हरियाणा में रचित हिन्दी कविता की अर्धशती -राजेन्द्र गौतम

साहित्य


हरियाणा में रचित समकालीन हिन्दी कविता पर बात करते हुए एक दिक्कत सामने आती है। कविता का पार्थक्य भाषाओं और अलग-अलग काल-खंडों के आधार पर तो समझा जा सकता है पर सोनीपत से शामली की हिंदी कविता का अंतर समझ पाना अथवा पंचकूला से मोहाली की कविता को अलगा कर देखना थोड़ा कठिन है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैंने पिछले दिनों हरियाणा में रचित साहित्य से जुड़े आलोचना-ग्रंथों में ऐसे वाक्य पढ़े हैं कि फलां लेखक इसलिए अप्रासंगिक हो जाता है क्योंकि फलां पुस्तक प्रकाशित कराते समय वह हरियाणा से पंद्रह किलोमीटर दूर था। उन्हीं आलोचना-ग्रंथों में ऐसे रचनाकारों का प्रशस्ति-गायन भी देखा गया है, जिनका हरियाणा की संस्कृति से दूर का भी रिश्ता नहीं हैं। आजकल तो मुझसे भी जवाब मांगा जा रहा है कि मैं हरियाणा का नागरिक हूँ या नहीं। यह उल्लेख इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इसमें संदर्भित लेखकों की ‘नागरिकता’ यदि किसी को विवादास्पद लगती है तो उसे मेरी निजी मान्यता समझ कर नजरअंदाज कर दें। यह बात दीगर है कि ये निजी मान्यताएं निराधार नहीं हैं।

हरियाणा की कविता का मूल्यांकन यहां हम पहली बार नहीं कर रहे हैं। पूर्ववत्र्ती ही नहीं, समकालीन कविता का मूल्यांकन भी अनेक विद्वानों द्वारा गत पचास वर्षों में अनेक बार हुआ है। 1985 में हरियाणा से बहुत दूर इलाहाबाद से ‘उन्नयन’ नामक एक पत्रिका का ‘हरियाणा-पंजाब कविता विशेषांक’ भी निकला था लेकिन इसमें संदेह नहीं है कि ये प्रयास वर्तमान रूप में हरियाणा के अस्तित्व में आने के कई वर्ष बाद आरम्भ हुए। इस दिशा में आरम्भ में महत्त्वपूर्ण कार्य ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ के द्वारा ही किया गया। अकादमी ने यह कार्य दो स्तरों पर किया है। एक, हरियाणा में रचित हिन्दी कविता का संग्रहण दूसरे उसका मूल्यांकन। संग्रहण-योजना के अंतर्गत ‘सरगम’, ‘नयी सम्भावनाएं’, ‘रसम्भरा’, ‘कविता के आर पार’, ‘धूप और गंध’, ‘कविता-यात्रा-6’ तथा ‘हरियाणा की प्रतिनिधि कविता’ के रूप में सात संकलनों का प्रकाशन हुआ है। हरियाणा में रचित हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य को समझने में इन संग्रहों की सामग्री और इनके सम्पादकीय वक्तव्यों की विशेष भूमिका है। अकादमी ने अलग से दो मूल्यांकनपरक ग्रंथों का प्रकाशन किया है। वे हैं: ‘हिन्दी साहित्य को हरियाणा का योगदान’- 1991 (सं. प्रो. शशिभूषण सिंहल एवं श्री सत्यपाल गुप्त) तथा ‘हरियाणा का हिन्दी साहित्य’- 2008 (सं. प्रो. लालचंद गुप्त मंगल)। तीसरा बड़ा आयोजन हरियाणा सरकार द्वारा तैयार करवाए गए ‘हरियाणा एन्साइक्लोपीडिया’ का खंड तीन दो भागों के प्रकाशन के रूप में सामने आया है। इस आयोजन की सम्पादक डा. शमीम शर्मा हैं।

ऐतिहासिक महत्त्व के इन आयोजनों  की एक सीमा भी है। यह कार्य मूलत: सर्वेक्षणपरक है और इसमें सामग्री के आकलन का प्रयास अधिक है। आरम्भ में यह जरूरी भी था लेकिन अब अगला और अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य यहां से प्रारम्भ होता है। वह है – इस सामग्री का पाठपरक विश्लेषण एवं विवेचन कर उसके प्रदेय का समूचे हिंदी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करना। मूल्यांकन का कार्य कभी हड़बड़ी में नहीं हुआ करता। इसके लिए विस्तृत योजना बना कर निजी अथवा सांस्थनिक प्रयास करने होंगे।

मेरा आशय यह नहीं है कि हरियाणा में रचित हिन्दी कविता का पाठपरक अध्ययन हुआ ही नहीं है। प्रांत के विश्वविद्यालयों ने, विशेषकर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ने पी-एच. डी. और एम. फिल. के शोधार्थियों द्वारा हरियाणा में रचित हिन्दी कविता का व्यापक पाठपरक अध्ययन भी करवाया है लेकिन इस शोधकार्य का स्तर विचारणीय भी है।

हरियाणा में रचित हिन्दी कविता के स्वर, स्तर और परिमाण का सापेक्ष सम्बन्ध यहां के भाषिक परिदृश्य से है। किसी भी समाज की रचनात्मक प्रतिभा का भी एक समग्र योग अर्थात् ‘सम् टोटल’ तो होता ही होगा। यह कुल प्रतिभा एक ही दिशा में गतिशील हो रही है या इसका वितरण हो रहा है, इससे उस समाज का रचनात्मक परिदृश्य भी प्रभावित होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। लम्बे समय तक हरियाणा में रचित हिन्दी कविता का शेष हिन्दी कविता से पिछड़ने का एक कारण हरियाणा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति का एकमात्र मार्ग खड़ीबोली हिन्दी नहीं होना भी रहा है।

जिसे हम आज विशेष राजनैतिक सीमाओं में बंधा हरियाणा कहते हैं, उसका सांस्कृतिक अस्तित्व तो पुराना है और आजादी से पहले इस सांस्कृतिक हरियाणा में मात्रात्मक अनुपात की दृष्टि से सर्वाधिक काव्य-सर्जना हरियानी और उर्दू में हुई है। उसका काल-विस्तार भी खुसरो से लेकर अब तक है। विभाजन के बाद यहां आकर बसने वाले एक बड़े समुदाय ने पंजाबी में अपनी रचनात्मकता को मुखर किया।

हरियाणा में खड़ीबोली केवल नगरों में और वहां भी शिक्षित वर्ग द्वारा बोली जाती रही है, इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है कि कई बड़े नामों की उपस्थिति के बावजूद 1950 तक हरियाणा में खड़ीबोली हिन्दी में रचित कविता का परिमाण ही सीमित नहीं रहा है, समग्र हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों से उसका तालमेल भी थोड़ा कम रहा है बल्कि सही मायने में अखिल भारतीय स्तर पर हरियाणा की कविता हरियाणा की वर्तमान राजनैतिक संरचना के बाद ही सम्भव हो पाती है। ‘हरियाणा की प्रतिनिधि कविता’ की भूमिका में माधव कौशिक ने लिखा है: ”यदि सत्तर के बाद की हरियाणा की कविता का अनुशीलन करें तो विशेष प्रकार के प्रभावोत्पादक बदलाव की मानसिकता दृष्टिगोचर होती है। उस समय कवियों की एक बड़ी जमात सामने आई तथा उन्होंने कविता, नवगीत व गज़़ल के माध्यम से अपनी पहचान बनानी प्रारम्भ की। जिस प्रदेश के लिए यह प्रसिद्ध था कि यहां ‘एग्रीकल्चर’ तो है ‘कल्चर’ नहीं, वह प्रदेश धीरे-धीरे साहित्यिक मानचित्र पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने लगा। तीन दशकों के उपरान्त स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ चुका है। गीत, नवगीत तथा गज़़ल के क्षेत्र में तो हरियाणा के रचनाकार प्रथम पंक्ति के सिरमौर कवियों में सम्मिलित किए जाते हैं।’’ संयोग से मेरे द्वारा भी ऐसी ही स्थापना तीन दशक पूर्व ‘कविता-यात्रा-6’ की भूमिका में की गई थी। सत्तर के दशक में हरियाणा की कविता में कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।

