स्त्री-चिंतन मार्फत ‘गूंगे इतिहासों की सरहदों पर -अंकित नरवाल

पठनीय पुस्तक


दुनिया की आधी आबादी होने के बावजूद स्त्रियों की अपनी स्वतंत्रता, समानता और सत्ता के लिए तथाकथित लैंगिक नियमों, संस्कृतियों और पितृसत्तावादी मानदण्डों से जद्दोजहद जारी है। शताब्दियों से विवाह, विज्ञापन, सौंदर्य-प्रसाधन और सामंती सारणियों के तमाम प्रयोजन उसे माल में तब्दील कर उसकी खरीद-फरोत पर आमादा हैं। स्त्री-जीवन की इसी जद्दोजहद के भावबोध से भरी सुबोध शुक्ल की अनूदित पुस्तक ‘गूंगे इतिहासों की सरहदों तक’ नारी-जीवन के पाश्चात्यी दृष्टिकोण को सामने लाती है, जिससे मुख्यतः अमेरिका और यूरोप का बीसवीं शताब्दी का स्त्रीवादी-चिंतन हमारे सामने आता है। बेट्टी फ्रीडन, केट मिलेट, शुलामिथ फायरस्टोन, एंड्रिया डुआर्किन, नवल अल सादवी, ग्लोरिया जां वॉटकिंस ‘बेल हुक्स’, नाओमी वुल्फ और फ्रिस्टीना हॉफ सॉमर्स नामक आठ स्त्री-चिंतकों की प्रमुख पुस्तकों से कुछ चुने हुए लेख इस पुस्तक में शामिल किए गए हैं, जो स्त्री-जीवन के संघर्षों की ओर हमारा ध्यान ले जाते हैं।

इस पुस्तक ने पाश्चात्य परिवेश की पितृसत्तावादी मानसिक जद पहचानी है और लिंगवादी समाज के ताने-बाने में स्त्रियों से होते शोषण की तहों को खँगाला है। पितृसत्तावादी ठसक के कारण स्त्री का सौंदर्य कब विज्ञापन में बदल दिया जाता है? तथा उसकी निजता कब मॉलवादी संस्कृति में निलामी पर उतर आती है?, इसका यह पुस्तक पढ़कर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। पाश्चात्य चिंतन की पिछली दो शताब्दियों के नारीवादी इतिहास को समेटे यह पुस्तक पितृसत्ता के उन सभी संदर्भों तक पहुँची है, जहाँ स्त्रियाँ रोजगार, स्वप्न, आकांक्षा और योग्यता की सभी सूचियों से नदारद हैं। एलिजाबेथ कैडी स्टेंटन, लूसी स्टोन, ग्रिम्स बहनें, ल्यूक्रीटिया माट, सूजन बी. एंथनी, सिमोन दा बाउवार जैसी प्रथम पंक्ति की नारीवादी आलोचकों के संदर्भों से लेकर रूसो, मार्क्स, फ्रायड, मिल, रस्किन, डार्विन तक के समाज-मनोवैज्ञानिक एवं भौतिक वैज्ञानिकों के संदर्भों से भरी यह पुस्तक इतिहास, विज्ञान, राजनीति, दर्शन और पूँजीवादी षड्यंत्र में गुमराह किए जा रहे स्त्रीवादी विमर्श को समझने का अवसर प्रदान करती है। पाश्चात्य परिवेश में पूँजी और पितृसत्ता की सियासत स्त्री को भिन्न-भिन्न पहलुओं में उलझाकर मुख्य बिन्दु से दूर करती रही है। स्त्री की समानता और स्वतंत्रता के वास्तविक प्रश्न गुमराह किए जाते रहे हैं। उसका वास्तविक प्रश्न कि वह जीवित क्यों है? किसी भी प्रकार सामने आने से रोका गया है। यह पाश्चात्य परिवेश और भारतीय स्त्रीवादी चिंतन के तुलनात्मक संदर्भों के लिए भी अनेक अवसर जुटाती है और एकबारगी हम अपने स्त्रीवाद की नींव पहचानने लगते हैं।


