भारतीय नारियां: चौधरी छोटू राम

चौ. छोटूराम

चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह

बटलर द्वारा पर्दा-प्रथा, शिक्षा एवं सामाजिक जीवन में महिलाओं से भेदभाव पर टिप्पणियों के जवाब में चौधरी छोटू राम ने एक ओर जहां उन्हें भारतीय किसान-नारी के जीवन में व्याप्त सहज उल्लास के आयामों से परिचित कराने का कार्यभार निभाया,  वहीं पर्दा-प्रथा को महिलाओं के स्वास्थ्य, संगठन एवं वैश्विक दृष्टिकोण में कमियों से जोड़ कर देखने की बेबाकी भी दिखायी। चौधरी छोटू राम ने महिलाओं में शिक्षा के अभाव, सामाजिक जीवन में उनकी पुरुष-निर्भरता एवं राजनीति में पिछड़े होने पर निराशा भी व्यक्त की। आज भी परिवारों के भीतर एवं गांवों के समाजों में जिस तरह महिलाओं पर बंधन लादे जाते हैं, चौधरी     छोटू राम का उस दौर में यह कहना कि महिलाओं के पिछड़ेपन के ये आयाम ‘हमारे राष्ट्रीय जीवन के स्वतंत्र बहाव को रोकते हैं’, क्रांति के उद्घोष जैसा लगता है।

जैसा कि आपने लिखा है, भारतीय नारियों का विषय बड़ी सावधानी व संकोच के साथ छेड़ना चाहिए। वास्तव मे यह बड़ा नाजुक एवं संवेदनशील मामला है। अनजान और असावधान लोग वांछित स्तर तक नहीं पहुंच सकते हैं। मैं नारियों के प्रति बड़ा आदर रखता हूं। मैं कोई ऐसी भूल नहीं करूंगा जो नारियों को बुरी लगे। भले ही वे भारतीय नारियां हों या यूरोपियन महिलाएं। सभी नारियां सम्मान की पात्र होती हैं।

पश्चिम में महिलाओं का सामाजिक जीवन, भारतीय नारियों से सर्वथा भिन्न है। वहां महिलाएं स्वतंत्रता पूर्वक घूमती हैं और प्रायः सब सामाजिक सभाओं, उत्सवों, त्यौहारों व पूजा-स्थलों में प्रमुखता से भाग लेती हैं। वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं, बातचीत करती हैं, पुरुषों के साथ बैठकर भोजन करती हैं, खेलती हैं, तैरती तक हैं। कोई संकोच नहीं।बराबर का मित्रों जैसा व्यवहार है। भारत में ऐसा मिलाप व व्यवहार कदापि नहीं है। हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों का तो मुझे निजी अनुभव है। वहां पर्दे व ओहलों का रिवाज है। जो पर्दा नहीं करतीं, वे महिलाएं भी अपने घरों से बाहर पुरुषों के साथ मित्रों को नहीं मिलती-जुलती है। हां, आस-पड़ौस की महिलाओं से खूब मिलती हैं, खूब घुटकर बातचीत करती हैं। पुरुषों की उपस्थिति में तो वे आपस में भी बातें नहीं करती हैं। पुरुषों के साथ मित्रता को तो प्रश्न ही नहीं उठता। घुंघट करती हैं। केवल विशेष संबंध व कम आयु के पुरुषों के सासमने मुंह उघाड़ती हैं, जैसे देवर। यूरोप की महिलाओं को यह जानकर आश्चर्य होगा कि नई-नवेली वधुएं अपने पति से भी पर्दा करती हैं। शालीनता की हद है। शिष्टता का बेजोड़ है। उच्छृंखलता से परहेज है। मौज-मस्ती का नाम नहीं। यहां पर्दे के रिवाज की मैंने कुछ झलक दिखाई है। यूरोप की महिलाएं इसे सनक समझेंगी। यकीन भी शायद न करें, परन्तु यह सत्य तथ्य है।

