सुधीर डांगी – सरकार से किसान को अपनापन नहीं मिलता

खेती-बाड़ी


यह विडम्बना ही है कि कृषि-प्रधान देश में आज किसान किसी भी प्रकार से केंद्र में नही है। चाहे कोई भी सरकार हो, किसी भी सरकार से किसान को अपनापन नहीं मिलता। विशेषकर जब से भारत में भूमंडलीकरण और उदारीकरण का दौर शुरू हुआ है, किसान संरक्षण के दायरे से बाहर कर दिए गए हैं और छोटे किसान तो कृषि-काश्तकार से भूमिहीन कृषि-मजदूर में परिवर्तित हो गए हैं। भूमंडलीकरण के दौर में सरकारों ने ये तय कर लिया है कि सभी प्रकार की रियायत अब खत्म की जाएं। जितना भी आर्थिक लाभ सरकार द्वारा कृषि की मद में दिया जाता है, वो किसानों के लिए नहीं होता बल्कि कृषि-उद्योगों हेतु आबंटित किया जाता है। लेकिन कृषि-यंत्र हों या खाद-बीज, इनकी कीमतें इसके बावजूद भी कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती जाती हैं।

स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट अनुसार किसानों को उनकी लागत के साथ साथ लागत का पचास फीसदी अधिक दिया जाना चाहिए जिससे वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। लेकिन कोई भी सरकार किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों का लाभ नहीं देना चाहती। हालत यह हो गई है कि किसानों को इस अवस्था में अपनी लागत निकालना भी दूर की कौड़ी होती जा रही है। किसान कजऱ् लेकर इस उम्मीद में खेती करता है कि उसकी फसल उसका कजऱ् उतार देगी। लेकिन होता इसके बिल्कुल उलट है। परिणामस्वरूप किसान कर्ज में फंसता जाता है और अन्तत: आत्महत्या कर लेता है क्योंकि कहीं से भी उसे उम्मीद की किरण नजऱ नहीं आती।

भारतीय लोकतंत्र के चुनाव भी कोई समाधान उपलब्ध नहीं कराते। जब चुनाव का वक्त होता है, तो जानबूझकर आमजन के मुद्दे पीछे धकेल दिए जाते हैं। इतना बुरी तरह से दिमाग को धोया जाता है कि व्यक्ति अपने मुद्दे व समस्याएँ भूलकर गाय-गोबर और धर्म की रक्षा में खड़ा कर दिया जाता है। इसमें किसानों की एकता का न होना बहुत बड़ी समस्या है। चुनाव के समय किसान किसान नहीं रहता बल्कि वह जाति और धर्म मे बंटकर हिन्दू-मुस्लिम या हरियाणा में विशेषकर जाट-गैरजाट हो जाता है। किसानों को इस जादू को समझना होगा कि उनके साथ ये सब कैसे और क्यों हो रहा है। लोकतंत्र में अपना धर्म निभाते समय अपनी पहचान नहीं खोनी होगी बल्कि चुनाव के समय भी केवल और केवल किसान ही बने रहना होगा। ये समझना होगा कि अगर उसकी जाति और उसको धर्म अगर उसे सिर्फ आत्महत्या की ओर धकेल रहे हैं, तो उनसे पीछा भी छुटाया जाना एक विकल्प हो सकता है, कम से कम चुनाव के वक्त तो आवश्यक है कि हम केवल वही आमजन बने रहें, जो पिछले पाँच वर्ष तक बनकर भुगते हैं।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पे

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