आलेख
राजस्थान के किसान गजेन्द्र सिंह ने दिल्ली के जंतर मंतर पर फांसी लगा ली। टेलीविजन और अखबारों में बड़े बड़े अक्षरों में खबर छप गई। उत्तर प्रदेश के भट्टा परसौल में कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी पहुंच गए तो किसानों का आंदोलन टीवी की सुर्खियों में आ गया। जंतर मंतर पर तमिलनाडु के किसानों को मीडिया में जगह पाने के दिल्ली के पास के सूखे खेतों में नंगे होकर अपने आसपास मृत इंसानों की खोपडियां रखकर मीडिया के फोटोग्राफरों से तस्वीरें उतरवानी पड़ी। इन उदाहरणों के जरिये हम ये समझें कि क्या इससे किसान, किसानी और किसान जीवन को मीडिया में जगह मिली? या फिर आत्महत्या की घटना को जगह मिली और राहुल गांधी को जगह मिली? तमिलनाडु के किसानों के नंगे बदन और मृत इंसानों की खोपडियों की तस्वीरों से जो सनसनी पैदा होती है उसको जगह मिली? बेहद बारीकी से समझने की जरुरत है कि किन कारणों से मीडिया में किसानों और किसानी को कभी कभार जगह मिलती है। 1988 में दिल्ली के वोट क्लब पर महेन्द्र सिंह टिकैत ने एक ऐतिहासिक धरने का आयोजन किया था। तब दिल्ली के मीडिया ने किसानों के उस विरोध की कड़ी आलोचना की थी और उसे अखबार के पाठकों ( तब निजी घराने के टीवी चैनल नहीं थे) के किसान विरोधी मानसिकता की अभिव्यक्ति के रुप में देखा गया था। देश के इतिहास में मीडिया कभी भी किसानों के आंदोलनों के साथ खड़ा नहीं हुआ है और ना ही उससे यह अपेक्षा की जानी चाहिए।
देश का किसान जिस दिन ये समझने में कामयाब हो जाएगा कि इस देश में एक भी कारोबारी मीडिया उनका नहीं है बल्कि उनका विरोधी है, किसानों में एकता आ जाएगी और वे एक दूसरे से अपने दुख सुख को साझा करने के रास्ते निकाल लेंगे। याद करें तो 1980 के दशक में भारत भर में जगह-जगह किसान आंदोलन हो रहे थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में शरद जोशी तो नंजुन्दास्वामी कर्नाटक में किसान नेता के तौर पर खड़े हुए। लेकिन आज कोई भी किसान नेता दिखता है? पूंजीपतियों और व्यापारियों या फिर कर्मचारियों और मजदूरों के अखिल भारतीय संगठन हैं, लेकिन किसान अखिल भारतीय स्तर पर प्रभावी रूप से संगठित नहीं हैं। इसीलिए भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कारोबारी मीडिया को समझना राजनीति की गहरी से गहरी बात को समझ लेना है।
मीडिया सूचनाएं नहीं देता है, बल्कि वह अपने नजरिये के अनुकूल सूचनाएं देता है। इसीलिए यह समझना भी जरुरी है कि वह किस तरह की सामग्री को नहीं देता है। किसान केवल ट्रैक्टर, बीज, खाद, पेस्टीसाइड, लागत मूल्य, खरीद मूल्य नहीं है। किसान का मतलब कृषि क्षेत्र है। कृषि क्षेत्र खेत में पैदावार तक सीमित नहीं है। वह गांव में रहता है। इसके साथ जानवर जुड़े है। बाग बगीचे है। किसानों के दिनचर्चा में आने वाले दूसरे तमाम तरह के काम है। पैदावर पर निर्भर दूसरे तरह के उत्पाद में लगे लोग हैं। खेत मजदूर हैं। महिलाओं का जीवन है। जब ये कहा जाता है कि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार रहा है तो इसके मायने हैं कि देश की 75 प्रतिशत से ज्यादा की आबादी कृषि क्षेत्र के दायरे में आती है।
