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ग़ज़ल हुआ जब आदमी ख़ुद इतना वहशी, तो क्या बिगड़ी हुई दुनिया संवरती। तबाही हर कदम पर घात में है, कहाँ महफ़ूज1 है अब आदमी भी। फ़ज़ा2 में घोल दी

अभी तक साथ मायूसी1 हो जैसे, कोई बाज़ी अभी हारी हो जैसे। ख़रीदारी को आए ग़म के मारे, ख़ुशी बाज़ार में बिकती हो जैसे। हुआ मुश्किल क़दम आगे बढ़ाना, कहीं

देसहरियाणा सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच

कविताOctober 24, 2018

ग़ज़ल रूठने वाले तो हम से फिर गले मिलने लगे हैं, फिर भी अपने दरमियाँ1 रिश्ते नहीं है-फ़ासिले हैं। कैसे मानूं इन सभी को गुमरही का शौक़ होगा, जिन को

ग़ज़लAugust 29, 2018

ग़ज़ल तुम्हें ग़र अपनी मंजि़ल का पता है फिर खड़े क्यों हो, तुम्हारा कारवां1 तो जा चुका है फिर खड़े क्यों हो। उजाला तुम तो ला सकते हो लाखों आफ़ताबों2

देसहरियाणा सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच

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