Author: मंगत राम शास्त्री

जिला जीन्द के टाडरथ गांव में सन् 1963 में जन्म। शास्त्री, हिन्दी तथा संस्कृत में स्नातकोतर। साक्षरता अभियान में सक्रिय हिस्सेदारी तथा समाज-सुधार के कार्यों में रुचि। अध्यापक समाज पत्रिका का संपादन। कहानी, व्यंग्य, गीत विधा में निरन्तर लेखन तथा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। बोली अपणी बात नामक हरियाणवी रागनी-संग्रह प्रकाशित।

सिपाही के मन की बात – मंगतराम शास्त्री

Post Views: 156 कान खोल कै सुणल्यो लोग्गो कहरया दर्द सिपाही का। लोग करैं बदनाम पुलिस का धन्धा लूट कमाई का।। सारी हाणां रहूँ नजर म्ह मेरी नौकरी वरदी की

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सै दरकार सियासत की इब फैंको गरम गरम – मंगतराम शास्त्री

मंगतराम शास्त्री हरियाणा के समसामयिक विषयों पर रागनी लिखते हैं. यथार्थपरकता उनकी विशेषता है. … Continue readingसै दरकार सियासत की इब फैंको गरम गरम – मंगतराम शास्त्री

सामण का स्वागत – मंगतराम शास्त्री

Post Views: 214 शीळी शीळी बाळ जिब पहाड़ां म्ह तै आण लगै होवैं रूंगटे खड़े गात के भीतरला करणाण लगै राम राचज्या रूई के फोयां ज्यूं बादळ उडण लगैं समझो

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घाणी फोड़ रही थी जोट न्यूं आपस में बतलाई – मंगतराम शास्त्री

Post Views: 157 (प्रचलित तर्ज- होळी खेल रहे नन्दलाल…)घाणी फोड़ रही थी जोट न्यूं आपस में बतलाईहम रहां माट्टी संग माट्टी, म्हारी जड़ चिन्ता नै चाट्टीपाट्टी पड़ी खेस की गोठ,

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झूठ कै पांव नहीं होते- मंगत राम शास्त्री

Post Views: 319 मंगतराम शास्त्री झूठ कै पांव नहीं होते सदा जीत ना होया करै छल कपट झूठ बेईमाने की एक न एक दिन सच्चाई बणती पतवार जमाने की झूठ

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डरे हुए समय का कवि- मंगत राम शास्त्री

Post Views: 225 मंगतराम शास्त्री तब डरे हुए समय का कवि वहाँ पर विराजमान था जब बिना शहीद का दर्जा पाए लोट रहा था अर्ध सैनिक शहीद और स्वागत में

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सासड़ होल़ी खेल्लण जाऊंगी- मंगत राम शास्त्री

Post Views: 323 मंगतराम शास्त्री सासड़ होल़ी खेल्लण जाऊंगी, बेशक बदकार खड़े हों। री मनै पकड़ना चावैंगे, जाणूं सूं जाल़ बिछावैंगे ना उनकै काबू आऊंगी, कितनेए हुशियार खड़े हों। हेरी

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वो कैसे नव वर्ष मनाए- मंगत राम शास्त्री

Post Views: 142 मंगतराम शास्त्री आज का दिन भी वैसा ही बीतेगा जैसा कल बीता। कल का दिन भी वैसा ही बीतेगा जैसा कल बीता।। सैकिंड मिन्ट और घंटे दिन

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अन्नदाता सुण मेरी बात – मंगत राम शास्त्री

Post Views: 208 मंगतराम शास्त्री अन्ऩदाता सुण मेरी बात तूं हांग्गा ला कै दे रुक्का। सारे जग का पेट भरै तूं फेर भी क्यूं रहज्या भुक्खा।। माट्टी गेल्यां माट्टी हो

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