बेट्टी फ्रीडन की पुस्तक The Feminine Mystique के दो अध्यायों Problem That Has no Name और Crisis in the Woman’s Identity के अनुवाद हमें 1960 ई. के  अमेरिकी समाज के स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य को समझने का अवसर प्रदान करते हैं।  यह लेख बताते हैं कि तत्कालीन अमेरिकी समाज में महिलाएँ अपने परिवारों में घरेलू महिला के सारे काम करती हुईं एक गहरी ऊब से भर गईं थीं। बहुतेरी महिलाओं के साक्षात्कारों से भरे ये लेख दर्शाते हैं कि इन महिलाओं के परिचय या तो ‘अमुक की माँ’ या ‘अमुक की पत्नी’ के संबोधनों द्वारा होते थे, जिसके कारण वे अपने वास्तविक परिचय तक की मोहताज थीं। एक कॉलेज की कुछ लड़कियों के साक्षात्कारों का उदाहरण देती हुईं फ्रीडन लिखती हैं, “त्रासदी यह थी कि किसी ने हमारी आँखों में झांककर यह नहीं कहा कि इसका फैसला तुम्हें करना है कि तुम अपनी जिन्दगी के साथ, अपने पति की पत्नी और बच्चों की माँ बनने के अलावा क्या करना चाहती हो। मैं इसे छत्तीस साल तक कभी सोच ही नहीं पाई। और मेरे पति अपने काम में इतने व्यस्त थे कि वह हर रात मेरे पास हो भी नहीं पाते थे। तीनों बच्चे दिनभर के लिए स्कूल में होते थे। मैंने लगातार और बच्चों के लिए प्रयास किए…रक्त-संबंधी विकारों के बावजूद। दो गर्भपातों के बाद मुझे कहा गया कि मुझ रुक जाना चाहिए तो ऐसा लगा जैसे मेरा विकास और बढ़ाव ही खत्म हो गया था। एक बच्चे के तौर पर मैं यह जानती थी कि मैं बड़ी हूंगी, कॉलेज जाऊंगी, फिर शादी होगी…और वहां तक जहां तक एक लड़की सोच सकती है। इसके बाद आपका पति आपके जीवन का संचालक होता है, उसे निश्चित करता है और पूर्ण करता है। यह तब तक नहीं था जब तक मैं एक चिकित्सक की पत्नी के तौर पर बुरी तरह अकेला महसूस नहीं करने लगी। बच्चों पर चिल्लाती रहती क्योंकि वे मेरे जीवन को वैसे नहीं भरते थे जैसे मैं अपने जीवन को चाहती थी। मुझे अभी भी निर्णय करना था कि मैं क्या होना चाहती थी। मेरा बढ़ना अभी भी रुका नहीं था। पर इसे भली-भाँति समझने में मुझे दस साल लग गए।”[1] फ्रीडन को अमेरिकी पितृसत्ता के संबंध में लगता है कि वह स्त्री-अस्तित्व के मूल प्रश्न को रोजगार, घरेलू कामकाज और बहुत हद तक यौन-स्वतंत्रता जैसी दूसरी चीजों में परिवर्तित कर रहा है। वे दर्शाती है कि 1960 ई. के आसपास तक अमेरिकी महिलाएँ एक अदद औरत के रूप में ही जी रही थीं, बावजूद उन्हें कुछ राजनीतिक अधिकार मिले हुए थे, जिनका अधिकतर प्रयोग उनके पति ही करते थे। फ्रीडन को लगता है कि इस प्रकार की व्यवस्था ने महिला के सामने उसकी पहचान का संकट खड़ा किया है। वे लिखती हैं, “मेरी मान्यता यह है कि आज औरतों की समस्या का केन्द्रबिंदु यौनगत नहीं, बल्कि अस्तित्वगत है। प्रौढ़ता से बचाव या पलायन स्त्री-अबूझपन के द्वारा बनाए रखा जाता है। यह मेरा मानना है कि जैसे विक्टोरिया संस्कृति ने औरतों और उनकी बुनियादी यौन-जरूरतों को स्वीकार अथवा तृप्त करने की इजाजत नहीं दी थी। हमारी आज की संस्कृति, स्त्रियों को मनुष्य की भाँति अपने व्यक्तित्व को प्रौढ़ और संपूर्ण बनाने की बुनियादी आवश्यकताओं को स्वीकार अथवा संतुष्ट करने की अनुमति नहीं देती है और यह एक ऐसी आवश्यकता है जो उनके लिए एकमात्र तय कर दी गई यौन-भूमिका के जरिये परिभाषित नहीं की जा सकती है।”[2] अर्थात् फ्रीडन का मत स्पष्ट है कि अमेरिकी स्त्री के सामने आज प्रमुख समस्या अपने होने के संबंध में एक स्पष्ट धारणा बना लेने की अनुपलब्धता है और तमाम तरह की मानसिकता उसे इस प्रश्न से दूर ही रहने की ओर प्रेरित कर रही हैं।
 

