All posts tagged in दलित विमर्श2- Page

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आलोचनाFebruary 1, 2023

आदिम वर्गपूर्व समाज के निषेध की देहरी पर खड़े बुद्ध केवल इससे उत्पन्न दुख को ही देख सके। अतः बुद्ध के पास केवल यही विकल्प था कि वे आगे न देखकर तेजी से विलुप्त होते आदिम साम्यवादी समाज की ओर देखते जो इतिहास की प्रगति के साथ पूर्णतः लुप्त हो जाने को था। यह अधिक से अधिक एक वास्तविक समस्या का वैचारिक समाधान था। उन्होंने अपना सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया कि नये वर्ग विभाजित समाज में ही मानो एक प्रकार के निर्लिप्त जीवों का विकास किया जाय जिसके अन्दर ही स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के विस्तृत मूल्यों को व्यवहार में लाया जा सके। (लेख से)

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आलोचनाJanuary 22, 2023

रविदास की मानव मुक्ति में न पौराणिक स्वर्गारोहण है और न ही किसी अदृश्य लोक में बैकुण्ठ वास। इस मुक्ति में कोई दुरूह ब्रह्म विद्या ज्ञान भी नहीं है। वे अपनी वाणी में अपने परिवेश की समस्याओं का आत्मनिष्ठरूप प्रतिपादित करते हुए व्यक्ति को एक उच्चभावपूर्ण स्थिति में ले जाना चाहते हैं जिसमें उसके समस्त बन्धनों का अस्तित्व बना नहीं रह सकता। (लेख से)

देसहरियाणा सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच

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आजकल आरक्षण विरोध का जो मुद्दा गरमाया है उसमें भी बड़ा कंफ्यूजन है। क्या यह पूरी आरक्षण व्यवस्था का विरोध है या अन्य पिछड़ा वर्ग के 27% आरक्षण का विरोध है या यह पिछले सत्तर वर्षों से भीतर ही भीतर सुलगती उस खुन्नस का विस्फोट है जिसे इस ओ.बी.सी. आरक्षण ने और हवा दे दी है।

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उच्च जाति के धूर्त व्यक्तियों ने अत्यन्त धूर्ततापूर्वक जाति और धर्म को आपस में जोड़ दिया; ताकि उनको अलग करना मुश्किल हो जाए। इसलिए, जब आप जाति को नष्ट करने का प्रयास करते हैं, तो आपको यह डर नहीं लगना चाहिए कि धर्म भी नष्ट हो जाएगा।

देसहरियाणा सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच

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