
डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल के आलेख
साहित्य और विचारधारा
साहित्य और राजनीति के अंत:सम्बन्ध
कविता की भाषा और जनभाषा
जनवादी कविता की पहचान
जनवादी कविता की विरासत
जॉर्ज लूकाच
लूकाच का वास्तविकतावाद
रचना के कलात्मक और ज्ञानात्मक मूल्यों का सहयोजन
जातिवाद जनविरोधी राजनीति का एक औजार
मध्यवर्ग के आदर्शवादी तत्व और आरक्षण का सवाल
विकल्प की कोई एक अवधारणा नहीं
डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल व रमेश उपाध्याय का पत्र-व्यवहार
हरियाणा में रागनी की परम्परा और जनवादी रागनी की शुरुआत
बौद्धिक साहस और कल्पना की उदात्त तीव्रता का स्वर आबिद आलमी – डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल व दिनेश दधिची
साक्षात्कार
उत्तर आधुनिकता पर साक्षात्कार – डा. ओम प्रकाश ग्रेवाल का डा. कर्मजीत सिंह से
वस्तु व रूप के संबंधपर साक्षात्कार – डा.ओम प्रकाश ग्रेवाल के साथ डा. कर्मजीत सिंह से
डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल के व्यक्तित्व पर
ओम प्रकाश ग्रेवाल के न रहने का मतलब -रमेश उपाध्याय
ओमप्रकाश ग्रेवाल और आलोचकीय व्यवहार की भूमिका – आनंद प्रकाश
डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल- हरियाणा में नवचेतना के अग्रदूत – डी.आर.चौधरी
डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल : एक जुझारू अध्यापक – वी.बी.अबरोल
प्रो. ओम प्रकाश ग्रेवाल और हरियाणा में सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों का सफर – एस.के.कालरा
डॉ. ग्रेवाल को याद करते हुए –राजबीर पाराशर
अँग्रेजी साहित्य शिक्षण में ओम प्रकाश ग्रेवाल का योगदान – भीम सिंह दहिया
नव जागरण के अग्रदूत डॉ. ओ.पी. ग्रेवाल – ओमसिंह अशफाक
प्रो. ओम प्रकाश ग्रेवाल की याद में – अविनाश सैनी
वैचारिक योद्धा डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल – डा. सुभाष चंद्र
डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल का परिचय (1937 – 2006)
हरियाणा के भिवानी जिले के बामला गांव में 11 जुलाई 1937 को जन्म हुआ।भिवानी से स्कूल की शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। अमेरिका के रोचेस्टर विश्वविद्यालय से पीएच डी की उपाधि प्राप्त की।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। कला एवं भाषा संकाय के डीन तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डीन एकेडमिक अफेयर रहे।
जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं महासचिव रहे। जनवादी सांस्कृतिक मंच हरियाणा तथा हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के संस्थापकों में रहे। साक्षरता अभियान मे सक्रिय रहे।
‘नया पथ’ तथा ‘जतन’ पत्रिका के संपादक रहे।
एक शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों, शिक्षक सहकर्मियों व शिक्षा के समूचे परिदृश्य पर शैक्षणिक व वैचारिक पकड़ का अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया। हिंदी आलोचना में तत्कालीन बहस में सक्रिय थे और साहित्य में प्रगतिशील रूझानों को बढ़ावा देने के लिए अपनी लेखनी चलाई। नव लेखकों से जीवंत संवाद से सैंकड़ों लेखकों को मार्गदर्शन किया।
वे जीवन-पर्यंत साम्प्रदायिकता, जाति-व्यवस्था, सामाजिक अन्याय, स्त्री-दासता के सांमती ढांचों के खिलाफ सांस्कृतिक पहल की अगुवाई करते रहे। प्रगतिशील-जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता उनके व्यवहार व लेखन व वक्तृत्व का हिस्सा हमेशा रही।
गंभीर बीमारी के चलते 24 जनवरी 2006 को उनका देहांत हो गया।