आदिम वर्गपूर्व समाज के निषेध की देहरी पर खड़े बुद्ध केवल इससे उत्पन्न दुख को ही देख सके। अतः बुद्ध के पास केवल यही विकल्प था कि वे आगे न देखकर तेजी से विलुप्त होते आदिम साम्यवादी समाज की ओर देखते जो इतिहास की प्रगति के साथ पूर्णतः लुप्त हो जाने को था। यह अधिक से अधिक एक वास्तविक समस्या का वैचारिक समाधान था। उन्होंने अपना सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया कि नये वर्ग विभाजित समाज में ही मानो एक प्रकार के निर्लिप्त जीवों का विकास किया जाय जिसके अन्दर ही स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के विस्तृत मूल्यों को व्यवहार में लाया जा सके। (लेख से)
संत रैदास : वाणी और मानव-मुक्ति – डॉ. सेवा सिंह
रविदास की मानव मुक्ति में न पौराणिक स्वर्गारोहण है और न ही किसी अदृश्य लोक में बैकुण्ठ वास। इस मुक्ति में कोई दुरूह ब्रह्म विद्या ज्ञान भी नहीं है। वे अपनी वाणी में अपने परिवेश की समस्याओं का आत्मनिष्ठरूप प्रतिपादित करते हुए व्यक्ति को एक उच्चभावपूर्ण स्थिति में ले जाना चाहते हैं जिसमें उसके समस्त बन्धनों का अस्तित्व बना नहीं रह सकता। (लेख से)
मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन और मानवीय सरोकार – डॉ. सेवा सिंह
भक्ति आंदोलन के उद्भव और मूल्यांकन का इतिहास बोध तथाकथित भारतीय पुनर्जागरण की हिन्दुवादी दृष्टि से ग्रस्त है। इसके अन्तर्गत भारतीय इतिहास के उत्तर मध्यकाल की समस्त उपलब्धियों को नजरन्दाज करने के प्रयास में भक्ति आन्दोलन के योगदान की छवि नहीं बन सकी। भारतीय पुनर्जागरण के उपजीव्य दर्शनिक स्रोत वेद और वेदान्त हैं। इस दृष्टिकोण से यह धारणा पल्लवित हुई है कि भारतवर्ष पिछले आठ सौ वर्षों से परतन्त्र रहा है। इसका अनुसिद्धान्त है इस्लाम की प्रतिक्रिया में भक्ति आन्दोलन का उद्भव । (लेख से )
महात्मा जोतिबा फुले के भाषणों की आधुनिकता – डॉ. अमरनाथ
Post Views: 20 महात्मा जोतिबा फुले के भाषणों पर जब मैं यह प्रतिक्रिया लिख रहा हूँ तो दूसरी ओर नूपुर शर्मा नाम की एक भाजपा प्रवक्ता द्वारा पैगंबर मुहम्मद पर…
आम जन के संघर्षों के साथ खड़ी ‘उजाले हर तरफ होंगे’ की गज़लें – अरुण कुमार कैहरबा
Post Views: 6 आशिक, माशूक, हुस्न, इश्क, साकी और शराब जैसे विषयों तक महदूद रहने वाली गज़ल आज सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को प्रकट करके वंचित और शोषित वर्ग के…
सूफीवाद की सार्थकता और प्रासंगिकता -प्रेम सिंह
Post Views: 21 (1) मानव सभ्यता के साथ किसी न किसी रूप में धर्म जुड़ा रहा है। आधुनिक काल से पूर्व युगों में सृष्टि की रचना एवं संचालन की परम-सत्ता…
एक दलित का दुख और इस के निहितार्थ – कैलाश दहिया
पिछले दिनों एक दलित लेखक ने अपनी फेसबुक वॉल पर एक संक्षिप्त पोस्ट डाली, जिसमें उन्होंने लिखा- “मुझे आज तक यह पता नहीं चल पाया कि मेरे हिंदू पड़ोसी वसुंधरा, गाजियाबाद जैसी पॉश कॉलोनी में भी मुझसे क्यों नफरत करते हैं?”
पेरियार ई.वी.रामासामी : उसूलों पर अडिग महातार्किक – अमरनाथ
वर्ण व्यवस्था का अंत कर देना, जिसके कारण समाज ऊँच और नीच जातियों में बाँटा गया है। ब्राह्मण हमें अंधविश्वास में निष्ठा रखने के लिए तैयार करता है। वह खुद आरामदायक जीवन जी रहा है। तुम्हे अछूत कहकर निंदा करता है। मैं आपको सावधान करता हूँ कि उनका विश्वास मत करो।
इतिहास और पूर्वाग्रह – गणेश देवी
Post Views: 18 अज्ञेयवादी हूँ, लिहाज़ा न तो पूरी तरह आस्तिक हूँ, न धुर नास्तिक। फिर भी, बाज़ दफ़ा ऐसा होता है कि आस्था का प्रश्न अहम हो उठता है।…
हिन्दी दुर्दशा- प्रो. सुभाष चन्द्र
भाषाओं में श्रेष्ठता के दावे नहीं चलते, जिस भाषा जो अभिव्यक्ति करता है उसके लिए वही भाषा महान होती है। दूसरी भाषाओं की कद्र करके ही हम अपनी भाषा के लिए सम्मान पा सकते हैं। भाषाओं में ऐसी संकीर्णताएं नहीं होती, ऐसी कोई भाषा नहीं जिसने दूसरी भाषाओं से शब्द न लिए हों। एक जगह से शब्द दूसरी जगह तक यात्रा करते हैं। जिस भाषा में ग्रहणशीलता को ग्रहण लग जाता है वह भाषा जल्दी ही मृत भी हो जाती है। (लेख से)