ग़ज़ल ये अलग बात बच गई कश्ती,वरना साजि़श भंवर ने ख़ूब रची। कह गई कुछ वो बोलती आँखें,चौंक उट्ठी किसी की ख़ामोशी। हम तो लड़ते रहे दरिन्दों से,तुम ने उन
ग़ज़ल ये अलग बात बच गई कश्ती,वरना साजि़श भंवर ने ख़ूब रची। कह गई कुछ वो बोलती आँखें,चौंक उट्ठी किसी की ख़ामोशी। हम तो लड़ते रहे दरिन्दों से,तुम ने उन
ग़ज़ल पहले कोई ज़ुबाँ तलाश करूँ,फिर नई शोखियाँ1 तलाश करूँ।अपने ख्वाबों की वुसअतों2 के लिए,मैं नये आसमां तलाश करूँ।मंजि़लों की तलाश में निकलूँ,मुस्तकिल3 इम्तिहाँ तलाश करूँ।मेरी आवारगी ये माँग करे,मैं
ग़ज़ल कौन बस्ती में मोजिज़ा गर है, हौंसला किस में मुझ से बढ़ कर है। चैन से बैठने नहीं देता, मुझ में बिफरा हुआ समन्दर है। लुट रहे हैं
ग़ज़ल कौन कहता है कि तुझको हर खुशी मिल जाएगी, हां मगर इस राह में मंजि़ल नई मिल जाएगी। अपनी राहों में अंधेरा तो यक़ीनन है मगर, हम युँही चलते
ग़ज़ल जिनकी नज़रों में थे रास्ते और भी, जाने क्यों वो भटकते गये और भी। मैं ही वाक़िफ़ था राहों के हर मोड़ से, मैं जिधर भी चला चल दिये
ग़ज़ल कैसी लाचारी का आलम है यहाँ चारों तरफ़, फैलता जाता है ज़हरीला धुआं चारों तरफ़। जिन पहाड़ों को बना आए थे हम आतिश फ़शां1, अब इन्हीं से ज़लज़ले2 होंगे