मीडिया किसी भी क्षेत्र में विकास की दिशा के लिए माहौल बनाता है। माहौल तरह तरह से बनते हैं। जैसे जब हरित क्रांति के लिए एक माहौल बनाना था तो सोना उगलने धरती वाले गाने फिल्मों में बजने लगे। लेकिन वह माहौल किसके लिए बनाया जा रहा है, यह नजरिया महत्व रखता है। कृषि क्षेत्र क्या उस क्षेत्र में लगे लोगों के विकास के लिए है। विकास का मतलब उनके रहन सहन के स्तर और सामुदायिक चेतना का विस्तार से है। यदि किसान व कृषि क्षेत्र उनके लिए है जिन्होंने अपने विकास की एक परिभाषा तय कर रखी है और उस विकास के लिए कृषि क्षेत्र को दुहने की नीयत से माहौल बनाया जाता है तो देश में किसान और कृषि क्षेत्र के मौजूदा हालात में पहुंचना स्वभाविक है।
किसान गरीब होता चला आ रहा है
क्या किसी ने किसी कारोबारी मीडिया में ये पढ़ा या टेलीविजन पर किसानों के बारे में सुना कि वे आजादी के बाद से गरीब क्यों होते चले गए? 1970 के रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बुलेटिन के अनुसार 1967-68 में दो करोड़ साठ लाख लोग 34 नया पैसा प्रतिदिन पर, चार करोड़ तेरह लाख लोग 81 नये पैसे और आठ करोड़ छब्बीस लाख लोग एक रुपये तीन पैसे पर जिंदा रहते थे। यानी 20 करोड 64 लाख लोग प्रतिदिन एक रुपया या उससे कम पर अपना जीवन गुजारते थे। दूसरी तरफ 1967 से 1969 के दौरान सरकार ने 99 कंपनियों के 146 व्यक्तियों को ज्यादा पारिश्रमिक देने की स्वीकृति दी। 144 प्रमुख लोगों में में 63 विदेशी थे। इनमें 27 हजार रुपये (कार, घर, मेडिकल की सुविधाओं के अलावा) महीने तक पारिश्रमिक था। यहां इस नमूने से अमीरी गरीबी के बीच की खाई को समझने का एक नजरिया मिलता है। नौकरीपेशा वालों और आम आदमी के बीच एक हजार गुना से ज्यादा का फर्क दिखता है। उद्योग धंधे करने वाले और आम आदमी के बीच यह फर्क तो कई हजार गुना हैं।
1974 में सरकार ने 105 रूपये प्रति किवंंटल गेहूं की खरीददारी करने की घोषणा की। उस समय बाजार में प्रति क्ंिवटल गेहूं 125 रूपये था। जब सरकार ने लेवी लेने की कोशिश की तो बाजार में रातो रात गेहूं की कीमत 170 से 180 रूपये प्रति क्ंविटल हो गई। चीजों की कीमत नहीं होती है। किस ताकतवर के नियंत्रण में कोई चीज है उसके हिसाब से कीमत तय होती है। 1967 में एक सौ किलों गेहूं में 121 लीटर डीजल मिलता था। अब उतने गेहूं में दस गुना कम लीटर डीजल मिलता है। डीजल 67 पैसे लीटर से लगभग सौ गुना बढ़ गया है। एक क्ंविटल गेहूं में 1800 र्इंटे और साढ़े नौ थैले से ज्यादा सिमेंट मिल जाता था तो 2.6 क्ंविटल गेहूं में एक तौला सोना और 195 क्ंिवटल में 35 हार्स पावर का मैसी ट्रैक्टर मिल जाता था। लेकिन अब एक ट्रैक्टर के लिए तीन गुना चार गुना क्ंिवटल गेहूं तो एक तौला सोना के लिए दस गुना ज्यादा गेहूं बेचना पड़ सकता है। दाल की कीमत तीस चालीस घंटे में जितनी बढ़ जाती है उसके अनुपात में खेत मजदूर की मेहनत की कीमत तीस वर्षों में भी नहीं बढ़ी है। एक पुरूष खेत मजदूर 1946 में पूर्वी उत्तर प्रदेश में 25 पैसे पाता था। 