यह मजेदार बात लगेगी कि पर्दा सिस्टम हमारे यहां बाहर से आया था। मुसलमान हमलावर आए। उनसे भारतीय महिलाओं ने अपने मुखड़े छिपाए और यह विदेशी पौधा देशी बन गया-जम गया। हिन्दुओं और मुसलमान महिलाओं में यह पर्दा सिस्टम मुस्लिम देशों की महिलाओं से भी ज्यादा जड़ जमाए हुए है। मुसलमान आक्रमणकारियों ने भारतीय महिलाओं की लज्जा पर भी आक्रमण किया। वे अपने साथ कम महिलाएं लाए थे। उनसे बचने के लिए पर्दे ने अपनी जड़ें गहरी जमाईं।

परन्तु यह स्थिति सारे भारत में नहीं थी। केवल उत्तरी भारत में हिन्दुओं में और सारे भारत में मुसलमानों में पर्दे की जकड़ है। उत्तरी भारत में भी सभी हिन्दू घोर पर्दा नहीं रखते। कहीं कम है, कहीं ज्यादा। कहीं बिल्कुल नहीं। किसान महिलाएं खेतों में जाती हैं और वहां आजादी से पर्दे की छुट्टी कर देती हैं। अपने पीहर में जहां उनका जन्म हुआ और पली-बढ़ीं, वहां पर्दा बिल्कुल नहीं होता है। अपने गोत्र के पुरुषों से पर्दा बिल्कुल नहीं करती, भले ही वे किसी अन्य गांव में भी रहते हों। जो हिन्दू से मुसलमान बने, उनकी महिलाएं भी अपने गोत्रों का ख्याल रखती हैं। हिन्दू तो शादी करने में अपना, अपनी मां, दादी और नानी तक के गोत्र बचाते हैं। अपने गोत्र के पुरुष सब भाई, चाचा, भतीजे-इसलिए उनसे पर्दे का सवाल ही नहीं उठता।

पर्दा सिस्टम में बुराइयां भी है।। यूरोप में कोई पर्दा नहीं-पूरी आजादी है, परन्तु इस आजादी में भी बुराइयां हैं। यह तुलना का विषय है। पर्दे की घुटन का महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। उनका दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। आपस में मेलजोल न होने पर पारस्परिक सहानुभूति नहीं फलती। सामाजिक दीवारें खड़ी हो जाती हैं। वे आधुनिक युग की उदार हवाओं व स्वस्थ प्रभावों से अलग पड़ जाती हैं। महिला अबला बन जाती है, जहां भी जाती है, अपने पुरुषों से अपनी रक्षा कराती है। भयभीत रहती है, कभी कोई बुरी नजर न पड़ जाए, जो उनका सामजिक जीवन बिगाड़ दे। कदम-कदम पर सावधानी बरती जाती है। इस निर्भयता, भय, शंका और बचकाने व्यवहार का हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है। नैतिक और शारीरिक हालत कमजोर पड़ती है। पूर्वाग्रह, पूर्व धारणाएं, अंधविश्वास, पक्षपात, भ्रम, संदेह, घृणा और अजनबीपना पलते हैं जो हमारे राष्ट्रीय जीवन के स्वतंत्र बहाव को रोकते हैं और सामाजिक सुधारों को कुचलते हैं।

