किसान की कराहट – चौधरी छोटू राम

चौ. छोटूराम

चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह

ऐ मालिक दो जहान! सब्बुआलमीन! मेरे खलीक। मेरे मौला! हे परमात्मा परमेश्वर, सृष्टि के सृजनहार, सर्वशक्तिमान! हे वाहेगुरु! मैंने वह कौन-सा पाप-गुनाह किया है, जिसकी सजा के तौर पर हर समय मुसीबत की कैद में पड़ा रहता हूं? मेरा वह कौन-सा दोष है जो मैं अपने-आपको सदा कष्टों की जंजीर में बंधा पाता हूं? मेरा कसूर तो बता जिसके बदले में मेरे जीवन के आकाश पर हर क्षण मुसीबत की घटाएं छाई रहती हैं। आखिर मुझे भी तो मालूम हो कि कौन सी खता मेरी आफतों के सिलसिले का कारण है। मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है कि बारह महीने किसी न किसी आपत्ति में फंसा रहता हूं। मेरे कौनन से वे दुष्कर्म हैं जिनका मैं दंड भोग रहा हूं? ऐसा क्या प्रारब्ध है कि आठों पहर चैंसठ घड़ी कोई न कोई कष्ट मेरे गले का हार बना रहता है।

ग्मे आलम फरदां अ स्त व मन यक गुंचः ऐ दिल दारम

(सारे दुखों के सामने मेरे दिल का पुष्प अकेला है।)

कहां ये बेचारे किसान की नन्हीं सी जान और कहां रंग-बिरंगे लूटने वालों का यह अजदहा! जिधर देखता हूं शत्रु ही शत्रु दिखाई देते हैं। मेरी जान एक अजीब भंवर में फंस गई है। इंसान दुश्मन, हैवान दुश्मन। चांद दुश्मन, परंद दुश्मन, कुदरत की ताकतें दुश्मन, साहूकार दुश्मन, पराए दुश्मन। और मेरा कुफर माफ, मेरा मौला भी दुश्मन! कहा जाऊं?  इस जान को कहां छिपाऊं? किससे अमान मांगूं? किससे पनाह, हिफाजत सुरक्षा पाऊं?

सतगुरु सच्चे पातशाह! मैं नेकनीयत हूं, नेक जीवन व्यतीत करता हूं। नेक स्वभाव वाला हूं, नेक चलन हूं, ईमानदार हूं। अपनी कमाई का खाता हूं। दूसरे की दौलत को मिट्टी के समान समझता हूं। चोरी नहीं करता, रिश्वत नहीं लेता, कम देकर अधिक नहीं लिखता, आए को आया मान लेता हूं। सूद दर सूद से आदमी का गला नहीं घोंटता। कम नहीं नापता, अपने घर से कम नहीं तोलता, दूसरे के घर से ज्यादा तोल कर नहीं लाता। गरीबों का पेट काटकर कोई कर वसूल नहीं करता। फिर क्यों मुझ पर यह निराला जुल्म है? और लोग पाप करते नजर आते हैं, और फिर भी राहत और समृद्धि उनके घरों में लौंडी बनी फिरती है। दूसरे लोग पाप करते देखने में आते हैं। मैं सुबह से सायं तक खेत में काम करता हूं। घर लौटकर सोने के समय से पहले तक पशुओं की सेवा में व्यस्त रहता हूं। बहुत सवेरे उठता हूं। फावड़े से पशुओं कबे ठान से गोबर को हटाता हूं। पशुओं को चारा डालकर भैंस का दूध निकालता हूं। बैलों को तैयार करके फिर बैलों की राह लेता हूं। जेठ-आषाढ़ की धूप सहता हूं। सावन-भादो की दहम को भुगतता हूं। ऐड़ी से चोटी तक पसीने से तर रहता हूं। माह पौह के कड़ाके की सर्दी झेलता हूं। सर्दी, गर्मी, बरसात, धूप सब मेरे सिर से गुजरती है। अंधेरे उजाले में बिना डर फिरता हूं, चाहे कांटे लगें, भूंड चिपट जाए। चाहे बिच्छु काटे, चाहे सांप डंसे, परन्तु अपन काम में भंभीरी बना रहता हूं। फिर भी मुझे मोटे से मोटा कपड़ा और मोटे से मोटा खाना मिलने की आशा व विश्वास नहीं। साहूकार का कर्जा उतरने में नहीं आता। सरकार का मुतालबा समय पर देना कठिन हो जाता है। यह माजरा क्या है? मेरा घर आपत्तियों का अतिथि गृह है। ये बिन बुलाए अतिथि मेरे घर काबिज रहते हैं। जिन आपत्तियों का मैं शिकार हूं, कभी मुसलाधार वर्षा मेरी खेती को नष्ट कर देती है, कभी देर से बरसता है, जिससे ठीक समय रूप कजाई नहीं कर सकता। कभी समय पर वर्षा हुई, अच्छी हुई, सब फसलें बोई गई। लेकिन गायब हुई तो ऐसी हुई कि बीच में बादल के दर्शन नहीं हुए और फसलें सूखकर तबाह व बरबाद हो गई। कभी पकी-पकाई फसल पर ऐसा बरसता है कि सब अनाज बरबाद व बरबाद हो जाता है। कभी तेज पिछवा हवा सारी खेती को सुखा देती है। कभी लंबी पिरवा हवा चलकर खेती में कीड़ा लगा देती है और फल-फूल आनो नहीं देती है। कभी ओले पड़ते हैं और मेरी फसल पर तबाही लाते हैं। कभी पाला पड़ता है और मेरी पाली-पोसी फसल पर हाथ साफ करता है। कभी आंधी आई और रेत बरसा गई और मेरी 6 महीनों की कमाई को खाक में मिला गई। चने का फूल मर गया और गेहूं की बालियों में दाना न पड़ा। कभी टिड्डी आती हैं और खड़ी फसल को चट कर जाती हैं। कभी मेरे बुरे भाग्य से कातरा पैदा हो जाता है। देखने में छोटा सा कीड़ा है लेकिन ऐसा बलानोश है कि मेरी खेती में कुछ बाकी नहीं छोड़ता। और तो और जमीन के अंदर रहने वाला छोटा सा चूहा मेेरे लिए एक भयानक शत्रु है। ऐसा लश्कर लाता है और मेरी फसल पर ऐसी चढ़ाई करता है कि मेरा भाग्य और मेरी खेती सब एक साथ ढह जाती है। हे ईश्वर! क्या करूं? इस संकट से निकलने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इस नन्हीं सी जान को कहां छुपाऊं? जमीन के पेट में शत्रु पैदा होते है, जमीन के सीने से दुश्मन पैदा होते हैं, फिजा से शत्रु पैदा होते हैं, हवा से दुश्मन पैदा होते हैं। पानी से दुश्मन पैदा होते है। ऐसे बेपनाह दुश्मनों से बचने या छुपने के लिए जगह कहां से लाऊं?