Related imageकेट मिलेट की पुस्तक The Sexual Revolution के दो शुरुआती खण्डों Political और Polemical के अनुवाद अमेरिकी यौन-क्रांति के इतिहास को समझने का अवसर प्रदान करते हैं। लिंगवादी समाज द्वारा स्त्री के शरीर को विवाह के तथाकथित आवरण में उलझाकर अपनी मलकियत में किस प्रकार बदला गया तथा रोजगार, शिक्षा और वेश्यावृत्ति जैसी अनेक सारणियों में उसे नियमित करने के अनेक प्रयोग लगातार किए गए आदि जैसे विविध विषयों को ये लेख बड़ी गहराई से सामने लाते हैं। मिल, रस्किन, एंगिल्स आदि की मान्यताओं और अनेक रिपोर्टों का हवाला देकर मिलेट ने इन लेखों में स्त्री-संघर्ष के 50 वर्षों का एक मुकम्मल कैनवस तैयार किया है। मिलेट ने अपने लेखों में यौन-क्रांति का सम्पूर्ण इतिहास, स्त्री-शिक्षा, रोजगार, वेश्यावृत्ति जैसे विषयों की एतिहासिक रूपरेखा प्रकट की है और पितृसत्ता की जड़ों तक पहुँचने का प्रयास किया है। पति और पिता का सामंती संस्कार मिलेट की आलोचना का केन्द्र रहा है। वे विवाह को सामंती व्यवस्था का अंग मानती हैं, जिसके आवरण में पुरुष स्त्री को अपनी बपौती बना लेता है। धार्मिक कानून भी पितृसत्ता को ही मजबूत करते हैं। अमेरिकी कानून के संबंध में मिलेट लिखती हैं, “पति कितना भी गैर-जिम्मेदार क्यों न हो, बच्चों के प्रति चाहे जितना लापरवाह हो, फिर भी कानून उसे अपने ही आश्रितों की जिंदगी की कीमत पर, कभी, किसी भी वक्त पत्नी की सेवाएँ लेने की अनुमति देता था। परिवार का मुखिया होने के नाते पति ही पत्नी और बच्चों का स्वामी था तथा पत्नी को तलाक देकर या परित्यक्त करके भी उसके बच्चों को अपने पास रख सकता था। एक पिता, कानून को आदेशित कर सकता था कि अपने रिश्तों की संपत्ति को वह गुलामों के मालिक की तरह प्रयोग कर सके। पत्नियों की अपनी कोई इच्छा नहीं हो सकती थी। उन्हें मजबूरन कैद किया जा सकता था; अंग्रेज पत्नियों को पतियों के साथ जाने को मना करने पर जेल में रहना पड़ता था।”[3] मिलेट का वैवाहिक संस्था की ही भाँति रोजगार के संबंध में भी यही मानना है कि इंग्लैंड और अमेरिका में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर उन ही जगहों पर उपलब्ध थे, जहाँ शरीर के प्रयोग की आवश्यकता थी, बजाय दिमाग के। मिलेट मिल और रस्किन के अंतर्विरोधों के माध्यम से स्त्री के संबंध में पितृसत्तावादी मानसिकता को साफ कर देना चाहती हैं। मिल को विश्वास था कि स्त्रियों को अपने अस्तित्व के लिए विवाह, रोजगार और शिक्षा की तथाकथित सारणियों को उखाड़ फैंकना चाहिए, जबकि रस्किन पितृसत्ता का ही हिमायती था। मिल का दृष्टिकोण बताती हुईं मिलेट लिखती हैं, “मिल के लिए विवाह की संस्था नारी को बंधुआ मजदूर बनाती है। इस संस्था का इतिहास विक्रय और शक्ति पर आधारित रहा है, जहां पत्नी की जिंदगी और मौत की डोर पति के हाथ में होती है।…तलाक देने का अधिकार पति को था, पत्नी को नहीं, अंग्रेजी कानून पति-हत्या को लघु देशद्रोह मानता था(जो उग्र देशद्रोह से अलग था) क्योंकि पति का स्थान पत्नी के लिए सम्राट की तरह था, जिसकी हत्या की सजा जलाकर मार डालना थी।”[4]