परन्तु यह मत समझना कि इस पर्दे के कारण भारतीय महिलाएं यूरोपियन महिलाओं से कम खुश हैं। यह भ्रम है। भारतीय नारी दुनिया की किसी भी नारी से कम खुश नहीं है। पर्दे के पीछे उनके चेहरे खिलते हैं, वे गप्पें हांकती हैं, हंसती हैं, गाती हैं, नाचती तक हैं, जैसे यूरोप में महिलाएं सामाजिक सभाओं, बागों, पार्कों में आनंद लेती हैं-आजादी से विचरती हैं। भारत में धार्मिक त्यौहारों, विवाहों के अवसरों पर भारतीय महिलाएं सुंदर, चमकदार वस्त्र पहनती हैं, जेवरों से लदती हैं, सावन में पेड़ों पर झूले डालकर खुलकर झूलती हैं, पींग बढ़ाकर टहनियों के पत्ते तोड़कर सास की नाक काटती हैं, हंसती हैं, खिलती हैं, मचलती हैं। उन नई वधुओं की ननदें अपनी भावजों के साथ हिल-मिल जाती हैं। फागुन में तो चांद के प्यारे प्रकाश में छोटी-बड़ी सब नाचती हैं-बुढ़ियां भी सिवासन बन जाती हैं। क्या मस्ती है! क्या आजादी है! क्या प्रकृति की गोद में बच्चों की तरह मासूम जीवन है! न कोई वासना, न कोई भद्दा व्यवहार। सच्चा श्रृंगार, खुला लोक जीवन। लोक संस्कृति, लोक संगीत, लोक प्रफुल्लता। पर्दे की घुटन यहां खत्म। आनंद ही आनंद। घरों में रौनक, मधुर मिलन, संयुक्त कुटुम्ब का लाभ। एक-दूसरे से प्रेम, आपसी समझ व बूझ, आपसी नेग। पवित्र जीवन है। न छल, न कपट, न लम्पटता, न खटपट। श्रृंगार की भरमार, सौंदर्य का साम्राज्य। पति-पत्नी का एक जी, माता-पिता का आर्शीवाद, भाई-बहन का प्यार, छोटे-बड़े का नेग, घर स्वर्ग-समान। समता, विनम्रता, कृतज्ञता, गुणवत्ता, पवित्रता, एकता, मानवता, श्रद्धा, उदारता, सहिष्णुता, सद्भावना, प्रफुल्लता, मधुरता, आध्यात्मिकता, सहृदयता आदि। यूरोप की मिली-जुली सभाओं, पिकनिकों, होटलों में नृत्य और अन्य खुली आजादियों इन भारतीय महिलाओं के इस लोक आनंद के सामने फीकी पड़ जाती हैं।

आजादी से मिलने-जुलने की बात को लीजिए। निःसंदेह इसके अनेक लाभ हैं, परन्तु हानियां भी हैं। लिंगभेद है। कामुकता है। आपसी आकर्षण। सिहरन है। मीठी चुभन है। सभाओं में अपने ढंग का आनंद है।, मजा है, सुहावनापन व लुभावनापन है। यह यूरोप की सभ्यता का अटूट अंग है। महिलाओं की जादी, भ्रमण, चित्र-चयन और चुम्बन पर किसी प्रकार की रोक लगाना बर्बरता, जंगलीपन, उज्जड़पन-सा लगेगा। सहभोज, सहनृत्य, वाल्ज और चमकीले परिधान में नगर सहभ्रमण, चाय पार्टियां, लानटेनिस आदि खेल, सैर-सपाटे, मनोरंजन, समाोह, नौका-सैर, तैराकी, ये सब जीने की चाह को तेज करते हें-समय की मांग को पूरा करते प्रतीत होते हैं। क्या यह सब रंगरेलियां, मजे की झलकियां, आधुनिक परियां, आलिंगन, चुंबन, भटकन आदि मासूम खुशियों में बढ़ौतरी करती हैं? यह सब प्रेमलीला है, वासनाओं का प्रणय खेल है। प्रेम विवाह हो जाते हैं। गृह-क्लेश अंकुरित होता है। झगड़े होते हैं, तलाक होते हैं। बच्चे तक बांटे जाते हैं। ये सब सुलभताएं, सुविधाएं, आनंद-गाहें कड़वी, तीखी, महंगी, तनावपूर्ण और जहरीली बन जाती हैं। जीवन नरक बन जाता है। प्रेमी आत्महत्या तक करते हैं। शैतान अपना शैतानी खेल खेलता है। जीवन के असली आनंद की हत्या कर देता है। कहां तक लिखूं, अपने-अपने सवाल हैं, अपनी-अपनी समस्याएं हैं, अपने-अपने जवाब हैं, अपने-अपने हल हैं।

