साम्प्रदायिकता की समस्या के हल के लिए क्रान्तिकारी धारा ने अपने विचार प्रस्तुत किये। प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है।
अमृतसर आ गया है – भीष्म साहनी
Post Views: 30 गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के…
सेक्युलरिज़म अथवा धर्मनिरपेक्षता – रमणीक मोहन
Post Views: 18 { इस लेख के मूल में यह विचार है कि पश्चिमी देशों में भी (जहाँ से असल में सेक्युलरिज़म का सिद्धांत आया) यह सिद्धांत तमाम कोशिशों के…
महात्मा गांधी के विचार
Post Views: 1,243 गांधी के विचार ‘गांधी का भारत : भिन्नता में एकता’ नामक पुस्तक से जिसका अनुवाद किया है सुमंगल प्रकाश ने। 1. ‘हिंद स्वराज’ से, 2. लाहौर…
दंगे में प्रशासन – विकास नारायण राय
Post Views: 303 विकास नारायण राय स्वतंत्र देश में 1947 के बाद पहली बार कहीं भी खुली राजकीय शह पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का व्यापक तां व नवम्बर 1984…
नफरत की राजनीतिक बहस और सांप्रदायिक सद्भाव व दोस्ती की दास्तान – डा. सुभाष चंद्र
Post Views: 922 ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहरवो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं– फ़ैज अहमद फ़ैज लंबे संघर्ष के बाद भारत को औपनिवेशिक शासन…
चौपाये अतीत – अमृत लाल मदान
Post Views: 133 कविता चौपाये अतीत प्रतिबद्ध हैं वे कटिबद्ध हैं वे वर्तमान व भविष्य को स्वर्णिम अतीत की ओर धकेलने को चलो धकेलो-पेलो धकेलते चलो पेलते चलो राज पथ…
रामधारी खटकड़
जिला जीन्द के खटकड़ गांव में 10 अप्रैल, 1958 में जन्म। प्रभाकर की शिक्षा प्राप्त की। कहानी, गीत, कविता, कुण्डलियां तथा दोहे लेखन। समसामयिक ज्वलंत विषयों पर दो सौ से अधिक रागनियों की रचना। रागनी-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। वर्तमान में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक में कार्यरत।
फेसबुक पै फ्रेंड पाँच सौ – मनजीत भोला
फ़ेसबुक पै फ्रेंड पांच सौ पड़ोसी तै मुलाकात नहीं
तकनीक नई यो नया जमाना रही पहलड़ी बात नहीं
धर्म की आड़
इस समय, देश में धर्म की धूम है। उत्पात किए जाते हैं, तो धर्म और ईमान के नाम पर और जिद्द की जाती है तो धर्म और ईमान के नाम पर। रमुआ पासी और बुद्धू मियां धर्म और ईमान को जानें या न जानें, परंतु उसके नाम पर उबल पड़ते हैं और जान लेने और जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं। देश के सभी शहरों का यही हाल है। उबल पड़ने वाले साधारण आदमी का इसमें केवल इतना ही दोष है कि वह कुछ भी नहीं समझता-बूझता और दूसरे लोग उसे जिधर जाने देते हैं, उधर जुत जाता है। यथार्थ दोष है, कुछ चलते-पुरजे, पढ़े-लिखे लोगों का, जो मूर्ख लोगों की शक्तियों और उत्साह का दुरुपयोग कर रहे हैं कि इस प्रकार, जाहिलों के बल के आधार पर उनका नेतृत्व और बड़प्पन कायम रहे। इसके लिए धर्म और ईमान की बुराइयों से काम लेना उन्हें सबसे सुगम मालूम पड़ता है। सुगम है भी।