समकालीन यथार्थ से गहरे जुड़ाव ने कविता के कथ्य को बदला और शिल्प की ताजग़ी ने उसको समकालीन हिन्दी कविता से जोड़ा। हरियाणा की समकालीन कविता विविधरूपा है। इस दौर में इसने अपने समय के डिक्शन को आत्मसात् कर भावबोध का युगानुरूप विकास किया है। पूर्ववर्ती समाज-सुधार की इतिवृत्तात्मक शैली की अपेक्षा प्रगतिशील सामाजिक प्रतिबद्धता उसमें अधिक है। कवि देख रहा है कि परिवेश बहुत खूँखार हो गया है। आम आदमी शोषण, मुद्रास्फीति, अभाव, माफिया-तंत्र, आतंक और जातिपरक शोषण के चंगुल में फँस गया है। कविधर्म की मांग यही थी वह युगबोध की अभिव्यक्ति का दायित्व निभाए। हरियाणा की समकालीन कविता की उपलब्धि का सबसे अधिक रेखांकनीय बिंदु यही है कि उसने इस दायित्व का भरपूर निर्वाह किया है। अल्प मात्रा में ही सही, पर कविता स्त्री विमर्श दलित विमर्श जैसे समकालीन बोध से भी कटी हुई नहीं है। खास बात यह है कि उसका दायित्व-निर्वाह सभी काव्य-रूपों के माध्यम से हुआ है।

समकालीन हिन्दी कविता की दो प्रमुख धाराएँ हैं। एक छांदसिक, दूसरी अछांदसिक। ये ��ाराएँ हरियाणा में निर्विरोध प्रवाहित रही हैं बल्कि कई कवियों ने दोनों प्रकार की रचनाएँ की हैं। उन कवियों की संख्या भी कम नहीं है, जिन्होंने छंद के भी अनेक रूपों –गीत, गज़़ल, दोहा, कवित्त आदि को अपनाया है। हरियाणा में रचित हिन्दी कविता के इन विविध स्वरों का समग्र विश्लेषण तो बहुत विस्तार की मांग करता है। यहां हम संक्षेप में इसका जायजा लेंगे। इस दौर में मात्रा की दृष्टि से मुक्त छंद और गज़़ल, समृद्धतम काव्यधाराएँ हैं। यह दावा अतार्किक और अप्रामाणिक होगा कि इन विधाओं में रचा गया सारा काव्य श्रेष्ठ ही है लेकिन इसमें श्रेष्ठता का उतना अंश अवश्य है, जो समकालीन हिन्दी कविता में हरियाणा को सम्मान दिलाता है।

गत पचास वर्षों में रचनारत छंद-मुक्त धारा के प्रमुख कवि हैं: पूरन मुदगल, सुगनचंद मुक्तेश, रूपदेवगुण पुष्पा मानकोटिया, सुभाष रस्तोगी, शिशु रश्मि, रामशरण युयुत्सु, अशोक भाटिया, राकेश वत्स, सुधा जैन, जितेन्द्र वाशिष्ठ, रामकुमार आत्रेय, हनुमंत राय नीरव, हरनाम शर्मा, रामनिवास मानव, विकेश निझावन, त्रिलोक कौशिक,मनमोहन, हरभगवान चावला, जयपाल, ओम सिंह ‘अशफाक’, मनोज छाबड़ा, विपिन चौधरी, अमित मनोज आदि। यह सूची बहुत लम्बी है यहां सबका उल्लेख सम्भव नहीं है अपितु इस कविता की प्रवृत्तियों का उदाहरणों से परिचय पाना बेहतर होगा।

