All posts tagged in निबन्ध

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सम्मान का भाव रामविलास जी के प्रति हममें से प्रत्येक के मन में है, पर कहीं-न-कहीं उनकी व्याख्या के प्रति गंभीर संदेश भी है। मसलन सुधीरचन्द्र को भारतेन्दु में सर्वत्र एक प्रकार का दुचित्तापन दिखाई पड़ता है: राजभक्ति और देशभक्ति को लेकर भी, हिंदू-मुस्लिम भेदभाव के सवाल पर भी, यहां तक कि’ स्वदेशी’ के मामले में भी उनके आचार-विचार में फांक दिखती है।

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धर्म की रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है, यह हम कहीं पर कह चुके हैं। धर्म है ब्रह्म के सत्स्वरूप की व्यक्त प्रवृत्ति, जिसकी असीमता का आभास अखिल विश्वस्थिति में

देसहरियाणा सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच

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निबंधFebruary 23, 2022

जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है, न ज़रूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों का, पेटभरों का, बेफ़िक्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राण-रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है। उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी, जो राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। (लेख से )

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निबंधFebruary 1, 2022

हिंदी काव्य की नींव अवश्य गहरी और दृढ़ है, पर उसके ऊपर विद्यापति, जायसी, कबीर, सूर और तुलसी ने जो सुंदर भवन निर्मित किया, उसके निर्माण में सबसे बड़ी बाधा अपभ्रंश में साहित्य रचने की परंपरा थी । यदि विद्यापति इस परंपरा का अनुसरण करते चले जाते तो उनका युगांतकारी महत्त्व हिंदी काव्य की गहरी नींव के नीचे ही दबा रह जाता । (लेख से)

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निबंधJuly 18, 2021

कुबेरनाथ राय को ललित निबन्ध परम्परा में एक सशक्त निबन्धकार के रूप में ख्याति प्राप्त है. इस निबन्ध में कुबेरनाथ जी द्वारा मनुष्य की आयु को ऋतुओं तथा नक्षत्रों के समान ही बताकर, दैहिक यौवन के क्षीण होने पर भी मानसिक यौवन को निरंतर चिरंजीवी बनाए रखने की सम्भावनाओं पर विचार किया गया है. इस निबन्ध में सृजन के लिए पुरातन तथा नूतन दोनों विचारधाराओं को साथ लेकर चलने पर बल दिया गया है.

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आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को ललित निबन्धों का जनक माना जाता है. नाखून क्यों बढ़ते हैं निबन्ध में आचार्य द्विवेदी मनुष्य की पाशविक प्रवृति जैसी दुर्बलताओं की ओर संकेत करते हुए मनुष्य की सृजन सम्बन्धी क्षमताओं को भी सामने लाने का प्रयास करते हैं. इस निबन्ध में जहाँ एक ओर आचार्य द्विवेदी द्वारा पशुत्‍व का द्योतक भावों को लक्षित किया गया है वहीं दूसरी तरफ वे मनुष्य की करुणा तथा भाईचारे की भावना का भी दर्शन कराते हैं.

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