लेकिन कुदरत की ताकतों को छोड़ दीजिए। पशु-पक्षी व कीड़ों को जाने दीजिए। इनको कोई ज्ञान नहीं। ये मेरी मुसीबत को नहीं जानते, मेरे दुख को नहीं पहचानते। हजरत इंसान को लीजिए। यह मेरे साथ कैसे व्यवहार करता है? सर्वप्रथम मेरे साहूकार को लीजिए। मैं इनका जर-खरीद गुलाम हूं। खूब कमाता हूं। लहू पसीना एक कर देता हूं। हर छह महीने हर फसल की पैदावार अपने साहूकार की भेंट कर देता हूं। वह अपने काम का बड़ा माहिर है। मेरी चीज को तोलता है, मेरी आंखों में धूल डालता है। चालीस सेर की जगह चैवालीस सेर ले जाता है। बाजार भाव से सस्ते दाम लगाता है। जब इसकी दुकान से कोई चीज लाता हूं, तो चालीस की जगह अड़तीस सेर तोलता है। बाजार के भाव से महंगा भाव लगाता है। मेरी खूब लुटाई होती है। मैं जानता हूं, परन्तु कुछ नहीं कर सकता। एक बार कर्ज में फंस गया। इस दलदल से निकलना कठिन है। बड़ों के जमाने से कर्ज की दलदल मेरे घर में पक्का लगा है सूद या सूद का सूद या इसका दुगना दिया, चैगुना दिय, मगर साहूकार की बही में आंक मेरे जिम्मे खड़े का खड़ा रहा। ऐ साहूकार! तू बड़ा निर्दयी है। छटे महीने मेरी सारी कमाई को समा ले जाता है। तेरी बदौलत मुझे कपड़े नसीब नहीं। मेरी बदौलत नन्हें-नन्हें बच्चे दुनिया की मामूली चीजों को भी तरसते हैं। तीज त्यौहार के दिन भी उन्हें अच्छा खाना नसीब नहीं होता। जो तेरे हाथों मुझ पर बीतती है। अगर वह किसी दूसरों के हाथों तुझ पर बीते, तो तुझे पता लगे कि तू मेरे साथ कैसा जुल्म कर रहा है। आखिर तेरे लालच की कोई सीमा भी तो होनी चाहिए। भूल से कई गुना तो तू ब्याज में वसूल कर चुका और ब्याज अब भी बचा हुआ बताया जा रहा है। मेरे पास जान के सिवा कुछ बाकी नहीं। क्या इसको भी बख्शना नहीं चाहता?

