चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह
हार्टकोर्ट बटलर का मानना था कि तमाम सरकारें नागरिक आजादी पर हावी होती हैं। 1923-24 में, बकौल छोटू राम, ब्रिटिश सरकार का इस बारे में कैसा हाल था?
आप द्वारा आजादी की व्याख्या और दी गई आजादी की शर्तों या सीमाओं में मैं इत्तेफाक करता हूं। समाज के हित में व्यक्तिगत आजादी पर सभी सरकारें कुछ हद तक नकेल डालती हैं। इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि भारत के रजवाड़ों में ब्रिटिश राज्यों की तुलना में जनता की आजादी पर अधिक अंकुश है। जब विशेष विषयों को लेकर सरकार की नीति और रुख पर बहस की जाती है तो मामला और भी अधिक रोचक बन जाता है।
ब्रिटिश भारत में तानाशाही के खिलाफ आवाज इसलिए बुलंद है कि वहां स्वशासन के अधिकार के लिए जनता की इच्छा को व्यक्त करने की अधिक आजादी है, कम प्रतिबंध है। यह जनता की आवाज का ठोस आधार है। सरकार और सरकारी अधिकारी व्यक्तियों और समजों पर अपना रौब गांठते हैं। जनता में उनके खिलाफ रोष है। आर्य समाज की बात लीजिए। पुलिस आर्य समाजियों को तंग करती है, अन्यायपूर्ण दुव्र्यवहार करती है। कई बार तो सरकारी अफसर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूलकर जनता की बेइज्जती करते हैं। आर्य समाज द्वारा चलाई शिक्षा संस्थाओं के प्रति कटार चुभोने, बाधा डालने और हानि पहुंचाने की नीति अपनाई जाती है। कहावत है कि अपनी सरकार कितनी भी खराब क्यों न हो, विदेशी सरकार जो कितनी भी अच्छी क्यों न हो, उसयसे अच्छी होती है। राजनीति में में सुधारवादी हूं, बुनियादी सुधार चाहता हूं। ढर्रे में बदलाव चाहता हूं। अंग्रेजी राज भले ही कितना भी अच्छा हो, फिर भी हम गुलाम हैं और मैं गुलामी से घृणा करता हूं। गुलामी एक लांछन है। हमारी राष्ट्रीयता अंधी और पागल नहीं है। यह ठोस सच्चाई है। विदेशी सरकार अपने गुणों का कितना भी बखान करे, अपने राज की कितनी भी बरकतें सुनाए और अपनी निपुणता की कितनी भी डींगें हांके, गुलाम जनता को अपना राज चलाने के लिए कितना भी अयोग्य ठहराए और विदेशी राज को स्थाई बनाने को कितना भी उचित ठहराए, फिर भी राष्ट्रीय भावना उचित है, कुदरती है। गुलामी पूजने की चीज नहीं है। गुलामी दैवी इच्छा नहीं है। भगवान ने विदेशी राज नहीं भेजा है। हालात ने आजादी की जगह गुलामी थोपी है। जनता को गुलामी की भांग पिलाई जाती है, ताकि उनको गुलामी अच्छी दिखाई दे- ऐसी दवाई आंखों में डाली जाती है, ऐसे सुहावने चश्में लगाए जाते हैं। परन्तु गुलामी की चुभन और आजादी की ललक तो बनी रहती है, नष्ट नहीं होती। संस्कृति की जड़ें नहीं सूखती। समय आने पर हरियाली प्रकट होती है। मैं वकील हूं, खुला बागी नहीं हूं, फिर भी गुलामी की पीड़ा महसूस करता हूं। गुलामी राष्ट्रीय आंख में कुनक जैसा रड़कती रहती है। अंग्रेज राज कितना भी अच्छा हो, भारत की आजादी की जगह नहीं ले सकता है। गुलामी लानत है।
