विनोद सिल्ला कविता कर लिए कायम दायरे सबने अपने-अपने हो गए आदि तंग दायरों के कितना सीमित कर लिया खुद को सबने नहीं देखा कभी दायरों को तोड़ कर अगर
विनोद सिल्ला कितना भाग्यशाली था आदिमानव तब न कोई अगड़ा था न कोई पिछड़ा था हिन्दू-मुसलमान का न कोई झगड़ा था छूत-अछूत का न कोई मसला था अभावग्रस्त जीवन चाहे
विनोद सिल्ला कविता तरक्की के दौर में गुम हो गया भाईचारा टूट गई स्नेह की तार व्यक्ति का नाम छिप गया सरनेम की आड़ में पड़ोसी हो गए प्रतिद्वंद्धी रिश्तेदार
विनोद सिल्ला कविता मंच से उनका भाषण था समाज को ऊर्जा देने वाला समाज सेवा में उनका नाम था अव्वल हर तरफ उनके नाम की बोलती थी तूती हर तरफ