ग़ज़ल रूठने वाले तो हम से फिर गले मिलने लगे हैं, फिर भी अपने दरमियाँ1 रिश्ते नहीं है-फ़ासिले हैं। कैसे मानूं इन सभी को गुमरही का शौक़ होगा, जिन को
ग़ज़ल रूठने वाले तो हम से फिर गले मिलने लगे हैं, फिर भी अपने दरमियाँ1 रिश्ते नहीं है-फ़ासिले हैं। कैसे मानूं इन सभी को गुमरही का शौक़ होगा, जिन को
ग़ज़ल बहुत कुछ था तेरे आने से पहले, मगर मंज़र1 थे वीराने से पहले, लगा करते जो बेगाने से पहले, वो अपने बन गये जाने से पहले। मेरा महफ़िल में
ग़ज़ल मेरे पीछे सूनी राहें और मेरे आगे चौराहा, मैं ही मंजि़ल का दीवाना मुझ को ही रोके चौराहा। हर कोई अपनी मंजि़ल के ख़्वाब सजा कर तो चलता है,
ग़ज़ल रूठ गया हमसाया कैसे, तुम ने वो बहकाया कैसे। जिस्म तो जिस्म था उसमें आखिर, इतना नूर समाया कैसे। तुमने अपने जाल में इतने, लोगों को उलझाया कैसे। तुम
ग़ज़ल तुम्हें ग़र अपनी मंजि़ल का पता है फिर खड़े क्यों हो, तुम्हारा कारवां1 तो जा चुका है फिर खड़े क्यों हो। उजाला तुम तो ला सकते हो लाखों आफ़ताबों2
ग़ज़ल अभी तक आदमी लाचार क्यों है सोचना होगा, मज़ालिम1 की वही रफ़्तार क्यों है सोचना होगा। ये दुनिया जिसको इक जन्नत बनाने की तमन्ना थी, अभी तक इक जहन्नुमज़ार2