20 लाख से ज्यादा आदिवासियों को अपने जंगल की जमीन से होना पड़ेगा विस्थापित – अर्शदीप

केंद्र सरकार ने नहीं किया वन अधिकार कानून 2006 का बचाव

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 को 17 राज्यों को निर्देश दिया है कि उन आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों से जमीन खाली करवाओ, जिनके दावे खारिज किए जा चुका हैं। खारिज किए गए दावे 20 लाख से ज्यादा हैं।। इस पर अगली सुनवाई जुलाई 2019 को होगी।
इस निर्देश से लगभग 20 लाख लोगों पर विस्थापन की तलवार लटक गई है। वहीं यह वह लोग हैं जो सदियों से जंगलों में निवास करते आ रहे हैं और जिनको वन अधिकार कानून 2006 के तहत जमीन के लिए अपने दावे प्रस्तुत करने के लिए आदेश दिए गए थे और भरोसा दिया गया थी उन सब लोगों को कानून जमीन के पट्टे मिलेंगे जो 13 दिसंबर 2005 से पहले तीन पीढ़ियों से निवासरत होंगे।

Image result for आदिवासी विस्थापन

जस्टिस अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हां और इंदिरा बैनर्जी यह निर्देश जारी किया है। केंद्र सरकार लगातार सुप्रीम कोर्ट में वन अधिकार कानून की वकालत करने में विफल रही। आखिरी सुनवाई में तो उसने अपना वकील भी नहीं भेजा।
आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िशा, राजस्थान, तमिलनाडू, तेलंगाना, त्रिपुरा, उतराखंड, उतर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिवों ने कोर्ट के सामने यह दलीलें रखी कि क्यों दावों को खारिज किया जाना जरूरी है। कोर्ट ने 24 जुलाई से पहले इन दावों को खारिज करने के निर्देश दिए हैं। और साथ में राज्यों को चेतावनी देते हुए कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर इस मामले में बेदखली नहीं की गयी तो गंभीरता के साथ यह कोर्ट इस मामले का संज्ञान लेगी। इस कानून के खिलाफ वाइल्ड लाइफ फ्रस्ट नाम एक एनजीओ और कुछ सेवानिवीर्त अधिकारियों ने याचिका दायर की थी। जिसकी सुनवाई में आदिवासियों के विस्थापन का निर्देश दिया गया है। इन याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 2008 से पहले की स्थिति को बहाल किया जाए यानी इस कानून के लागू होने से पहले वाली स्थिति। इनका दावा है कि अभी तक 44 लाख दावे सरकार को प्राप्त हुए हैं जिनमें से 20.5 लाख दावे खारिज किए जा चुके हैं।

कहां कितने दावे हुए खारिज

(यह तालिका अभी अधुरी है, जिस में पुराने आंकड़े हैं। नए आंकड़े इस से भी खतरनाक हैं।)

  1. आंध्र प्रदेश:  66,351 दावे खारिज
  2. असम:         ST के 22,3891 दावे और OTFD  के 5136 दावे
  3. बिहार:        4354 (2666 ST और 1688 OTFD )
  4. छत्तीसगढ़:    20,095 दावे खारिज
  5. गोवा:          6094 ST दावों और 4036 OTFD  दावे लंबित हैं
  6. गुजरात:       1,68,899 ST दावों और 13,970 OTFD  दावे लंबित हैं
  7. हिमाचल प्रदेश:         2131 ST दावों और 92 OTFD  दावे लंबित हैं
  8. झारखंड:      27,809 ST के दावे और 298 OTFD  के दावे खारिज
  9. कर्नाटक:      35, 521 ST के दावे और 1,41,019 OTFD  के दावे खारिज
  10. केरल:         894 ST के दावे खारिज
  11. मध्यप्रदेशः    2,04,123 ST और 1,50,664 OTFD दावे खारिज
  12. महाराष्ट्र:      13,712 ST और 8797 OTFD दावे खारिज।
  13. ओडिशा:     1,22,250 ST के दावे और 26,620 OTFD  के दावे खारिज
  14. राजस्थान:    36,492 ST के दावे और 577 OTFD  के दावे खारिज
  15. तमिलनाडु:   7148 ST के दावे और 1811 OTFD  के दावे खारिज
  16. तेलंगाना:     82,075 दावे खारिज
  17. त्रिपुरा:         34,483 ST दावे और 33,774 OTFD दावे खारिज
  18. उत्तराखंड:    35 ST दावे और 16 OTFD  के दावे खारिज
  19. उतर प्रदेश:   20,494 ST दावे और 38,167 OTFD दावे खारिज
  20. पश्चिम बंगाल:           50, 288 ST के दावे और 35,586 OTFD  के दावे खारिज

स्रोत – https://www.livelaw.in/top-stories/sc-orders-eviction-forest-dwellers-tribes-whose-claims-under-forest-rights-act-stand-rejected-143060

क्या है वन अधिकार कानून 2006

लंबे समय से जल-जंगल-जमीन के लिए क्रांतिकारी जनता, बुद्धिजीवियों, पर्यावरण प्रेमियों, आदिवासियों जनता के शुभचिंतकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा लड़े जा रहे जनसंघर्षों के दम से वन अधिकार कानून 2006 अस्तित्व में आया था। इस कानून का पूरा नाम अनुसूचित जनजाति और अन्य पंरपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 है। इस कानून के तहत मोटे रूप में यह प्रावधान था कि जंगल में रहने वाले, जंगल पर निर्भर जनजातियों और अन्य जनता को जंगल की जमीन, वनोपजों को उपभोग व प्रबंधन का व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार होगा। यानी को जनजाति का कोई भी व्यक्ति या फिर 2005 से पहले तक तीन पीढ़ियों से रह रहा अन्य परंपरागत निवासी 2.5 हैक्टयेर (10 एकड़) तक जमीन का दावा कर सकता है। जंगल से प्राप्त होने वाली जड़ी बुटियों, बांस, लाख, शहद, गोंद आदि के लिए समुदाय अपना दावा कर सकता है। ग्राम सभा द्वारा इसके लिए प्रस्ताव पास करना पड़ता है। ग्राम सभा इस कानून में एक वास्तविक और मजबूत शक्ति है। यह कानून 2008 में लागू हुआ था।
दरअसल दुनिया में तमाम सभ्यताओं का विकास वनों, घाटियों और नदियों के किनारे हुआ है। मानव विकास क्रम में बहुत सारी जनजातियां विकसित हो चुकी हैं और वह जंगल पर निर्भर नहीं रही। लेकिन मानव समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी वनों पर निर्भर है और वह विकास (एक तरह का विनाश) के उस पायदान पर नहीं पहुंचा की अपने जंगलों को बर्बाद करने की सोचने लगे, अपने मुनाफे की हवस के लिए जंगलों को काट कर तबाह कर दे, खदाने खोद कर पूरी पृथ्वी के लिए खतरा खड़ा कर दे। हमारे देश में लगभग 8.6 प्रतिशत (10 करोड़ के आस पास) आदिवासी और काफी संख्या में अन्य वन निवासी जंगलों पर निर्भर है।

जमीन पर ‘जंगल व जमीन पर सामूहिक मालिकाना और व्यक्तिगत उपयोग’ की परंपरा है। जंगल व आदिवासी का संबंध एक दूसरे पर निर्भर है। जंगल के बिना आदिवासी और आदिवासी के बिना जंगल की कल्पना बेईमानी होगी। वनोपज संग्रहण, शिकार और खेती के बिना आदिवासी जीवन की तस्वीर पूरी नहीं होती। यह उनकी अहम जरूरत है। इनके बिना उनका सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन ही बर्बाद है।

भारत में अंग्रेज आने तक जंगल पर उनका पारंपरिक अधिकार सदियों से जारी रहा। वह जंगल में खेती, शिकार और पशुपालन आदि पर निर्भर होकर अपना जीवन निर्वाह करते रहे। वह जंगलों और वन्य प्राणियों के असली संरक्षक रहे। लेकिन अंग्रेजों ने जब देखा कि भारत के जंगल बेहद मुनाफा देने वाले हैं, उनको इमारतों और रेलवे के लिए भारी मात्रा में लकड़ी की जरूरत थी, कोयले और लोहे की जरूरत थी। यह सब संसाधन आदिवासी जंगली इलाकों में स्थित थे। मैदानी इलाके के किसानों को उन्होंने भारी टैक्स, लगान लगा कर लूटा तो वहीं आदिवासी इलाकों की संपदाओं के कई सारे क्रूर कानून लागू करके।
अँग्रेजी हकूमत ने सन 1855 के बाद से इन वनों को व्यापारिक जरूरतों के लिए जनता से छिनना शुरू किया और वन कानून बना कर वनों का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। आज भी सरकार व कार्पोरेट इन वनों पर से वन निवासियों के परंपरागत वन उपभोग के अधिकारों को विकास के नाम पर छीनती जा रहा है। बड़े बांधों, खनन, बड़ी ढ़ाचागत परियोजनाओं, शहरीकरण और उद्योगीकरण के लिए वन व वन भूमि का जबरनी अधिग्रहण कर के वन निवासियों को विस्थापित किया जाता रहा है।
सन 1855 में पहली बार ब्रिटिश हकुमत ने साल वृक्ष की लकड़ी को सरकारी संपति घोषित किया और इस के व्यापार को नियंत्रित किया। सन 1865 में वन कानून बना कर वन क्षेत्र पर पूरा नियंत्रण स्थापित किया। वनों के सन 1878 में लाए गए वन कानून में समुदायों को कुछ छूटें दी गई और वनों को तीन श्रेणियों में बांटा गया। व्यापारिक महत्व के वनों को आरक्षित वन की श्रेणी में रखा गया, जिस में से पेडों व अन्य वन उत्पादों का व्यापारिक दोहन किया जाना था। इन वनों पर से समुदायों की सभी तरह के दखल पर रोक लगा दी। संरक्षित वन, वन विकास के रखे गए और बाद में इन्हें आरक्षित वन बनाया गया। इन में समुदायों की सीमित पहुँच रखी गई। तीसरी श्रेणी गाँव वन की बनाई गई, ताकि गाँव वासियों को उक्त दोनों श्रेणियों में जाने से रोका जा सके।
‘भारतीय वन अधिनियम-1893’ और भारतीय भू-अधिग्रहण कानून-1894’ इन दो कानूनों ने आदिवासियों को जंगल-जमीन से बेदखल कर दिया। ‘वनों के संरक्षण और ‘सार्वजनिक हित’, ‘विकास’ के लिए सरकार किसी की भी जमीन का अधिग्रहण कर सकती है, के प्रावधान के तहत राज्य को जमीन का मालिक बना दिया। इसी तरह वन संरक्षण कानून के तहत वनों के बचाव के नाम पर पूरे जंगल व वन संपदा पर राज्य का अधिकार स्थापित कर दिया गया। इसके तहत राज्य उसका मनचाह उपयोग कर सकता है। आदिवासी इससे अपनी ही जमीन पर विस्थापित हो गए। उनके ऊपर रेंजर-गार्ड, पटवारी, दफदार नए ‘राजा’ बन गए। वनों व जंगली जानवरों के संरक्षण के मद्देनजर जंगल में तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, भाला, आत्मरक्षा के लिए भरमार लेकर जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। पेड़ काटने पर पाबंदी लगा दी गयी। झोंपड़ी डालने, खेत की बाड़ बनाने, बांस से दैनिक उपयोग की चीजें बनाने के लिए पेड़-बांस कुछ भी लेकर जाना गैर कानूनी हो गया। वह पटवारी, दफेदार को अर्जी देंगे, फिर ऊपर से मंजूर होगा तब जाकर वह बाड़ के लिए बांस, घर के लिए लकड़ी ले सकते हैं। तब तक फसल को जानवर चर जाएंगे और बारिश की छपक-छपक से घर भर जाएगा। जंगल में पशु चराना तक प्रतिबंधित हो गया। अगर पालतू पशु आरक्षित जंगल में चरते हुए गोबर कर देते हैं तो वह भी राज्य की संपत्ति मानी गयी। कानून यह कि – ‘जंगल सरकार का, जमीन सरकार की, उसमें गिरने वाली हर चीज सरकार की चाहे महुआ हो, तेंदू पत्ता हो, इमली हो, इस प्रकार भैंस का गोबर भी वहीं गिरता है। इसलिए वह सरकारी हुआ।’ पशुपालक को मात्र यह अधिकार है कि वह उसका संग्रहण करे और उसका उपयोग करे। लेकिन मालिकाना हक राज्य का है! देश के कई भागों में आदिवासियों और वन निवासियों ने इस का विरोध किया। परिणामस्वरूप 1925 में नया वन अधिनियम बनाया गया और वन पर निर्भर समुदायों को वन उपभोग की सीमित छूट दी गई। हिमाचल में इसे वन बर्तन-दारी व्यवस्था कहा जाता है, जिसे वन विभाग कभी भी समाप्त कर सकता है ।

वनों पर 160-65 वर्षों से सरकार की व्यापारिक दोहन की दृष्टि से की गई कब्जेदारी का ही परिणाम है कि देश के वनों का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ और आज मिश्रित वन कम ही बच पाए हैं। करोड़ों लोगों को जबरन विस्थापित किया गया। 160 बरसों के इस दर्दनाक इतिहास से यह साबित हुआ है कि वनों का संरक्षण और वन निवासियों का विकास तभी संभव है, जब उक्त वनों को परंपरागत समाजों को वापिस सौंपा जाए।

इस के लिए लंबे समय से जारी संघर्ष की बदौलत ही भारतीय संसद ने वर्ष 2005 में अनुसूचित जनजाति और अन्य पंरपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे वन अधिकार कानून-2006 भी कहा जाता है को पारित किया। आज भी भारत बर्ष का 22 प्रतिशत भू-भाग वन भूमि है, जिस पर लगभग 20 करोड़ वन निवासी अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं। इस कानून में कहा गया था कि आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर किया गया है।

इस कानून में मिलने वाले  वन अधिकारः

  1. सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (Common Forest Resources –CFR Rights] धारा -3(1)

2   वाजिब-उल-अर्ज, नक्शा बर्तन (राजस्व रिकार्ड के मुताविक दर्ज अधिकार) या निस्तार।
 
3   वन बर्तनदारी – (Forest usufruct rights and prectices) जो वन विभाग के रिकार्ड तथा forest working Plan की Compartment History sheet में दर्ज है।
 
4   लघु वन उपज (Minor Forest Produce) NTFP पर सरकारी अधिसूचनाएं व आदेश।
 
5   लघु खनिज (मिट्टी, पत्थर, रेत, बजरी इत्यादि) का उपयोग।
 
6   सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक उपयोग, रास्ते, पानी, मछली पकड़ना, परंपरागत ज्ञान, जड़ी-बूट्टी, पशुचराई, गृह निर्माण, कृषि औजार व जलावन की लकड़ी इत्यादि।

अब सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार ने इस कानून का बचाव क्यों नहीं किया। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि देश में सबसे ज्यादा खनिज संपदाएं लोहा, कोयला, सोना, चाँदी, बॉक्साइट, यूरेनियम, तांबा, पत्थर आदि सब इन्हीं जंगलों में है। इस संपत्ति से अकूत मुनाफा कमाने के लिए देश व विदेश के बड़े कार्पोरेट घराने इन पर अपनी गिद्द नजर गड़ाए हुए हैं। इन जंगलों में खदानों के लिए हजारों एमओयू साइन किए जा चुके हैं। आदिवासी इसके खिलाफ लंबे समय से लड़ रहे हैं। कानून तो यह इस लिए बनाया गया था कि पहले पट्टे दिए जाएं। और फिर मुआवजा देकर उन जमीनों को अधिग्रहित किया जाए। लेकिन चाल उलटी पड़ने लगी। आदिवासी अपनी जमीन छोड़ने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है। इस लिए इस कानून को नखदंत विहीन करने के लिए सरकार ने इसका कोई बचाव नहीं किया। दूसरा मामला यह है कि यह कानून कांग्रेस की यूपीए सरकार के दौरान आया था।

सुप्रीम कोर्ट का पूरा आदेश पढ़ें

[pdfjs-viewer url=”https%3A%2F%2Fdesharyana.in%2Fwp-content%2Fuploads%2F2019%2F02%2FJudgment-on-FRC_21-feb.pdf” viewer_width=100% viewer_height=1360px fullscreen=true download=true print=true]