हिन्दी कविता में बीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में हाशिए की अस्मिताओं को केंद्र में लाने का प्रयास विशेष रूप से हुआ है। हाशिए की इन अस्मिताओं में दलित, स्त्री एवं आदिवासी अस्मिताएं प्रमुख हैं। हरियाणा की विशेष भौगोलिक स्थिति के कारण यहां की कविता में आदिवासी अस्मिताएं स्थान नहीं पा सकी हैं लेकिन दलित एवं स्त्री विमर्श से जुड़े आंदोलनों की छायाएं यहां के साहित्य पर भी पड़ी हैं। यह बात दूसरी है कि इन आंदोलनों की उतनी मुखर अभिव्यक्ति हरियाणा की कविता में नहीं हुई है, जैसी अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी कविता में दिखाई देती है लेकिन यहां के कवि का बदला हुआ सौंदर्य-बोध जरूर पाठक को प्रभावित करता है। यहां उदाहरण देने का अवकाश नहीं है। उल्लेेखनीय है कि गत पचास वर्षांे में हरियाणा के कवियों के छंद-मुक्त धारा के शताधिक संकलन प्रकाशित हुए हैं। जिनमें प्रमुख हैं-

अश्व लौट आएगा, ठहरा हुआ सत्र, एक चिडिय़ा उसके भीतर , (पूरन मुद्गल), रोशनी की लकीर, सब चुप हैं (सुगनचंद मुक्तेश), सुबह की तलाश, शब्दों का इंतजार (पुष्पा मानकोटिया), नारों के अंधे शहर में, आवाज के पेड़ (शिशु रश्मि), मुझे यकीन है, जरा और कविता (राकेश वत्स),गली का आदमी, एक बात पूछूं(रूपदेवगुण), बुझी मसालों का जुलूस, बूढ़ी होती बच्ची (रामकुमार आत्रेय), टूटा हुआ आदमी, कत्ल सूरज का, समय के सामने (सुभाष रस्तोगी), बीसवीं सदी का कीट्स (जितेन्द्र वाशिष्ठ), टूटते उजाले (रामशरण युयुत्सु), सूखे में यात्रा (अशोक भाटिया),  निम्मो अनुत्तीर्ण क्यों (मधुकांत), अवन्नी चवन्नी (प्रदीप कासनी), अंकगणित बदल रहा है (त्रिलोक कौशिक), कुंभ में छूटी औरतें (हरभगवान चावला), दरवाजों के पीछे (जयपाल), भूकंप में बच्चे (ओम सिंह ‘अशफाक’), चिडिय़ा कोई दुख तो नहीं (अमित मनोज) आदि ऐसे अनेक संकलनों के अतिरिक्त इस दौर में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएं इस समृद्धि में योग देती है।

मेरा मानना है कि हरियाणा की उर्दू की पृष्ठभूमि गज़़ल के बहुत अनुकूल रही है इसीलिए यहां उस पारम्परिक गज़़ल की तो प्रचुर रचना हुई ही जिस का दाय उसने उर्दू से ग्रहण किया है, विशेष यह है कि सत्तर के दशक से जब हिन्दी गज़़ल दुष्यंतकुमार त्यागी के साथ नया तेज लेकर सामने आती है तो हरियाणा के रचनाकारों की नयी पीढ़ी उससे विशेष रूप से जुड़ती है। हिन्दी गज़़ल को इस पीढ़ी ने महत्त्वपूर्ण योग दिया है। गज़़ल के इन नए हस्ताक्षरों में विजय कुमार सिंघल, ज्ञान प्रकाश विवेक, माधव कौशिक और हरेराम समीप बड़े नाम हैं। इन कवियों को उदयभानु हंस, कुन्दन गुडग़ांवी, राणाप्रताप गन्नौरी, निर्दोष हिसारी और बी.डी. कालिया हमदम जैसे कई उस्तादों की परम्परा मिली थी। राणाप्रताप गन्नौरी नयी और पुरानी पीढ़ी के संयोजन-स्थल पर अवस्थित हैं। उनकी इस तरह की गज़़लें नयी भावभूमि से जुड़ी हैं-

