिम दोस्त को बचाने के लिए गुरमुख इतनी बड़ी कुर्बानी भी दे सकता है।
माननीय सद्भावना एवं सहयोग के कुछ और उदाहरण भी हैं जो पाकिस्तान और भारत से पड़ोसी देशों में पड़ी दरार को पाटने में सहायक हो सकते हैं।
माननीय सद्भावना एवं सहयोग के कुछ और उदाहरण भी हैं जो पाकिस्तान और भारत से पड़ोसी देशों में पड़ी दरार को पाटने में सहायक हो सकते हैं।
मेरी 2006 और 2010 की दोनों यात्राओं में वहां के साहित्यसेवियों, बुद्धिजीवियों ने जैसा हमारा हार्दिक अभिनंदन और सम्मान किया, उससे तो यही लगता है कि वहां का जनसाधारण भारत का विरोधी नहीं है। लाहौर के प्रसिद्ध अनारकली बाज़ार जाते हुए मार्ग में जब मेरे साथी ने विधानसभा भवन का फोटो लेने के लिए आटोरिक्शा को रोकने को कहा तो लंबी दाढ़ी वाले आतंकी जैसे दिखने वाले ड्राइवर ने चिल्लाकर कहा ‘असैंबली का फोटों क्यों खींचना चाहते हो?’ यहां तो हमारा खून चूसने वाले राजनेता रहते हैं, आपका भारत और हमारा पाकिस्तान एक ही समय 1947 में आजाद हुआ। वहां कभी फौजी हुकूमत रही? यहां 35 वर्ष से फौजी डिक्टेटर हुकूमत करते रहे। अगर फोटो खींचना है तो मैं आपको ‘मीनार-ए-पाकिस्तान’ ले चलता हूं। ‘मुहम्मद हकवाल’ का मकबरा दिखाता हूं।
ये सच है पाकिस्तान और भारत के लोग तथा बुद्धिजीवी दोस्ती चाहते हैं। परन्तु कुछ स्वार्थी राजनेता और कट्टरपंथी धर्मगुरु एवं आतंकी संगठन परस्पर दुश्मनी और हिंसा, युद्ध की बातें कर विरोधी भावनाओं की आग भड़काकर अपनी रोटियां सेंकते हैं।
साभार-वे 48 घंटे-डा. चंद्र त्रिखा
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 69