1974 तक बढ़कर ढाई रूपये हुआ। भारत सरकार की बात माने तो अब उत्तर प्रदेश में अठावन रूपये न्यूतम मजदूरी है। सबको पता है कि न्यूनतम मजदूरी कानून कितना चलता है। लेकिन इतनी मजदूरी मान भी लें तो 1946 में उत्तर प्रदेश में रूपये का चौथाई मिलता था। आज उस जमाने के जार्ज पंचम के सिक्के की कीमत बाजार में 265 भारतीय रूपये है। उस रूपये का कितना हिस्सा आज मिलता है? भारत सरकार ने 1950-51 और 1956-57 में कृषि श्रमिक जांच समितियों द्वारा अध्धयन कराया तो खेत मजदूरों की आय में बारह प्रतिशत की कमी आई थी। जबकि 1951 से 1974 तक कृषि उपभोग मूल्यों और खाद्यानों के दामों में पांच सौ पचास गुना की बढ़ोतरी आंकी गई थी। 1955-56 में खेत मजदूर जो औसत 88 रूपये का कर्जदार था वह 1974 में बढ़कर 900 रूपये हो गया। हरियाणा में एक हेक्टेयर में गेहूं की फसल से 1970 में 611 रुपये की आमदनी होती थी। वह 1974 -79 में घटकर 565 रुपये हो गई। मध्यप्रदेश में 1970-71 में जो 299 रुपये की आमदनी होती थी वह घटकर 1977-78 में 255 रुपये हो गई।
मीडिया का ढांचा
मीडिया एक धंधा है। इस धंधे में यही सिखाया जाता है कि अपने लाभ के लिए किस तरह की सामग्री कब और कैसे पेश करनी है। मीडिया कृषि क्षेत्र के लिए नहीं है। वह शहरी विकास के लिए है। उसमें जो पूंजी लगी है वह शहरी विकास के लिए ही है। वे कृषि क्षेत्र में शहरी विकास के लिए माहौल,वातावरण,संस्कृति की जगह तैयार करते है। यानी मीडिया कृषि क्षेत्र के तमाम संसाधनों व लोगों को अपने फलने फूलने के लिए ग्राहक बनाता है। इसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमीर देशों ने अपने विकास को जारी रखने के लिए दुनिया भर के गरीब और पिछड़े देशों के लिए विकास की एक परिभाषा तय की और उसमें मीडिया को सबसे बड़ा हथियार बनाया गया। हमारे देश में कृषि क्षेत्र उस समय दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले उन्नत थी। लिहाजा कृषि क्षेत्र और किसानी अमीरों की आंखों में गड़ गई । कारोबारी मीडिया का मतलब अमीरों के विकास के पक्ष में माहौल बनाने की एक धंधा है। जैसे एक ट्रैक्टर के लिए कई तरह के पूर्जे जगह जगह तैयार किए जा सकते हैं और उन पूर्जों को मिलाकर ट्रैक्टर तैयार कर लिया जाता है। उसी तरह से अमीरी के लिए भी तरह तरह के पूर्जे होते हैं। भारत जैसे देश में कृषि क्षेत्र के अर्थ व्यवस्था का मुख्य आधार होने के बावजूद किसान समेत उस क्षेत्र के लोगों की हालत इतनी बदत्तर कैसे हुई है और उस हालात में कारोबारी मीडिया दूसरे अमीरों और उनके धंधों के साथ खुद कितना अमीर हुआ है, यह अध्ययन किया जा सकता है। उसका पूरा कारोबार दूसरे अमीरों के साथ अपनी अमीरी बढ़ाने के इर्द-गिर्द चलता है। भारत में उसका कोई अलग चरित्र नहीं हैं।
पत्रकारिता की पढ़ाई का बदलता ढांचा