Image result for The Dialectic of Sex : The Case For Feminist Revolutionशुलामिथ फायरस्टोन की पुस्तक The Dialectic of Sex : The Case For Feminist Revolution का अध्याय Dialectics In Cultural History सांस्कृति इतिहास के लिंग-भेद को उजागर करता है। फायरस्टोन का मानना है कि विविध जैविक उदाहरणों को कला और संस्कृतियों ने विभाजनपरक ढंग से प्रयोग किया है और लौंगिक असमानता की गहरी खाई खोदी है। वे लिखती हैं, “हम मानते हैं कि लिंग-विभाजन इस बुनियादी सांस्कृतिक विभाजन की जड़ है। पुरुषवादी तकनीकी प्रणाली और स्त्रीवादी सौंदर्यशास्त्री प्रणाली, इन दोनों की सांस्कृतिक अनुक्रियाओं के बीच की पारस्परिक क्रिया कुछ दूसरे तरह के लौंगिक द्वंद्ववाद को पुनरुत्पादित करती हैं और साथ ही साथ इसकी बहिर्संरचना, जातिगत और अर्थशास्त्रीय द्वन्द्वात्मकता को भी।”[5] फायरस्टोन का मानना है कि लिंग आधारित सांस्कृतिक ध्रुवीकरण तमाम घटनाओं की जड़ में मौजूद सबसे बड़ा कारण है। स्त्री-संघर्ष का अगला अध्याय इस घ्रुवीकरण को पहचानने और इसके विरोध में खड़ा होने से संबंधित हो सकता है।

एंड्रिया डुआर्किन की पुस्तक Woman Hating : A Radical Look at Sexuality का अध्याय Fairytales अमेरिकी परिकथाओं में मौजूदImage result for Woman Hating : A Radical Look at Sexuality लौंगिक असमानता को सामने लाता है। विभिन्न संस्कृतियाँ किस प्रकार हमें लैंगिक रूप से पैदा होने और फिर उसी में जीने, सपने देखने और मरने के लिए विवश करती हैं, यह अध्याय इसी पितृसत्तावादी सांस्कृतिकता को उजागर करता है। सिंड्रेला की मां द्वारा अपनी पुत्रियों का राजकुमार से विवाह के लिए पैरों को छीलवाना, उँगली कटवाना स्त्री-सौंदर्य की पितृसत्तावादी अधिनायकवाद को सामने लाता है। डुआर्किन लिखती हैं, “सिंड्रेला, सोती सुंदरी, स्नो-व्हाईट, रपुंजल–ये सभी जड़ता, सौंदर्य, अबोधपन और उत्पीड़न के आधार पर रूपायित चरित्र हैं। वे अच्छी औरतों के आद्यरूप हैं–अपनी मौलिकता में उत्पीड़न। वे न कभी सोचती हैं, न कुछ करती हैं, न पहल करती हैं, न सामना करती हैं, न विरोध करती हैं, न चुनौती देती हैं, न कुछ महसूस करती हैं, न परवाह करती हैं, न सवाल करती हैं। बस कभी-कभी उन्हें मजबूर करके घरेलू कामकाज में लगा दिया जाता है। उनके मार्ग का एक निश्चित परिदृश्य है। जड़ पदार्थ की तरह मां के घर से राजकुमार के घर तक। पहले वे कपट और दुर्भावना की विषयवस्तु होती हैं फिर रोमानी भक्तिभाव की।”[6] अर्थात् एक ओर जहाँ स्त्री सौंदर्य के संबंध में पितृसत्ता सारे निर्णय अपनी इच्छा पर केन्द्रित करती है, वहीं दूसरी ओर उसका इसके विशेष प्रयोजन से प्रताड़ना भी मिलती है। सौंदर्य-संबंधी दोगले मानदण्ड डुआर्किन की आलोचना के केन्द्र में रहे हैं।

Image result for The Hidden Face of Eve : Women in the Arab Worldनवल अल सादवी की पुस्तक The Hidden Face of Eve : Women in the Arab World के अध्याय Distorted Notions About Feminity Beauty and Love और Obscurantism and Contradiction अरबी समाज के सामंती संदर्भों को सामने लाते हैं। सादवी का मानना है कि अरब देशों में एक ओर जहाँ विज्ञापनों के रूप में स्त्री-सौंदर्यवर्धन और अर्द्धनग्न चित्रों से दिवारी भरी होती हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को बुरके में रहने के सख्त निर्देश दिए जाते हैं। सादवी अरबी समाज की महिलाओं के संबंध में लिखती हैं, “वे अब पूरी तरह मनुष्य नहीं हैं बल्कि पूंजीवादी पुरुष-प्रभुत्वशाली समाज के क्रूर और हिंसक दबाव के तले रूपांतरित हो गई हैं–माल में, एक जोड़ी दस्ताने और जांघिये में, कंगन या स्तनों में, जांघों में, या सबसे अच्छा होगा यह कहना कि योनी में और गर्भाशय में।”[7] सादवी का मानना है कि अरबी समाजों में स्त्री पूँजीवादी पितृसत्ता के दोहरे मानकों से लगातार शोषित हुई है। एक अरबी पुरुष की शादि-संबंधी चुनाव के संबंध में लिखती हैं, “अगर शादी को औरतों के खिलाफ शोषण और विभेद से बनी संस्था की तरह चलाये रखना है और पति तथा पत्नी के अजनबीपन को जिंदा रखना है, बढ़ाते रहना है और जारी रखना है तब एक ही उत्तर है कि भोली-भाली, अनपढ़ और जड़ औरत से शादी कर ली जाये। एक अरब पुरुष जब शादी का फैसला करता है तो लगभग समान रूप से एक ऐसी अनुभवहीन बच्चे जैसी मासूमियत से भरी, जड़, अशिक्षित और गुड़िया जैसी जवान कुंवारी लड़की को चुनता है जिसे अपने अधिकारों का आबास तक नहीं होता या फिर एक औरत के रूप में अपनी यौन इच्छाओं का या फिर इस तथ्य का कि उसके मस्तिष्क की अपनी जरूरतें, स्वप्न या आकांक्षाएं होनी चाहिए।”[8] पितृसत्ता लड़की के कौमार्य और उसके सौंदर्य को अपनी सामंती सारणी में इस प्रकार ढालती है कि उसके जीवन के वास्तविक लक्ष्य बदल जाते हैं। वह अपकरण में तब्दील होकर, विलासिता का नजराना बनकर रह जाती है। अरबी समाज में स्त्री के अस्तित्व को दर्शाती हुई सादवी लिखती हैं, “स्त्रियां उपकरण हैं, वस्तु हैं, मात्र औजार। वे व्यावसायिक विज्ञापनों में इस्तेमाल होने वाली, बिना वेतन घर में काम करने वाली या बाहर काम करने वाली, घर के बाहर के वेतन वाले काम के जरिये अंदर के बिना पैसे वाले काम को संयोजित करने वाली या फिर समाज की प्रजनन संबंधी प्रयोजनों की पूर्ति के लिए बच्चों को जन्म देने के लिए इस्तेमाल होने वालीं या पुरुषों की इच्छा को संतुष्ट करने वाली वस्तु हैं।”[9] सादवी का मानना है कि इस प्रकार की व्यवस्था सौंदर्य, रोजगार और व्यापार का ऐसा तिलिस्म खड़ा करती है, जिसमें बच्चा लिंग की नियामक सत्ता के साथ पैदा होता है। सादवी इस व्यवस्था को बदलना चाहती हैं।