बन गया है पैसा अब ख़ुदा ज़माने का
घूमता है हर कोई जेब में ख़ुदा लेकर
यह दुकान हर सौदा घाटे का ही करती है
जाओगे न घर वापिस कोई फ़ायदा लेकर

तरक्कीपसंद शायरी से जुड़ी हिन्दी गज़़ल के सामने बड़ा मसला गज़़लियत को बचाते हुए ज़माने के तीखे धधकते सवालों से रू-ब-रू होना था। हरियाणा की नयी पीढ़ी के गज़़ल कहने वालों ने यह कमाल किया भी। सरमायेदारी और भ्रष्ट सियासत ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया था। इस नये दौर में गज़़ल का साकी, मीना और सागर वाला तथा आशिक-माशूक वाला पहरन बेमानी हो गया था। तब कुछ ऐसा स्वर हरियाणा की हिन्दी गज़़ल में सुनायी दे रहा था-

जब भी हमने पंख तोले हैं उड़ानों के लिए
हम चुनौती बन गए हैं आसमानों के लिए
ख़ामुशी में काट देते हैं जो सारी जि़ंदगी
खोल अब अपनी ज़बां उन बेज़बानों के लिए
सारी दुनिया के लिए जो फ़स्ल कल बोता रहा
आज वो मोहताज है क्यों चार दानों के लिए

यह तेवर है विजयकुमार सिंघल की गज़़लों का और इसी तेवर की अनेक गज़़लें उनके ‘धूप हमारे हिस्से की’, ‘बर्फ से ढका ज्वालामुखी’, ‘सात समुन्दर प्यासे’, ‘धुंध से गुजरते’ हुए शीर्षक संग्रहों में संकलित हैं।

उधर ‘धूप के हस्ताक्षर’, ‘आंखों पर आसमान’, ‘इस मुश्किल वक्त में’ के रचयिता ज्ञानप्रकाश विवेक अपने दौर के आदमी की उलझन और बेबसी को यों जुबान देते हैं:

तमाम घर को बयाबां बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यों बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लकें भर लीं
मैं दोस्तों की दुआएं बचा के रखता था
वो जिस नदी पे उछाले हैं अपने पत्थर
मैं उसपे कागज़ी कश्ती बना के रखता था

माधव कौशिक भी सारी तकलीफ़ों को सहते हुए, सारी मुख़ालफ़त से टकराते हुए और नाउम्मीदी से लड़ते हुए रोशनी की बात यों करते हैं-

ये तो तय है रोशनी को अब कहां रख  जाऊँगा
खोल कर सब के जहन की खिड़कियां रख जाऊँगा
जो जला करते हैं महलों को सजाने के लिए
उन चिरागो में बगावत का धुआं रख जाऊँगा
आने वाली पीढिय़ों को कुछ तो आसानी रहे
रास्ते भर खून के ताजा निशां रख जाऊँगा

माधव कौशिक का हरियाणा की हिन्दी गज़़ल में गुणात्मक दृष्टि से ही विशेष स्थान नहीं है, मात्रात्मक समृद्धि का पता भी उनके ‘आइनों के शहर में’, ‘किरण सुबह की’, ‘सपने खुली निगाहों के’, ‘हाथ सलामत रहने दो’, ‘नयी सदी का सन्नाटा’, ‘आसमान सपनों का’ जैसे संकलन देते हैं।