जब कृषि क्षेत्र में सबसे ज्यादा कमाई होती थी तब देश में पत्रकारिता की पढ़ाई कृषि क्षेत्र के लिए खुले संस्थानों में ही होती थी। समाज के जागरूक युवक युवतियां पत्रकारिता के क्षेत्र में जाते थे ताकि देश के किसानों, मजदूरों, ग्रामीण क्षेत्रों के हालात को लेकर लोगों को जगाकर उन्हें जोड़ा जा सके। किसानों और कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की तकलीफें क्या है, यह उन्हें बताने की जरुरत नहीं होती है। वे अपने हालात से वाकिफ होते हैं। पत्रकारिता का काम ये होता है कि वह ऐसे सभी लोगों को एकजुट होने के लिए माहौल तैयार करें। जैसे अंग्रेजों से आजादी के लिए लोगों को जोड़ा गया। वर्षों से गुलामी झेल रहे सभी लोगों को इसके लिए तैयार किया गया कि वे एकजुट होकर अंग्रेजों को भगा सकते है और गुलामी से मुक्त होकर खुशहाल जीवन जी सकते हैं। लेकिन कृषि से उद्योग और उसके बाद सेवा क्षेत्र में बढ़ोतरी के साथ ही पत्रकारिता की पढ़ाई का ढांचा भी बदल गया।
शिक्षण संस्थान कारखाने की तरह होते हैं जहां अपने अनुकूल लोग तैयार किए जाते हैं। कृषि संस्थानों में पत्रकारिता की पढ़ाई ठप्प हो गई है। पत्रकारिता की पढ़ाई फाइव स्टार होटलों की तरह के संस्थानों में होती है। लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं और एक पत्रकार को कई कई लाख रुपये की तनख्वाह मिलती है। गरीबी के हालात में रहने वाले पत्रकार मीडिया के मालिकों की तरह ही मीडिया कंपनियों के हिस्सेदार हो गए है या फिर अपनी कंपनियां शुरु कर दी है। कई पत्रकार सैकड़ों करोड़ रुपये की संपति के मालिक हो चुके हैं। समाज में सक्रिय रहने वाले युवक युवतियों के लिए कारोबारी मीडिया में नौकरी नहीं रह गई है। बड़े से बड़े संस्थानों से पत्रकारिता सीखना अनिवार्य सा कर दिया गया है।
मोंसेंटो का उदाहरण
मोंसेन्टो अमेरिकी कंपनी है। दुनिया भर में खेती के लिए बीज का धंधा करती है। पहले हरित क्रांति का शोर मचाकर कारखाने में बनने वाले ट्रैक्टर, खाद, पेस्टीसाइड आदि से पैदावार बढ़ाने का धुंआधार प्रचार किया गया। प्रचार गाना बनाकर, फिल्में तैयार करके, टेलीवीजन में प्रोग्राम बनाने के अलावा कई तरह से किया जाता है। अब बीजों की नई नस्ल का प्रचार किया जा रहा है। मोंसेंटों दुनिया में सबसे अमीर कंपनी में एक हैं। वह कई वर्षों से वह किसानों के बीच यह प्रचार कर रही है कि बीटी कॉटन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें। राजनीति बिकाऊ हो गई है इसीलिए उसे यहां सरकार की तरफ से दिक्कत नहीं हो रही है। लेकिन देश में कुछ लोग हैं जो अपने जमीर को बचाए रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जम्हूरियत तभी बचेगी, जब देश में लोगों के पास जमीन रहेगी। पानी पर उसका हक होगा और बीज को अगली फसल के लिए बचाकर रखने की परंपरा जीवित रहेगी। किसान अपने बीज को उन्नत करने की प्रक्रिया में शामिल हो। बीटी कॉटन के बारे में पुरानी पीढ़ी के एक पत्रकार जसपाल सिंह सिधु ने तीन किश्तों में एक लेख लिखा। उनका अपना खेत भी है। यह लेख पंजाबी के एक अखबार में छपना था। तीनों किश्ते बीटी कॉटन पर थी। लेकिन इसी बीच मोंसेन्टो ने पंजाब के भटिंडा से बीटी कॉटन की बिक्री के प्रचार के एक समारोह का आयोजन किया। पूरे पंजाब से बीज बेचने वाले बुलाए गए। लेकिन जिस दिन समारोह हो रहा था उसके एक दिन पहले लेख की पहली किस्त छप गई। उसका शीर्षक था कि ‘बीटी कॉटन के बीज फंसा रहे है किसानों को चक्रव्यूह में।’ समारोह के दिन दूसरी किश्त छप गई जिसमें मोंसेन्टो को सीधे-सीधे कटघरे में खड़ा किया गया था। उसका शीर्षक था ‘भ्रष्टाचार राहि बीटी कॉटन को आगे बढ़ा रही है अमेरिकन कंपनी’। बस क्या था मोंसेन्टो के स्थानीय अधिकारियों ने उस समाचार पत्र को विज्ञापन देने से मना कर दिया। जबकि राज्य के दूसरे समाचार पत्रों को बड़े महंगे-महंगे विज्ञापन दिए गए थे। जिस अखबार में विज्ञापन लेख छपा लेकिन विज्ञापन नहीं मिला तब अखबार के मालिक ने पूछा। आखिर ऐसा लेख छापने की क्या जरूरत थी? नीचे के संवाददाता को विज्ञापन हासिल करने के लिए कमीशन मिलता है। उसने भी कहा कि उसी दिन इस लेख को छापने की क्या जरूरत थी। तब उस अखबार के लोकल ऑफिस ने मोंसेन्टो को चेतावनी दी कि यदि दूसरे अखबारों की तरह उसे विज्ञापन नहीं दिया गया, तो वे उसकी खबरों का बहिष्कार कर देंगे। उस अखबार के संवाददाता का साथ दूसरे समाचार पत्रों के संवाददाताओं ने भी दिया। मोंसेन्टो को पता था कि इस तरह संवाददाताओं को नाराज कर लेंगे तो उसके प्रचार की हवा निकल जाएगी क्योंकि विज्ञापन से ज्यादा असर अखबारों में छपी खबरों का होता है।
पत्रकारिता पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण इसी तरह से होता है। कंपनियों के साथ इसी तरह लेन देन से मीडिया का कारोबार चलता है। इन दिनों समाचार पत्रों और चैनलों को विज्ञापन इसलिए नहीं मिलते हैं कि विज्ञापन से सीधे विज्ञापनदाता को फायदा होगा। फायदा इस रूप में कि उसकी चीजों के ग्राहक बढ़ेगें। विज्ञापन इसीलिए भी दिए जाते हैं ताकि खास तरह की संस्कृति का मीडिया प्रचार करें। उनकी भाषा और संस्कृति से बाजार बनता है। उनके खिलाफ आवाज उठाने में भी मीडिया हिचकिचाएगा। जैसे – एक समय में लिबर्टी में मजदूरों का कई महीनों से आंदोलन चल रहा था लेकिन इसकी खबर देश के किसी दूसरे हिस्से में किसी को नहीं थी। क्योंकि जूते बनाने वाली उस कंपनी ने मीडिया को चमकदार चांदी के जूते पहना दिए थे। मजदूर इसी तरह मीडिया से गायब नहीं हो गए हैं।
हम इतिहास में जाकर देखें तो कारोबारी मीडिया कभी कृषि क्षेत्र और किसानों के हित में समर्थन के लिए नहीं खड़ा हुआ। जब कभी कृषि क्षेत्र में संगठित होकर जुझारू आंदोलन करने की स्थिति होती है तो मीडिया सबसे ज्यादा उग्रता का परिचय देता है। जैसे शहर के खाते पीते लोगों को किसी मुद्दे पर मीडिया लामबंद करने का अभियान चलाता है उसी तरह से कभी बदहाली में जीने वाले किसानों और कृषिक्षेत्र के लोगों को लामबंद करने के लिए अभियान नहीं चलाता है। यह मीडिया के चरित्र और उसके आर्थिक-सामाजिक हितों को स्पष्ट करता है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पेज- 39 -41