Image result for Ain’t I a Woman? : Black Women and Feminismग्लेरिया जां वॉटकिंस बेल हुक्स की पुस्तक Ain’t I a Woman? : Black Women and Feminism का अध्याय The Imperialism Of Patriarchy हमें अमेरिकी समाज की नस्ली टकराहटों में अश्वेत महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों को समझने का अवसर प्रदान करता है। एक और सम्पूर्ण समाज में दोयम दर्जे की नागरीक होने का दंश झेलती स्त्री अपने अश्वेत पति से भी प्रताड़ित होती है। बेल हुक्स मानती हैं कि अश्वेत पुरुष नस्लवाद का शिकार होने के साथ-साथ अश्वेत महिलाओं का लैंगिग स्तर पर भी उत्पीड़न करते रहे हैं। मार्टिन डिलैनी, मेरी चर्च टेरेल, सॉजोरनर ट्रुथ, हैरियट टबमन और रिचर्ड राइट जैसे अनेक लेखकों के उदाहरणों से भरा यह लेख अमेरिकी नस्लवाद में पीसतीं अश्वेत महिलाओं के दोहरे शोषण को उजागर करता है। शिया नामक महिला के निबंध का उदाहरण देकर बेल हुक्स अमेरिकी समाज में अश्वेत महिला की स्थिति दर्शाती हुई लिखती हैं, “अमरीकी समाज में अश्वेत औरतें सबसे कम कीमत वाला स्त्री-समूह है। लिहाजा वे पुरुषों की असीमित प्रताड़ना और क्रूरता का शिकार रही हैं। चूंकि अश्वेत स्त्रियां गोरे और अश्वेत दोनों तरह के पुरुषों द्वारा परंपरागत तौर पर बुरी मानी जाती रही हैं, इसलिए वे किसी भी समूह के पुरुष के द्वारा दूसरे पुरुष से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए सहयोग लेने में असमर्थ रही हैं। न ही किसी समुदाय ने उन्हें सुरक्षा के लायक समझा है। निम्न आयवर्ग के अश्वेत स्त्री-पुरुष संबंधों के एक समाजशास्त्रीय अध्ययन ने बताया कि बहुतेरे युवा अश्वेत पुरुष अपनी स्त्री साथियों के मूलतः शोषण लायक एक वस्तु समझते हैं। अध्ययन में ढेरों लड़कों ने अश्वेत औरतों को साली कुतिया वह छिनार कहकर संबोधित किया। अश्वेत स्त्रियों को एक तुच्छ यौन वस्तु समझने का उनका बोध, गोरे मर्दों द्वारा अश्वेत स्त्रियों को समझने के बोध के बराबर है।”[10] बेल हुक्स का मानना है कि एक अश्वेत पुरुष एक श्वेत स्त्री को पाने के लिए लालायित रहता है, क्यों कि वह उस प्रत्येक वस्तु को पाना चाहता है, जो गोरों के पास है। उसकी नज़र में अश्वेत स्त्री के लिए सम्मान का कोई स्थान नहीं है। बेल हुक्स इसका सारा दोषी पितृसत्तावादी मानसिकता को मानती हैं, जो पिताओं को दानव की तरह व्यवहार करने और पतियों को बलात्कारी होने की खुली छूट देता है।