आपने पर्दे के पीछे अपराधों पर अपना आश्चर्य दिखाया। हां, अपराध होते हैं, बुराई कहीं भी घुस जाती है। पर्दे के पीछे जो गजब ढाती है। नजर नहीं आती, रोकी नहीं जा सकती। मैं पर्दे का प्रशंसक नहीं हूं, मगर मैं यूरोप वाली खुली आजादी का भी प्रशंसक नहीं हूं। कठोर सत्य यह है कि नैतिकता और पवित्रता के हित में पश्चिम की बेलगाम आजादी से भारतीय संस्कृति कहीं बेहतर है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं कट्टर घोर पर्दा-प्रथा के खिलाफ हूं। मगर मैं पश्चिमवाली खुली आजादी के हक में भी नहीं हूं। उत्तरी भारत की किसान महिलाओं को जितनी आजादी है, मेरी समझ में वह सबसे ठीक है-लज्जा का पर्दा-चरित्र की ढाल। सब कुछ उचित सीमा में। जीवन की विवेक-नदी बहती है-अमन है, संतुलन है, किसान महिला अपने कामों में मगन है, उसका जीवन परिवार हित में, मानवहित में समर्पित है। वह सेवा की मूर्ति है और खुद भी सेवा-नदी में तैरती है। यही किसान संस्कृति है-यही मातृशक्ति है, यही देशभक्ति है-यही शैतानी कामवासना से मुक्ति है। तभी तो किसान महिला एक हस्ती है, पश्चिम की महिलाओं के लिए भी एक आदर्श है।

आपने चुम्बन-बोसन की बात लिखी। भारत में कोई व्यस्क दूसरे व्यसक पुरुष/महिला का चुम्बन नहीं लेता। पति-पत्नी भी एकांत में ही चुम्बन कर सकते हैं। घर में माता-पिता बच्चों का चुम्बन कर सकते हैं। बाहर चुम्बन करना बुरा, भद्दा, नंगा और भौंडा समझा जाता है।

भारतीय महिलाओं की स्थिति उनकी हरकतों पर पाबंदियों से नहीं आंकी जा सकती। घर में उनका मान होता है-सब सामाजिक मामलों में उनकी आवाज शामिल होती है। चलते आए रिवाज को तोड़ा नहीं जा सकता। समय की मांग के अनुसार समझदारी से बदला जा सकता है।

राजनीति में महिलाओं की कोई रुचि नहीं है। हां, राजनीति में मजहबी गुट उन्हें आकर्षित करता है। आपने जिक्र किया कि बंग-भंग आंदोलन (1905) एवं वर्तमान राष्ट्रीय अहसयोग आंदोलन में महिलाओं ने भाग लिया है। बंग-भंग को मजहबी पुट दिया गया। महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन का आलिंगन किया और राजनीति को आध्यात्मिक प्लेटफार्म पर टिका दिया। यही कारण है कि जिसने महिलाओं को घरों से, पर्दे से, बाहर राजनीति में झोंक दिया।

आपने महिला शिक्षा को भी स्पर्श किया है। यह खुला भेद है कि भारतीय महिलाएं पूरे अंधकार में हैं, निरक्षर हैं-हजारों में एक-दो ही पढ़ी-लिखी मिलेंगी। हिन्दुओं में महिला शिक्षा के खिलाफ पक्षपात खत्म हो रहा है और मुसलमानों में भी धीरे-धीरे शिक्षा फैलने लगी है। महिला शिक्षकों की कमी है। धन की भी कमी है। मुझे आशा है सब रुकावटें, बाधाएं और भेदभाव अपने-आप समय के साथ दूर होंगे और भारतीय महिलाएं अपने पतियों और भाइयों के साथ सामाजिक, नैतिक, शैक्षणिक तथा राजनीतिक तरक्की के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ेंगी।

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