न घर में चैन है उसको न ही गली में है,मेरे ख़याल से वो शख्स ज़िन्दगी में है। खटक रहा है निगाहों में आसमां कब सेइसे उठाके पटक दूं कहीं,
न घर में चैन है उसको न ही गली में है,मेरे ख़याल से वो शख्स ज़िन्दगी में है। खटक रहा है निगाहों में आसमां कब सेइसे उठाके पटक दूं कहीं,
घरौंदे नज़रे-आतिश और ज़ख्मी जिस्मो-जां कब तकबनाओगे इन्हें अख़बार की यों सुर्खियाँ कब तक यूँ ही तरसेंगी बाशिंदों की खूनी बस्तियाँ कब तकयूँ ही देखेंगी उनकी राह गूंगी खिड़कियाँ कब
ग़ज़ल जब कहा मैंने कुछ हिसाब तो दे।क्यों फ़रिश्तों की झुक गई आँखें।। इतने ख़ामोश क्यों हैं शहर के लोग।कुछ तो पूछें, कोई तो बात करें॥ अजनबी शहर और रात
जब तलातुम से हमें मौजें पुकारें आगे।क्यों न हम ख़ुद को ज़रा उबारें आगे।। शहरे हस्ती में तो हम औरों से पीछे थे ही,क़त्लगाहों में भी थीं लम्बी कतारें आगे।।
ग़ज़ल ये मैंने माना कुछ उसने कहा है, लेकिन क्या !हमारा हाल सब उसको पता है, लेकिन क्या! मेरी सलीब तो रखवा दो मेरे कन्धों पर,कतार लम्बी है, वक्फ़ा बड़ा
ग़ज़ल बस्ती के हर कोने से जब लोग उन्हें ललकारेंगेआवाज़ों के घेरे में वो कैसे वक्त गुज़ारेंगे। आख़िर कब तक उसके घर के आगे हाथ पसारेंगे,इक दिन लोग इन्हीं हाथों