Image result for The Beauty Mythनाओमी वुल्फ की पुस्तक The Beauty Myth का अध्याय Work हमें स्त्रियों के रोजगार संबंधी संदर्भों को समझने और उस कुचक्र की तह में पहुँचने का अवसर प्रदान करता है, जहाँ एक निश्चित सारणी में आबद्ध सौंदर्य रोजगार का प्रथम पैमान बनता है। वुल्फ अपने लेख में अनेक रिपोर्टों का हवाला देते हुए बताती हैं कि यदि महिला के घरेलू कार्य का औसत निकाला जाए तो वह पुरुष के औसत कार्यों से दोगुना होता है और इस कार्य से संबंधित उसके लिए कोई पारिश्रमिक नहीं होता है। अपितु सामंती समाज इसे उनकी नैतिकता का हवाला देकर जोर से लागू करता है। एन्न ओकली नामक लेखिका का उदाहरण देती हुई वुल्फ लिखती हैं, “घरेलू काम आधुनिक स्थितियों में कई काम ही नहीं है। एक हालिया अध्ययन बताता है कि एक ब्याहता स्त्री के घरेलू कामकाज का वेतन अगर मिलने लगे तो परिवार की आय साठ प्रतिशत तक बढ़ जाये। घरेलू काम फ्रांस की कुल श्रमशक्ति का चालिस मिलियन घंटे है। अमेरिका में लहिलाओं के ऐच्छिक कार्य, प्रतिशत अठारह बिलियन डॉलर की राशि पैदा करते हैं। औद्योगिक राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था चरमरा जाये अगर औरतें वे काम करना बंद कर दें जो वे मुफ्त में करती हैं।”[11] बावजूद इसके औरतों को कामकाज के लिए एक विशेष सौंदर्यपरक नजरिये से भी गुजरना पड़ता है। अमेरिका के न्यायिक फैसले और कुछ अन्य कानूनों का उदाहरण देते हुए वुल्फ दर्शाती हैं कि स्त्री के वजन और सौंदर्य को एक ओर जहाँ उसकी रोजगार-गारंटी के रूप में पेश किया जाता है, वहीं व्यावसायिक स्थानों पर उसके साथ हुए बलात्कार जैसी घटनाएँ दूसरे ढंग से पेश की जाती हैं। इस प्रकार के उत्पीड़न-संबंधी शेपर्ड नामक लेखिका का संदर्भ देती हुई वुल्फ लिखती हैं, “रेडबुक की खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि 88 फीसदी औरतें जो उसकी प्रतिवादिनी भी थीं, नौकरी के चलते लिंग-उत्पीड़न का शिकार हुई थीं। इंग्लैंड में तो 86 फीसदी प्रबंधन करने वालीं और 66 फीसदी कर्मचारी महिलाएँ इसकी भुक्तभोगी थीं। ब्रिटिस नागरिक सेवा ने पाया था कि इसकी 70 फीसदी प्रतिवादी स्त्रियों ने यह सब झेला था। स्वीडिश महिला संगठन की 17 फीसदी महिलाएँ उत्पीड़ित की गईं। आंकड़े तो यह भी कहते हैं कि तीन लाख स्वीडिश महिलाओं का राष्ट्रीय स्तर पर उत्पीड़न हुआ है।”[12] अतः इस प्रकार वुल्फ को लगता है कि जहाँ रोजगार का मानदण्ड पितृसत्ता में यदि सौंदर्य को ही संदर्भित होगा और काबिलियत कहीं पीछे छूटेगी, तो वह यौनाकर्षण के नए संघर्ष पैदा करेगा और स्त्री-उत्पीड़न के आँकड़े उससे लगातार बढ़ेंगी ही।