भारत एक राष्ट्र है। भारतीय जनता के साझले हित हैं, साझली भावनाएं हैं। साझली मानसिक तरंगें हैं। मैं लकीर का फकीर नहीं हूं, जिद्दी नहीं हूं। मैं रूढ़िवादी नहीं हूं। मैं मानता हूं कि भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों, जातियों, उपजातियों में आपस में इतना तालमेल व लगाव गुथा हुआ नहीं है जो एक राष्ट्र में होना चाहिए। मगर वह मेल अफसरशाही कानून बनाकर पैदा नहीं कर सकती है। अफसरशाही, तानाशाही है। इसमें जबरदस्ती एवं बाहरीपन का पुट होता है। यह कुदरती मौलिक व्यवस्था नहीं है। आजादी की मित्र नहीं है। आजादी की जगह विदेशी राज नहीं ले सकता है। उलटा हमारी आपसी फूट से लाभ उठाया जाता है और महसूस कराया जाता है कि अंग्रेजी राज न आता और न रहता तो हम सब भारतीय आपस में एक होकर न रहते। शेर और बकरी एक घाट पर साथ-साथ पानी न पीते, परन्तु भारत की विभिन्नता में एकता शुरू से रहती आई है। युगों से सब जातियां, सब मजहब, मत-मतांतर, गांवों में, नगरों में साथ-साथ रहते आए हैं। अब भी रह रहे हैं। राज आए और चले गए, परन्तु गांव बने रहे। ग्राम पंचायतें बनी रहीं। मजहब बदले, परन्तु गांव न बदले। सहिष्णुता बनी रही। सह-अस्तित्व बना रहा। धार्मिक जातिय सद्भावना बनी रही। तभी तो हम जिन्दा रहे। हमलावर आए और लूट-मार करके चले गए। घाव फिर भर गए। मुस्लिम राज आया और चला गया। अंग्रेजी राज आया और है, परन्तु एक दिन यह भी चला जाएगा। भारत आजाद होगा। एक समृद्ध राष्ट्र बनेगा। मजहब रूहानी शांति देंगे। सरकार सबकी होगी, सबके कल्याण के लिए काम करेगी। गुलामी के बाद गरीबी भी खत्म होगी। भारत फिर से सोने की चिड़िया बन जाएगा, फिर जगतगुरु बन जाएगा। भारत विश्व-शांति की गारंटी होगा। अंग्रेजी साम्राज्य का सूर्य अस्त होगा। कितना ही जोर लगा लें, कोई भी नीति अपना लें, भारतवासियों के दिल और दिमाग नहीं जीत सकते। वैसे भी दुनिया में आजादी की लहर चल रही है। कोई देश दूसरे देश को गुलाम नहीं रख सकेगा। लीपापोती नहीं चलेगी। मैं राष्ट्रवादी हूं। जो ठीक समझा, लिख दिया है।
हिन्दू और मुसलमान विदेशी सरकार से घृणा करते हैं। सरकार उन्हें अलग-अलग बांटती है। यह कुटिल चाल है। भारतीय संस्कृति में घृणा का कोई स्थान नहीं है। यह संस्कृति तो आपसी समझ, आपसी प्यार, आपसी विश्वास के व्यवहार पर जमी हुई है। इसकी जड़ें गहरी हैं। जनता कभी दोषी नहीं होती। विदेशी राज सदा दोषी होता है।
आपने वर्तमान स्थिति का जो विश्लेषण किया है, वह सच है और रोचक भी है। सरकार का बुरा हाल है, विचलित है। भारतीय समाज में हलचल है। बेशक सरकार लोकप्रिय बनने के लिए जनता की प्रतिनिधि बनना चाहती है, परन्तु जनता बहकावे व लुभावे में नहीं आ सकती। गुलामी के कड़वेपन को मिठाई नहीं कह सकती। सरकार जनता की वाजिब मांगों को पूरा करने के लिए निपुण व पूर्ण नहीं है। वह जनविरोध को नहीं दबा सकती। जनता को आतंकित नहीं कर सकती। बेशक जनता की आवाज की उपेक्षा की जाए या जनता को