जैसा कि हम कह चुके हैं, इस दौर में हरियाणा में गज़़ल का अभूतपूर्व  मात्रात्मक विस्तार हुआ है, उसका पता कुछ चुने हुए संकलनों से चलता है। वे हैं: ‘आंधियों के दौर में’, ‘कुछ तो बोलो’, ‘किसे नहीं मालूम’, ‘हवा से भीगते हुए’ (हरे राम समीप), ‘समंदर के दायरे’, ‘मजबूरियां मेरी’, ‘क्यों सभी खामोश हैं’, ‘हादसा हूं मैं’, ‘इशारे हवाओं के’ (देवेन्द्र मांझी), ‘धूप के इश्तिहार’, ‘कुछ कदम फुटपाथ पर’, ‘कतरे में समुन्दर’(गुलशन मदान), ‘इबारत हाशिए की’ (दिनेश दधीचि),  काली नदी, (चन्द्र त्रिखा), ‘तलाश अपने साये की’ (कंवल हरियाणवी), ‘कहकशां’(रमेश सिद्धार्थ), ‘वक्त के अंदाज’, ‘आवाजों के जंगल’, ‘अम्बर तक आते सपनों में’, (अमरजीत अमर), ‘बूंद-बूंद वेदना’, (सारस्वत मोहन मनीषी), ‘तपी हुई जमीन’ (राजकुमार निजात), ‘मालकौंस तथा पीड़ा का स्वयंवर’, (विपिन कुमार सुनेजा), ‘आओ खोलें बंद झरोखे’ (संतोष धीमान), ‘वक्त की शतरंज पर’ (राजेन्द्र चांद), ‘मंजऱ मंजऱ अंगारे’ (योगेन्द्र मौदगिल), ‘दुनिया भर के गम थे’ (श्यामसखा श्याम), ‘मैं फिर आऊंगा’ (सत्यपाल सक्सेना),’रूह लेगी फिर जनम’ तथा ‘कर आजाद उजालों को’ (आर के पंकज), ‘सन्नाटा बुनते दिन’ (घमंडीलाल अग्रवाल)।

हरियाणा के गज़़लकारों के स्वतंत्र संकलनों के अतिरिक्त संयुक्त संकलनों की संख्या भी कम नहीं है। गज़़ल के अन्य चर्चित हस्ताक्षर हैं-बलदेव राज शांत, अर्चना ठाकुर, राकेश वत्स,  मनु गौतम, फज़रूद्दीन बशर, नसीम चसवाल, सोमप्रकाश चसवाल आदि। हरियाणा की गज़़ल ने कथ्य के क्षेत्र में ही उल्लेखनीय उपलब्धियां नहीं प्राप्त की हैं, इसकी तकनीक की श्रेष्ठता भी काबिले गौर है।

हरियाणा में पारम्परिक गीत की ज़मीन तो बहुत उपजाऊ रही है जबकि सन् साठ के पहले से नवगीत आंदोलन के अस्तित्व में आ जाने के बावजूद 1970-75 तक हरियाणा की कविता में इसकी कोई सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती और पारम्परिक गीत का ही बोलबाला यहां दिखाई देता है। लेकिन उसके बाद नवगीत-धारा को हरियाणा के कई समर्थ रचनाकारों का सहयोग मिला है। हरियाणा में रचनारत नवगीतकारों के प्रदेय की चर्चा से पूर्व इतिहास-क्रम की दृष्टि से उन गीतकारों की चर्चा संक्षेप में कर लेना अपेक्षित होगा जिनका स्वर समकालीन हिन्दी कविता से तो पिछड़ता नजऱ आता है लेकिन हरियाणा के साहित्यिक वातावरण को सजीव रखने और नये रचनाकारों को प्रेरित करने में जिनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ये रचनाकार हरियाणा के अस्तित्व में आने से दो-तीन दशक पहले से रचनारत थे पर उनके 1966 के बाद के काव्य में भी बड़ा प्रवृत्यात्मक परिवर्तन दिखाई नहीं देता। इन कवियों में कुछ चर्चित नाम हैं- जयनाथ नलिन, रामेश्वरलाल खंडेलवाल ‘तरुण’, छविनाथ त्रिपाठी, खुशीराम वशिष्ठ, उदयभानु हंस, रत्नचंद शर्मा, पी.डी. निर्मल, भगवानदास निर्मोही, रामावतार अभिलाषी, लीलाधर वियोगी और प्रभुदयाल कश्यप। इनके काव्य  में उत्तरछायावादी प्रवृत्तियों की प्रधानता है। इस दौर के कुछ कवि-सम्मेलनी कवि भी रहे पर आने वाली पीढ़ी पर वे कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ सके। लोकप्रियता दृष्टि से इनमे उदयभानु हंस को काफी प्रतिष्ठा मिली।

