जनवादी कविता की विरासत-डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल
Post Views: 2,441 हिन्दी में आठवें दशक के दौरान जनवादी कविता का स्वर ही प्रमुख रहा है, कई नए हस्ताक्षर इधर जनवादी कविता के क्षेत्र में उभर कर आए हैं,
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Post Views: 1,001 आलेख साहित्य और राजनिति में जो फर्क है, वह तो ई. एम. एस. ने स्पष्ट कर ही दिया है कि राजनीति में ”अपनी सत्ता को बनाये रखने
Continue readingसाहित्य और राजनीति के अंत:सम्बन्ध – डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल
Post Views: 1,526 आलेख मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का यह एक मुख्य कर्तव्य है कि प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तकों द्वारा साहित्य के बारे में जो अवैज्ञानिक और भ्रान्तिपूर्ण धारणाएं प्रचलित एवं प्रस्थापित की
Post Views: 115 ग़ज़ल वो जिन्हें हर राह ने ठुकरा दिया है,मंज़िलों को ग़म उन्हीं को खा रहा है मेरा दिल है देखने की चीज़ लेकिनइस को छूना मत कि
Continue readingवो जिन्हें हर राह ने ठुकरा दिया है -आबिद आलमी
Post Views: 166 जो शख़्स तुझ को फरिश्ता दिखाई देता है।वो आईने से डरता सा दिखाई देता है॥ किया था दफ़्न जिसे फर्श के नीचे कल रात,वो आज छत से
Continue readingजो शख़्स तुझ को फरिश्ता दिखाई देता है- आबिद आलमी
Post Views: 333 जॉन कीट्स (1795-1821) – अनुवाद – दिनेश दधीचि एक वर्ष में जैसे चारों मौसम आते ऐसे ही मानव के मन में भी देखो परिवर्तन आते। पहले आता
Post Views: 161 ख़ला से भी कभी उभरा है ज़िन्दग़ी का वजूदतेरी निगाह कहाँ टकराई है दीवाने!तेरे दिमाग़, तेरे ज़हन पर मसलत हैहसीन उम्रगेज़ सत्ता के चन्द अफ़सानेहवा का झौंक
Continue readingख़ला से भी कभी उभरा है ज़िन्दग़ी का वजूद – आबिद आलमी
Post Views: 372 बर्तोल्त ब्रेख़्त (1898-1956) अनुवाद – दिनेश दधीचि एक क़दम आगे: हमने सुना है कि तुम अच्छे आदमी हो। तुम्हें ख़रीदा नहीं जा सकता। लेकिन उससे क्या? ख़रीदा
Post Views: 199 जो ख़लाओं में देखता कुछ है। उसको आईने से गिला कुछ है॥ भागे जाते हैं लोग जंगल को, शहर में आज फिर हुआ कुछ है। यूँ बग़ल
Post Views: 243 राबर्ट फ़्रॉस्ट (1874-1963) अनु. – डा. दिनेश दधीचि पतझड़ था; दो राहें जाती थीं जंगल में माफ़ कीजिए; एक मुसाफ़िर दो रस्तों पर कैसे चलता? खड़ा रहा