एक विद्रोही स्त्री – आलोक श्रीवास्तव

इस समाज में
शोषण की बुनियाद पर टिके संबंध भी
प्रेम शब्द से अभिहित किये जाते हैं

एक स्त्री तैयार है मन-प्राण से
घर संभालने, खाना बनाने कपड़ा धोने
और झाड़ू-बुहारी के लिये
मुस्तैद है पुरुष उसके भरण-पोषण में
हां, बिचौलियों के जरिये नहीं,
एक-दूसरे को उन्होंने ख़ुद खोजा है
और इसे वे प्यार कहते हैं
और मुझे वेरा याद आती है
उसके सपने याद आते हैं
शरीर का अतिक्रमण करती एक विद्रोही स्त्री
उपन्यास के पन्नों से निकलकर
कभीं-कभीं किसी शहर में, किसी रास्ते पर दिखती है
विद्रोही पुरुष भी नजर आते हैं गुस्से से भरे हुए
राज्य के विरुद्ध, समाज के विरुद्ध
परम्परा और अन्याय के विरुद्ध
मित्रों, शक नहीं है इन पुरुषों की ईमानदारी पर
विद्रोह पर, क्रांतिकारी चरित्र पर
किंतु रोजमर्रा की जिन्दगी की तकलीफों के आगे
वे अक्सर सामन्त ही साबित होते हैं
बहुत हुआ तो थोड़ा भावुक किस्म के, समझदार किस्म के
मगर सामन्त
फिर हम अन्त देखते हैं करुण और विषण्ण –
एक विद्रोही स्त्री का
समाज अपनी गुंजलकें कसता जाता है उसके गिर्द
जीवन के इन सारे रहस्यों के आगे
यह आधुनिक-पुरुष-प्रेमी लाचार होता जाता है
फिर भी अन्त तक वह विद्रोही रहता है
समाज को बदलने में संलग्न
और एक विद्रोही स्त्री खत्म हो जाती है
उसके विद्रोह के निशान भी नहीं बचते
उसके ही चेहरे पर

1 thought on “एक विद्रोही स्त्री – आलोक श्रीवास्तव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *