रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है। उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता न सोता है। जानता
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है। उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता न सोता है। जानता
यह मनुज, ब्रह्माण्ड का सबसे सुरम्य प्रकाश, कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश । यह मनुज, जिसकी शिखा उद्दाम । कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम। यह मनुज,
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी, बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास