बटलर ने छोटू राम को लंदन से लिखा-‘भारत में अंग्रेजी राज आज भी खूब धमाके से चल रहा है। ऐसा क्यों और कैसे संभव है?’ इस प्रभुत्व का उनका अपना स्पष्टीकरण था। परन्तु चौधरी छोटू राम ने अपनी तरह से खूब जवाब दिया।
आपने बहुत उचित प्रश्न उठाया है, अंग्रेजी राज के रौब से डटकर टिके रहने का रहस्य बताया है। भारत में ब्रिटिश शक्ति के उदय और चढ़ान का इतिहास इस सत्य का सटीक प्रमाण है। प्रचलित भद्दी धारणा यह है कि अंग्रेजों की किस्मत ने साथ दिया और छल, कपट, धोखेबाजी, बेईमानी और भारतियों की आपसी फूट से फायदा उठाकर अपना राज लिया, फैलाया और जमाया। मैं ऐसा नहीं मानता। इसे कितने की मेहरबानी नहीं समझता। खालिस छल-कपट से, चतुराई, होशियारी, बेईमानी और हेराफेरी से इतना शक्तिशाली राज स्थापित नहीं हो सकता था। हमें गहराई में जाकर इस अजीब ऐतिहासिक घटना का स्पष्टीकरण देना होगा। इस साम्राज्य के गठन में अंग्रेजी राष्ट्र के चरित्र और नैतिक गुणों को समझना होगा। अवसर, संयोग और अच्छे भाग्य की बात मानव जीवन में अपना स्थान रखती है। आम आदमी किस्मत में विश्वास रखता है। यह सब किस्मत का खेल मानता है। यह भी सत्य है कि सब जगहों, सब युगों, सब आबो-हवाओं में सियासी ताकत में आने के लिए छल-कपट चलता आया है। द्वेष, ईष्र्य, शत्रुता और भ्रम के तहत ये स्पष्टीकरण दिए जाते हैं, परन्तु असली बात तो किसी व्यक्ति या राष्ट्र के चरित्र, बल और इच्छाश्क्ति, मनोबल और दृढ़निश्चय और आत्मविश्वास की होती है। इन गुणों के कारण ही अंग्रेजी राज दुनिया में इतना शक्तिशाली बन सका है कि इसमें सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। अकेला भाग्य और छल-कपट इतनी शक्ति नहीं बना सकता । झूठ के पैर नहीं होते। कोरे कल्लर में कोई पौधा नहीं उक सकता, न ही बढ़ सकता है।
अंग्रेज भारत में साधारण व्यापारी के रूप में आए। दिल्ली सम्राटों, उनके गवर्नरों और भारतीय राजों-नवाबों ने दरियादिली दिखाई। पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी व्यापारियों से मुकाबला था। आपस में प्रतिस्पर्धा थी। जबरदस्त होड़ थी। अपने-अपने व्यापार फैलाने की दौड़ थी। एक-एक करके अंग्रेज व्यापारियों ने सबको पछाड़ा। मैं सब कारणों और हालात में यहां नहीं जाऊंगा। ब्रिटिश राष्ट्र को एक तरफ छोड़कर एक ही भौतिक तथ्य को लेता हूं, जिसने असली तोड़ की, निचोड़ की भूमिका निभाई और वह है महान ब्रिटेन की नौसेना यानी जहाजी समुद्री शक्ति।
यूरोप के अन्य व्यापारियों से सुलटकर, निपटकर, अंग्रेजों ने अपने असली दांत दिखाने शुरू किए। इन फिरंगियासें को अचानक इतना शक्तिशाली बनते देखकर हिन्दुस्तानी दंग रह गए। उनके प्रति एक शक उभरने लगा। द्वेष होने लगा। उनको विदेशी लुटेरे मानने लगे। मगर अंग्रेज वापस जाने के लिए नहीं आया था। अपना व्यापार फैलाने के लिए उसने अपना रास्ता साफ किया। अपने प्रतिद्वंद्धी साफ किए। अपना जाल बिछाने लगे। नवाबों व सम्र्राटों को भी अपने जाल में फंसाने लगे। भारत की पोल खुल गई। ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई। इसी में उनकी तरक्की का रहस्य छुपा हुआ था।
स्थानीय नवाबी शक्तियों ने फिरंगियों की बढ़ती शक्ति व प्रभाव का विरोध करना शुरू किया। अंगे्रज बड़ा चतुर, नीतिप्रज्ञ और प्रपंची था। अपनी सीमाएं जानता था और भारतीयों की आपसी फूट को समझता था। अकेला सबसे सीधा नहीं भिड़ व लड़ सकता था। इसलिए एक-दूसरे के आपसी विरोध को देखकर अंग्रेज को जो ठीक, सहल, सहज, नरम लगा, उसी को अपनी कांख में ले लिया। उसी से समझौता किया। मगर मराठों के खिलाफ उनका संघर्ष जटिल, कंटीला, कंकरीला और घातक सिद्ध हुआ। 1774 से 1804 तक छुटपुट टक्कर होती रही। मैसूर के हैदरअली और टीपू सुल्तान से भी भिड़ाई हो गई। वहां भी अंग्रेज ही जीते। कभी-कभी झकोले लगे, परन्तु अंग्रेजों की प्रतिभा, उत्तम संगठन, गजब का अनुशासन, कुटिल डिप्लोमेसी, दृढ़निश्चय और कभी-कभी अच्छी तकदीर ने साथ दिया। एक-एक विरोध थकाया, सारी कठिनाइयां पार की और तमाम संकटों में से अंग्रेज शान से विजयी होकर निकले। भारत में अंततः एक शक्तिशाली राज कायम हो गया। पिण्डारी युद्ध, नेपाल युद्ध और अंत में मराठा युद्ध सब 1819 तक जीत लिए गए। मगर भरतपुर में 1805 में अंग्र्रेज जनरल को जाटों के आगे-पीछे हटना पड़ा। सात फिरंगी, नौ गोरे, लड़े जाट के दो छोरे। भरतपुर को भी 1826 में ही लार्ड कोम्बरमेर जीत सका। लार्ड एमहस्र्ट ने भारत में अंग्रेजी राज की स्थायित्व की घोषणा कर दी। दुनिया आश्चर्यचकित रह गई। 1845-46 और फिर 1849 में सिखों ने अंग्रेजों को मार्मिक टक्कर दी, परन्तु बहादुर सिख भी अपनों ही द्वारा की गई गद्दारी के शिकार हो गए।
1857 की क्रांति आई। मगर सब भारतवासी एकजुट न हो सके। असंतुष्ट भारतीय सिपाहियों ने सीधी टक्कर दी। नाभा, पटियाला, जींद, फरीदकोट की सिख रियासतों ने अंग्रेज का साथ दिया। बहादुर सिखों ने सिख-अंग्रेज युद्धों में पूरबियों द्वारा अंग्रेज का साथ देने का पूरा बदला लिया। आपस में फूट से अंग्रेज 1857 की बगावत से भी विजयी होकर निकले। जनता को डटकर आतंकित किया। गोरे साहब का खौफनाक रौब छा गया।
मगर 1858 में महारानी विक्टोरिया भारत की महारानी बन गई। ईस्ट इंडिया कम्पनी का फिरंगी राज खत्म हुआ। महारानी ने आम माफी की घोषणा की। भारतवासियों ने इसे अपना मैगना कार्टा माना। इसमें अंग्रेजों की उत्तम उदारता, न्यायप्रियता की झलक देखी। चुंधिया गए। आतंक को भूल गए। धार्मिक आजादी मिली। कानून के आगे सब बराबर माने गए। लोगों के प्रति प्यार दिखायी दिया। भारतीय जनता भावुक हो उठी।
अंग्रेजी राज फौजी न रहकर अब प्रशासनिक और राजनीतिक दिखाई देने लगा। बीच में अफगानिस्तान और बर्मा की लड़ाइयां भी चलीं। अंग्रेजी राज की जड़ें गहरी जा चुकी थीं। शिक्षा फैलने लगी। 1861 के बाद कई कानून बने। हमारी आजादी का आधार बनने लगा। हमारे अधिकाारें का विस्तार चैड़ा होने लगा, परन्तु ये कदम भारतीय जनता को संतुष्ट न कर सके। इस धीरे-धीरे सुधार और अंग्रेजों की संदेहभरी सावधानी भारत की आजादी की भूख को संतुष्ट न कर सकी। भारतीय आशाएं, आकांक्षाएं बढ़ती गईं। पूर्णरूपेण स्व-सत्ता आने तक आपसी खींचातानी चलती रहेगी। अंग्रेज को एक विदेशी व्यापार व सत्ताधारी मानने लगे। यह दूरी चैड़ी होती गई।
पहले तो हमने स्थिर सरकार चाही जो जीवन और संपति की रक्षा की गारंटी दे सके। फिर हमने परिषदों की मांग की कि सरकारी सेवाओं में हमें भी हिस्सा दिया जाए। यह भी कुछ हद तक मंजूर हुआ। सत्ता की भूख और तेज हुई। ऊंचे पद भी मिलने चाहिएं। प्रतिनिधित्व भी मिले, यह निहायत जरूरी समझा गया। 1909 में मिंटो-मार्लो सुधार आए। 1919 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार आए, दो अमली हुकूमत हुई। केंद्रीय सरकार के हाथ में प्रांतीय सरकारें रहीं। पैसा अपने हाथ में रखा। चुनी हुई बहुसंख्या एक मजाक बनकर रह गई। परिषदें बांझ बनी रहीं। नौकरियां केवल नाम की रहीं। यह शरारत भरा भुलावा, लुभावा था। हमने व्यवस्था में बदलाव चाहा। सत्ता के केंद्र और आधार को बदलने की मांग की। डोमीनियन स्टेटस मिले, भारतीयों को अपना भाग्य निश्चित करने का अधिकार मिले। ‘राज’ विचलित होता गया।
वास्तव में अनुभव यह है कि इंग्लैंड के संविधान की तरह भारत का भी संविधान हो। उन्हें पूरी सत्ता मिले, भारतियों की जरूरतें पूरी हों, आकांक्षाएं संतुष्ट हों। अंग्रेजों की प्रतिभा ने फौजी कठिनाइयों को पार किया। प्रशासनिक और सियासी कठिनाइयों को भी जीता। परन्तु इस क्षेत्र में आपकी कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। क्या आप उनसे सफलतापूर्वक निपट सकेंगे? यह जबरदस्त चुनौती है। अंग्रेजों की सारी प्रतिभा, दिमाग, राजकौशल, सूझबूझ और सोचने की शक्ति कठोर परीक्षा है।
आपने क्रूरता का जिक्र किया है। सैनिक संगठन में आपकी कौम का मुकाबला नहीं, बेजोड़ है, परन्तु यदि सारा भारत अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ उठ खड़ा हुआ तो ग्रेट ब्रिटेन की सैनिक, नाविक शक्ति धरी की धरी रह जाएगी। सैनिक बल की एक सीमा होती है। भारत विशाल देश है। इसकी आबादी भारी है। केवल नंगी ताकत से, तलवार और बंदूक के बल से भारतवासियों को दबाया नहीं जा सकता। 1919 में जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में अंग्रेज की मिट्टी पीट दी। अंग्रेज वैसी सैनिक भूल नहीं दोहराएंगे। नैतिक आधार अनिवार्य है। भारतीय जनता की मूक आवाज सुननी पड़ेगी। अन्यथा भूकंप आ जाएगा। मुझे यकीन है कि अंग्रेज इस हद तक नहीं जाएंगे कि भारतवासी खुली बगावत करने पर बाध्य हो जाएं। जैसे धार्मिक क्षेत्र में हिन्दू धर्म लचीला, सहिष्णु और समय-हालात-जगह के अनुसार अपने को ढालने का गुण रखता है। वैसे ही ब्रिटिश प्रतिभा राजनीति और राज करने की कला में निपुण है।
आपने भारतीय रजवाड़ों का भी जिक्र किया। ‘राज’ ने उनको अपना पूरा संरक्षण दिया हुआ है। उनको बाहर के हमले का कोई डर नहीं। अंदर से बगावत उभरने की कोई संभावना नहीं। अपनी जनता से सुलटने की उनको पूरी छूट दे रखी है। इसलिए कुप्रबंध है और घोर अन्याय है। कोई पूछने वाला नहीं, कोई रोकने वाल नहीं। बस अंग्रेजी राज को उनकी वफादारी चाहिए, जो पूरी मिल जाती है। नैतिकता और न्याय जाए भाड़ में।
आप ‘बांटो और राज करो’ के सिद्धांत से इंकार करते हो। मैं ऐसा नहीं मानता। अंग्रेजों ने इसे पहले भी खूब अपनाया, आज भी उसी कुनीति पर चल रही हैं और अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए भविष्य में भी करेंगे। व्यक्तिगत रूप से मैं मानता हूं कि कोई भी साम्राज्य ऐसा ही करता है-अंग्रेजी साम्राज्य अलग क्यों और कैसे रहे? यह शैतानी सरकार भले ही न हो, मगर यह दैवी-सतयुगी सरकार भी नहीं है। हर एक विदेशी सरकार एक श्राप है, संताप है, कलंक है। किस सरकार ने सत्ता की वेदी पर नैतिकता को नहीं चढ़ाया? आओ, हम सब बगुलाभक्ति, पाखंड और झूठ से अपने-आप को दूर रखें। जो हम नहीं कर सकते, उसे करने की थोथी डींग क्यों मारें? यह कोई जीवित रहने, टिके रहने, स्थिर रहने, सबसे ऊपर बने रहने का सिद्धांत नहीं है। डार्विन की थ्योरी यहां फिट नहीं होती। जंगल राज लंबे समय तक नहीं चल सकता। रेत पर खड़ा विदेशी राज, राष्ट्र के शोषण पर ठहर नहीं सकता। पानी में गुलगुले नहीं उतर सकते। छाछ, दूध का स्थान नहीं ले सकती।
यह बात सही है कि गे्रट ब्रिटेन के बड़े राजनीतिज्ञों के मानसिक स्तर तक आम अंग्रेज नहीं उठ सकता। मगर हिन्दुस्तान में अंग्रेज अधिकारी यदि उतने ही ऊंचे दर्जे के हों तो वे भारत की तरक्की में बाधक हो सकते हैं, जबकि छोटे दिमाग वालों को तो नियंत्रित किया जा सकता है। मैं इस बात को नहीं मानता कि हमें भीरु, दबैल, मंदबुद्धि वाले अंग्रेज प्रशासक नहीं चाहिए। जब आपकी लोक सभा भारतियों की आकांक्षाएं पूरा करना चाहेगी तो कोई भी उसका विरोध करने का दुस्साहस न कर सकेगा।
आज स्थिति क्या है? हालात क्या है? भारतीय जनता का मूड क्या है? तनाव, चिंता से भरा हुआ वातावरण है। बेशक असहयोग आंदोलन दब गया है, मगर असहयोग आंदोलन के कारण मौजूद हैं। लोगों के दिलों में अंग्रेजी राज के खिलाफ उबाल है। गुलामी को तो एक लानत मानते हैं। इसको खत्म करना चाहते हैं। इससे सहयोग करने वाले को गद्दार की संज्ञा देते हैं। झटके लगे। चैरी-चैरा कांड पर महात्मा गांधी ने बाढ़ की तरह बढ़ते आंदोलन की जंजीर खींच दी, मगर जनता का रोष, जोश, आक्रोश कायम है-लावा जमा है। कभी भी फूट सकता है। खतरा है। असहयोग नीचे ही नीचे, दिलों में जारी रहेगा। खुले विद्रोह को क्रूरता से दबाया जा सकता है, कुचला जा सकता है, मगर असहयोग आंदोलन का एक ऐसा भूत है, जो आसानी से पकड़ में नहीं आ सकता, जिसको नंगी शक्ति से रोका नहीं जा सकता। आपकी बंदूकें, तोपें और संगीनें उसको रोक नहीं सकते, खत्म नहीं कर सकते, जीत नहीं सकते। अंग्रेज व्यापारियों ने अपने हिसाब से, अपने तरीकों से, तत्कालीन हालात में भारत को जीता था। 1857 के जंग में भी वे सफल रहे थे। भारतवासियों की आकांक्षाओं को वे धीमी गति से पूरा करने में लगे थे, परन्तु जमाना तेजी से बदल रहा है। दुनिया बदल रही है। नई-नई ताकतें उभर रही हैं। ग्रेट ब्रिटेन को भी बदलना पड़ेगा। प्रश्न यह है कि अंग्रेजी सूझ-बूझ (स्टेट्समैनशिप) इस असहयोग रूपी भूत से कैसे सुलटेगी। भारत को आजाद करना ही पड़ेगा।