जींद चुनाव का हरियाणा की राजनीति पर असर – अविनाश सैनी

– अविनाश सैनी
जींद का चुनाव निपट गया। प्रचारित की जा रही तिकोनी, चौकोनी और पंचकोनी टक्कर के विपरीत मुख्य मुकाबला भाजपा व जजपा में सिमट गया और जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था, सत्ता पक्ष के डॉ. कृष्ण मिड्ढा 12 हज़ार से अधिक मतों से विजयी रहे। इसके हरियाणा की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे।
इस चुनाव की खास बात यह रही कि बांगर की धरती पर पहली बार कमल खिला। दूसरे, राजनीतिक विश्लेषणों के विपरीत भाजपा गाँवों में भी भारी बहुमत हासिल करने में सफल रही। इधर चौटाला परिवार की अंदरूनी कलह में अभय चौटाला हाशिये पर चले गए और दुष्यंत चौटाला चौधरी देवीलाल की राजनीतिक विरासत पर वर्चस्व कायम करने में कामयाब रहे। इसके अलावा दुष्यंत कुछ हद तक शहरी मतदाताओं पर भी प्रभाव डालने में सफल होते दिखाई दिए।
चुनाव परिणामों से सबसे बड़ा झटका काँग्रेस को लगा है। पार्टी के हैवीवेट उम्मीदवार रणदीप सुरजेवाला उम्मीद से काफ़ी कम वोट हासिल कर पाए। इससे जहाँ काँग्रेस की चुनावी रणनीति की खामियों और हरियाणा की जनता के मूड को भाँपने की कमज़ोर समझ का पर्दाफाश हुआ, वहीँ नेताओं की अंदरूनी कलह भी एक बार फिर उभर कर सामने आई।
लगभग 3500 मत हासिल करने वाले इनेलो-बसपा गठबंधन का तो जैसे इस चुनाव ने बिस्तर ही गोल कर दिया। निःसंदेह अब अभय चौटाला को नए सिरे से अपनी पारी का आरंभ करना पड़ेगा। आने वाले समय में इनेलो-बसपा गठबंधन पर भी संकट के बादल मंडराते दिखाई दे रहे हैं।
भाजपा से बगावत कर नई पार्टी ‘लोसुपा’ बनाने वाले सांसद राजकुमार सैनी को हालांकि चुनाव में अपेक्षाकृत परिणाम हासिल नहीं हुए लेकिन वे खुद को एक राजनीतिक शक्ति के तौर पर स्थापित करने में कामयाब होते दिख रहे हैं। उनके उम्मीदवार विनोद आश्री 11% से अधिक मत हासिल कर चौथे नम्बर पर रहे । फिर भी ऐसा लगता है कि पार्टी अभी कुछ खास समुदायों को ही अपने साथ जोड़ पाई है। यदि लोसुपा अपने प्रभाव को थोड़ा और व्यापक कर लेती है तो आने वाले चुनावों में अनेक सीटों पर काँग्रेस और भाजपा दोनों का खेल बिगाड़ सकती है।
भाजपा प्रत्याशी की जीत से स्पष्ट हो गया है कि बीजेपी हरियाणा की जनता को 35 बनाम एक, यानी जाट-गैर जाट के बीच बाँटने और गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करने में सफल रही है। फरवरी 2016 में जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के बाद जाटों और गैर जाटों के बीच जो खाई पैदा हुई, भाजपा नेताओं ने उसे बढ़ाने और भुनाने की रणनीति अपनाई जिसका फायदा उसे चुनावों में मिल रहा है। भाजपा ने पहले 5 नगर निगमों के चुनावों में और अब जींद में इसी फार्मूले से जीत हासिल की है। निःसंदेह भविष्य में भी पार्टी पंजाबी अर्थात गैर जाट मुख्यमंत्री के नारे को केन्द्र में रखेगी और गैर जाट मतदाताओं के भरोसे फिर से सत्ता में आने की रणनीति पर काम करेगी। असल में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने खुद को जाटों का सबसे बड़ा नेता साबित करने और जाट वोटों को लामबंद करने का जो खेल खेला था उसका खामियाजा लंबे समय तक पूरी काँग्रेस को भुगतना पड़ेगा क्योंकि भाजपा ने उसी का फायदा उठा कर गैर जाटों में (ग्रामीण इलाकों में भी ) गहरी पैठ बना ली है। भाजपा का दूसरा ट्रम्पकार्ड रहा ग्रुप डी की भर्ती। सरकार ने इस बात का जबरदस्त प्रचार किया कि नियुक्तियाँ योग्यता के आधार पर हुई हैं और भाजपा ने पर्चियों से सिफारिश करने की पुरानी सरकारों की परंपरा को तोड़ा है। इससे ग्रामीण क्षेत्र के दलित- पिछड़े वोट पार्टी को मिल पाए। निःसंदेहआगे भी बीजेपी भर्तियों को चुनावी मुद्दा बनाएगी।