नवगीत को लेकर रचनाकारों और आलोचकों में कई भ्रांतियां रही हैं। कुछ-एक ने तो इसे एक खास तरह का फॉरमूलाबद्ध लेखन मान लिया और कुछ खास शब्दों, पदबंधों और मुहावरों के प्रयोग को ही इसका आधार मान कर कई तुकबंदियों को नवगीत नाम देकर कवि-गौरव पाने का प्रयास किया है। वास्तव में नवगीत गीत का वह रूप है, जिसने पारम्परिक गीत की गलदश्रु भावुकता से तो गीत को मुक्त किया ही है, साथ ही उसमें व्यष्टि के साथ समष्टि के अनुभव को समाहित किया गया है और सामाजिक यथार्थ से गीत को जोड़ा गया है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नवगीत आंदोलन पिछले पचास वर्षां से भी अधिक समय से अस्तित्व में रहा है लेकिन प्रवृत्त्यात्मक दृष्टि से यह जड़ या स्थिर नहीं है। उसमें युगबोध की सजग अभिव्यक्ति रही है, इसलिए इसमें आरम्भ में यदि आंचलिकता का स्वर प्रमुख है तो बाद में इसमें महानगरीय विसंगतियों का भी उतना ही सशक्त चित्रण है।

बीसवीं शताब्दी के अवसान काल में उत्तर आधुनिक परिवेश में जब भूमंडलीकरण के परिणाम स्वरूप बाजारवाद और उपभोक्तावाद का नंगा नाच शुरू हुआ तो नवगीतकार ने जीवन की उन तल्खियों को भी बहुत शिद्दत के साथ महसूसा है और कविता के प्रतिरोध दर्ज करवाने के दायित्व का निर्वाह करते हुए प्राणवान् कविता की सर्जना की। हरियाणा की कविता की यह एक बड़ी उपलब्धि है कि प्रदेश के कई नवगीतकारों के श्रेष्ठ स्वतंत्र गीत संकलन तो प्रकाशित हुए ही हैं, इसके अतिरिक्त उपर्युक्त विशेषताओं से सम्पन्न राष्ट्रीय स्तर पर जितने भी प्रतिनिधि सम्पादित संकलन प्रकाशित हुए हैं, उन सभी में हरियाणा के कुछ नवगीतकारों को अवश्य स्थान मिला है। डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित नवगीत दशकों और ‘नवगीत अद्र्धशती’ के रूप में जो तीन प्रतिनिधि संकलन प्रकाशित हुए हैं, उनमें कुमार रवीन्द्र और प्रस्तुत लेखक को भी स्थान मिला है।

हरियाणा के नवगीतकारों के सैंकड़ों गीत समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। कुछ विशिष्ट नवगीत-संग्रहों का उल्लेख यहां अपेक्षित है। वे हैं: आहत हैं वन, चेहरों के अंतरीप, पंख बिखरे रेत पर, सुनो तथागत तथा और हमने संधियां कीं (कुमार रवीन्द्र); गीत पर्व आया है, पंख होते हैं समय के, बरगद जलते हैं (राजेन्द्र गौतम); पंखुरी पंखुरी झरता गुलाब, त्रिविधा, एक बादल मन (राधेश्याम शुक्ल); जोग लिखी, खुशबू की सौगात (पाल भसीन); मौसम खुले विकल्पों का, शिखर संभावनाओं के (माधव कौशिक); घंूट भर जीवन (रामनिवास चावरिया) तथा हलफऩामे सुबह के (सतीश कौशिक)।