Image result for Who Stole Feminism & How Women Betrayed Womenकिस्टीना हॉफ सॉमर्स की पुस्तक Who Stole Feminism & How Women Betrayed Women का अध्याय New Epistemologies हमें ऐसा ज्ञान-मीमांसा से अवगत करता है, जहाँ दमन और विचार पर्याय बनकर सामने आए हैं। सॉमर्स का आलोचना के केन्द्र में यह तथ्य रहा है कि क्या दमित होना किसी को अदिक विचारवान या अनुभवि बना सकता है? इस प्रश्न को उन्होंने अनेक संदर्भों के साथ व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। प्रोफ़ेसर हाक का उदाहरण संदर्भित करती हुई लिखती हैं, “जिन स्त्रीवादी सिद्धांतकारों ने यह दलीलें दी हैं कि उत्पीड़न लाभ पहुँचाता है, वे स्वयं कभी उत्पीड़ित नहीं रही। वह पूछती हैं यदि उत्पीड़न और मुफलिसी इतनी ही लाभप्रद है तो क्यों सर्वाधिक सुविधाग्रस्त, मध्यवर्गीय औरतें स्वयं को ज्ञानमीमांसीय रूप से सबसे अधिक प्रतिष्ठित और जरूरी मानती हैं।”[13] सामर्स एसी ज्ञान-पद्धति को आलोचित करती हैं, जो लिंग-भेद के संदर्भों से भरी हुई हो। वे भावनात्मक रूपांतरण के संदर्भों को भी अनावश्यक मानती हैं। वे लिखती हैं, “कोई ऐसी कार्यशाला के लिए पूँजी नहीं देगा जो अपने प्रतिभागियों को यह सिखाये कि स्त्री और पुरुषों में ऐसा कोई अंतर नहीं है या कि स्त्री-केंद्रियतावाद में विश्वास रखने वाले विचारकों द्वारा पारंपरिक मापदंडों को अरूपांतरित छोड़ दिया जाये या फिर छात्र ऐसे वैश्विक पाठ्यक्रमों को सीखें जो लैंगिक विभेदी नहीं हैं।”[14]

अतः इस पुस्तक के संबंध में समग्रतः यह कहा जा सकता है कि इसमें स्त्री-संघर्ष के प्रारंभिक सौपान से लेकर 21वीं सदी के प्रारंभ तक का ऐतिहासिक दृष्टिकोण सहज ढंग से उजागर हुआ है। इसमें पितृसत्ता के तमाम प्रयोजन अनेक रिपोर्टों और अध्ययनों द्वारा खुलकर सामने आए हैं। यह पुस्तक अमेरिकी और अरबी समाज में जीवनयापन कर रही औरतों के मानसिक संघर्ष को जानने का अवसर उपलब्ध कराती हुई नई बनती पूँजीवादी सभ्यता के पितृसत्तावादी षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। वैभव सिंह के शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि ऐसा पुस्तकें हिंदी में सहज ही उपलब्ध नहीं होती हैं। सुबोध शुक्ल का चयन और अनुवाद एक काल को समझने और एक संघर्ष की जड़ों को समझाने में सफल माना जा सकता है।

[1]. शुक्ल, सुबोध, गूंगे इतिहासों की सरहदों पर, पंचकूला आधार प्रकाशन, 2016, पृष्ठ – 34
[2]. वही, पृष्ठ – 41
[3]. वही, पृष्ठ – 52
[4]. वही, पृष्ठ – 85
[5]. वही, पृष्ठ – 132
[6]. वही, पृष्ठ- 158
[7]. वही, पृष्ठ – 167
[8]. वही, पृष्ठ – 168-169
[9]. वही, पृष्ठ – 182
[10]. वही, पृष्ठ – 218-219
[11]. वही, पृष्ठ – 222-233
[12]. वही, पृष्ठ – 254
[13]. वही, पृष्ठ – 273
[14]. वही, पृष्ठ – 276

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जनवरी से अप्रैल 2018), पेज-62 से 66
 
 

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