जाट-गैर जाट के बीच बढ़ती दूरियों का दूसरा फायदा जजपा को मिला। दुष्यंत और दिग्विजय जाट समुदाय को भरोसा दिलाने में सफल रहे कि की जाटों के हित जजपा के साथ ही सुरक्षित हैं। दोनोँ ने अपने जुझारूपन और साफ-सुथरी छवि के बल पर भाजपा को कड़ी टक्कर दी। इससे बहुसंख्यक जाट मतदाता जजपा के पक्ष में लामबंद हो गए। इसका नुकसान दूसरे जाट उम्मीदवारों को उठाना पड़ा लेकिन सबसे बड़ा नुकसान हुआ काँग्रेस के रणदीप सुरजेवाला को। जाट वोटर जजपा के साथ चले गए और गैर जाट बीजेपी के साथ। यदि यही स्थिति रही और काँग्रेस अपनी रणनीति में आमूल-चूल बदलाव नहीं करती तो आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी उसके हाथ कुछ खास नहीं लगने वाला।
कुछ काँग्रेसी नेताओं पर भाजपा के पक्ष में वोट ट्रांसफर करने का आरोप भी लगाए जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के नवीन जयहिन्द ने तो सरेआम आरोप लगाया है कि संभावित गिरफ्तारी के डर से अभय चौटाला और भूपेन्द्र हुड्डा ने बीजेपी को वोट डलवाए हैं। कहा जा रहा है कि मतदान से ऐन पहले हुड्डा साहब के ठिकानों पर सी बी आई की रेड उन पर दबाव बनाने के लिए ही डाली गई थी। यही नहीं, रणदीप सुरजेवाला के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषकों ने भी भीतरघात की आशंका जताई है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती काँग्रेस सरकार और वर्तमान भाजपा सरकार की नीतियों के चलते हरियाणा में जाट-गैर जाट के बीच की खाई पिछले एक अरसे में काफ़ी गहरी हुई है तथा गैर जाट मतदाता भाजपा के पक्ष में लामबंद हुए हैं। दूसरे, जाटों का भी काँग्रेस से मोह भंग हुआ है और वे समय तथा स्थिति के अनुसार ‘मजबूत’ नज़र आने वाले ‘जाट प्रत्याशी’ के हक में एकजुट होने की रणनीति पर चल रहे हैं। मतलब आगे भी अब जाट पार्टीबाजी से ऊपर उठकर मजबूत जाट उम्मीदवार को वोट देंगे। पार्टी के रूप में फिलहाल जजपा उनकी पहली पसंद लगती है।
भविष्य की बात करें तो आने वाले चुनावों में भाजपा को लाभ मिलता दिख रहा है। इनेलो नेताओं का जजपा में पलायन बढ़ सकता है। चुनावों से पूर्व इनेलो-बसपा गठबंधन के टूटने तथा जजपा और आप में गठबंधन होने की संभावना भी बढ़ गई है। उम्मीद है कि प्रदेश काँग्रेस के सांगठनिक ढाँचे में भी जल्दी ही कोई बड़ा बदलाव होगा। बहुत संभव है कि हुड्डा के प्रभाव में कुछ कमी आए। राजकुमार सैनी कुछ सीटों पर काफी प्रभावी हो सकते हैं। अन्य स्थानों पर भी वे भाजपा को (कुछ हद तक काँग्रेस को भी ) नुकसान पहुँचाने की स्थिति में हैं। और अंत में, पुनः सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेसियों को एकजुट होने के साथ-साथ व्यवहारिक और नीतिगत, दोनोँ स्तरों पर बड़े फैसले लेने की ज़रूरत है।
– संपर्क : avi99sh@gmail.com

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