रिझाया जाए, अपने साथ लगाने की चेष्टा की जाए, मगर सारी जनता पिट्ठू नहीं बन सकती। गांधी जनता की नब्ज जानता है। इसलिए गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह का रास्ता अपनाया है। यद्य़पि मैंने कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रीय यूनियनिस्ट पार्टी बनाई है और किसानों को संवैधानिक तरीके से कानून बनाकर राहत देता हूं। अपनी राजनीति को साम्प्रदायिकता व जातिवाद से अलग रखता हूं। मैं भी राष्ट्रवादी हूं, जनता की शक्ति में विश्वास रखता हूं। पिट्ठू व पिछलग्गू नहीं हूं, जी-हजूर नहीं हूं। मजहब रहें, जातियां रहें, पार्टियां रहें, अलग-अलग भाषाएं रहें, परन्तु देश तो भारत है, जबकि अंग्रेजी राज की एकमात्र नीति यह भी रही कि फूट डालकर राज करो। इस नीति के बावजहूद भी भारत की एकता अपने-आप मजबूत हुई है। भारत एक राष्ट्र के रूप में उभरा है। कोई भी शक्ति इसे रोक नहीं सकती और अंग्रेज तो समझदार भी हैं, वे 1857 नहीं दोहराने देंगे। स्थिति के अनुसार ढलेंगे। अन्यथा खूनी क्रांति भी हो सकती है।
इसका परिणाम यह है कि व्यवहार में सरकार जनमत की उपेक्षा करती है, सिद्धांत में इसका आदर करती है और जनता को अपने साथ लगाने के लिए जनता को रिझाती है, चापलूसी करती है और सहानुभूति भी दिखाती है। परन्तु जागरूक जनता अंग्रेजी कूटनीति को समझ चुकी है। अब अंग्रेजों के भप्पों में नहीं आ सकती। मैं आपके साथ सहमत हूं कि नैतिक तौर पर सरकार के पास कुछ करने को नहीं है। सरकार में नैतिकता कहां? जनता जान चुकी है कि फिरंगी व्यापारी बनकर आया था और भारतियों की आपसी फूट से लाभ उठाकर भारतीय सिपाहियों की मदद से भी भारत का शासक बन बैठा। 1857 के कटु अनुभव के बाद भी अंग्रेज ने अपनी साम्राज्यवादी नीति व शोषण जारी रखे। बस ऊपर से लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष बने रहे।
यदि सरकार कोई भूल करे, कोई अन्याय कर बैठे तो भूल मान लेनी चाहिए और उसे दूर करे, सुधार लावे। न्याय, सच्चाई और उचित कामों में अपनी नाक (झूठी शान) का सवाल न बनावे। कई बार सरकार गलत नीति अपनाती है। गलत मार्ग पर चलती है। समय पर चेतावनी देने के बावजूद भी सरकार आंख नहीं खोलती। उचित सुझाव नहीं सुनती। तब जनता का विरोध स्वाभाविक हो जाता है। ध्यान से विरोध का कारण जाने बिना सरकार जनता की आावाज दबाने के कदम उठाती है। यदि जनता फिर भी बाज नहीं आती तो सरका आतंकी नीति अपनाती है, जुल्म ढाती है। यह घातक नीति है। गुरु का बाग आंदोलन चला। सरकार की ढुलमुल नीति ने सरकार को बदनाम किया।
इंग्लैंड में लेबर सरकार बनी। भारतीयों की आकांक्षाएं, आशाएं बढ़ी। परन्तु सरकार ने कुछ सुधार न किया। निराशा फैली। पहले जैसी ही साम्राज्यवादी नीति चलती रही। अब किसके सामने रोएं? लेबर पार्टी की संख्या भारी नहीं है। कमजोर लेबर सरकार की तुलना में हम भारतवासी ब्रिटिश पार्लियामेंट में मजबूत होकर विपक्ष को अच्छा समझते हैं।