उदारीकरण के में दौर में जन-जीवन में बहुत उथल-पुथल हुई है। रिश्तों की चूलें बुरी तरह से चरमराई हैं। हरियाणा के नवगीतकारों की यह एक बड़ी उपलब्धि है कि उसने छीजती संवेदनाओं के उपभोक्तावादी दौर में विसंगतियों को उजागर करती श्रेष्ठ गीत रचनाएँ दी हैं। कुमार रवीन्द्र अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित नवगीतकार हैं। उनके गीतों का मात्रात्मक और गुणात्मक प्रदेय उल्लेखनीय है। निस्संदेह हरियाणा के नवगीतकारों की उपलब्धि अखिल भारतीय स्तर स्वीकृत हुई है।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हिन्दी कविता में दोहे का पुनर्जन्म और पुनर्संस्कार दिखाई देता है। यह दोहा मध्यकाल की आवृत्ति नहीं है अपितु उसका कथ्य और शिल्प नितांत नवीन है। यहां यह देख कर देख कर सुखद आश्चर्य होता है कि हरियाणा के कवियों ने नए दोहे का अनुकरण नहीं किया है बल्कि प्रवर्तन किया है। 1982 तक नया दोहा विशेष चर्चा में नहीं था जबकि उस वर्ष ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ के प्रकाशन ‘नयी सम्भावनाएँ’ में कुमार रवीन्द्र के कई सशक्त दोहे प्रकाशित हुए हैं। नए दोहे का संकलन रूप में प्रथम प्रकाशन का श्रेय भी हरियाणा के रचनाकार पाल भसीन को जाता है। इनके अतिरिक्त हरियाणा के चर्चित दोहाकार हैं। गत बीस वर्षों में उदयभानु हंस, कुमार रवीन्द्र, पाल भसीन, हरेराम समीप, राजेन्द्र गौतम, बलदेव राज शान्त, सारस्वत मोहन मनीषी, श्याम सखा श्याम, राम निवास मानव, नरेन्द्र अत्री, रक्षा शर्मा, सतपाल सिंह चौहान, नरेन्द्र आहूजा के अनेक संयुक्त और स्वतंत्र संकलन प्रकाशित हुए हैं। स्वतंत्र संकलनों में प्रमुख हैं: अमलतास की छांव (पाल भसीन) जैसे, साथ चलेगा कौन (हरेराम समीप), मनीषी सतसई (सारस्वत मोहन मनीषी), बोलो मेरे राम (राम निवास मानव), भारत सतसई (सतपालसिंह चौहान) आदि।

ऊपर हमने हरियाणा में रचित समकालीन हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों की एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है। हमारा लक्ष्य नाम-परिगणन नहीं है। इसलिए जिन रचनाकारों या कृतियों का यहां उल्लेख नहीं हुआ है, वह उनके महत्त्व का नकार नहीं है। यहां हमने एक नई करवट को पहचानने की कोशिश की है।

हरियाणा में रचित हिन्दी कविता के मूल्यांकन का समाहार करते हुए हम एक महत्त्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करना चाहेंगे। कविता अपनी जड़ों से जुड़ कर ही प्राणवान् हुआ करती है। अनुभव की आंच से तपाए बिना कृत्रिम अनुकरण मात्र से कविता न तो राष्ट्रीय हो पाती है और न अंतर्राष्ट्रीय! कई बार यह देख कर कष्ट होता है कि हमारे प्रदेश की अनेक कविताओं में हरियाणा की धड़कन गायब है। यहां की मिट्टी की महक उसमें नहीं है। ��म यदि अपनी कविता में अपना परिवेश अंकित करेंगे तो देश तो उसमें अपने आप आएगा ही!

और अंत में एक बात यह भी– उपर्युक्त समृद्धिपरक आकलन के बावजूद हमें यह नहीं मान लेना होगा कि हमने उपलब्धि के सारे शिखर छू लिए हैं। अभी हमें मात्रात्मक समृद्धि के साथ-साथ और आपेक्षिक गुणात्मक परिष्कार करना होगा। दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जैसे नए विमर्शों की प्रासंगिकता को पहचानना होगा। ताकि भविष्य के रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह हरियाणा में रचित हिन्दी कविता की उपेक्षा न कर सकें।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 76 से 79

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