लेकिन मेरे साथ सिर्फ एक साहूकार ही क्रूर व्यवहार नहीं करता। और हजरात भी ऐसे ही सलूक से मेरी दिलदारी करते हैं। पटवारी को लीजिए। पड़ोसी है। तेरी गाय को मेरा बच्चा अपने डंगरों के साथ दिन भर चराता है। सायं इसके घर छोड़ आता है। चूरी, तूड़ी, ईंधन, पानी, गल्ला, फसलाना, भेंट आदि देकर हालात के अनुसार किसी न किसी रूप में अपने भरोसे को प्रकट करता रहता हूं और अपनी शक्ति के अनुसार इसकी सेवा से आंख नहीं चुराता। लेकिन जब कभी इससे काम पड़ जाता है तो खूब ऐंठ कर रिश्वत लेता है। एक ही बार में ऐसा कचूमर बना देता है कि फिर होश में आना कठिन हो जाता है। मेरी फसल बिल्कुल बरबाद हो जाती है। रुपए में चवन्नी भर भी बाकी नहीं रहती। आबियाना भी अदा करना पड़ता है और मामला भी देना पड़ता है। पास पैसा नहीं, घर में कोई चीज बिकाऊ नहीं और अगर है तो खरीदार नहीं। सरकारी मुतालबा निश्चित तिथि पर अदा करना पड़ता है। मींह टल जाए मगर मुतालबा नहीं टल सकता। मौत टल जाए, मगर मुतालबा तो देना ही पड़ता है। लाचार साहूकार के पास जाता हूं, वह पचास के सौ लिखता हहै और कहकर लिखता है। मगर मैं विवश हूं। अंगूठा टेक देता हूं और सदा के लिए अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और अपनी संतान की कमाई साहूकार के यहां गिरवी कर देता हूं।

गांव में धड़ाबंदी है। मेरे एक गैर आबाद ओर असुरक्षित सहन में मेरा कोई शत्रु चोरी-छिपके एक टूटी-फूटी बंदूक रख देता है और खुद ही पुलिस में सूचना दे देता है। प्रातः ही पुलिस आ धमकती है। तलाशी लेती है, परन्तु थानेदार इसको मेरे जिम्मे थोंप देता है। अपशब्द बोलता है। बुरा व्यवहार करता है। डराता है, धमकी देता है। नंबर दस में नाम दर्ज कराने का डरावा दिखाता है, जबकि नंबर दस के बदमाश तफतीश में इसके साथ शामिल हैं। नंबरदार, सफेदपोश और जैलदार भी उपस्थित हैं। इनमें से कोई न कोई थानेदार का दलाल है। सब मुझे यही सलाह देते हैं कि ले-दे के पीछा छुड़ा ले। थानेदार बात का बड़ा पक्का है। वह जो वचन देगा, उससे नहीं फिरेगा। मैं अकेला और इतने भूत मेरे पीछे पड़े हुए हैं। अंत मेंं तंग आकर उनकी सलाह स्वीकार लेता हूं। थानेदार इकरार करता है कि तू न्यायालय में जाकर छूट जाएगा। इस प्रकार जबर और जोर के नीचे थानेदार की भेंट पूजा करनी पड़ती है, लेकिन घर में तो चूहे कलाबाजियां खा रहे हैं। इसलिए साहूकार से गर्दन कटवानी पड़ी। उससे कर्ज लिया। थानेदार यह सब कुछ जानता था। लेकिन मूंजी जालिम को तनिक भी दया न आई। ऐ थानेदार! ऐ निर्दयी थानेदार! क्या तू पढ़ा-लिखा और एक जिम्मेदार अफसर होता हुआ यह न समझा कि तूरे एक खानदान को पीढ़ियों के लिए साहूकार का बेकौड़ी का गुलाम बना दिया?

साहूकार को जाने दीजिए। आखिर वह दूसरी कौम का है। पटवारी को भी छोड़िए। आखिर वह दूसरे इलाके का रहने वाला है। थानेदार से भी दृष्टि हटाइए, क्योंकि वह भी दूर के नगर का निवासी है और सरकार का नौकर है। इसको मुझसे क्या सहानुभूति और क्या प्यार हो सकता है? लेकिन इस बात का क्या इलाज है कि मेरे भाई भी मेरी जड़ काटता है? जालिम भाई किसी प्रमाण पत्र का इच्छुक है या जागीर का मंगता है? कोई पदवी खिताब चाहता है या मुरब्बों का भूखा है या अपने किसी प्रियजन के लिए रोजगार प्राप्त करने की तड़प रखता है। सूखे से, बाढ़ से, ओले से, पाले से, चूहे से, टिड्डी से फसल को कितनी ही हानि हो, वह व्यक्ति वफादारी के जायके से इतना मजबूर है कि मेरी हानि को छुपाता है। असल को बहुत कम प्रकट करके बयान करता है। मैं कितनी ही पीड़ित और जर्जरित अवस्था में हूं परन्तु इस गुलाम के इस चाव से भरे इस बंदे के मुंह से यही शब्द निकलते हैं ‘हुजूर के इकबाल से सब ठीक है।’ सरकार रिआयत करने को तैयार हो, लेकिन ये स्वार्थी और नफ्स-परस्त बंदा सरकार से ज्यादा सरकार का शुभचिंतक है। यही कहता है कि अगर सरकार रिआयत करे तो इनकी इनायत है, कृपा है, लेकिन रिआयत जरूरी नहीं। अब बताइए क्या शिकायत करूं क्या फरियाद करूं? किससे शिकायत करूं? कहां जाऊं। कैसे जीऊं?

इस घर को आग लग गई घर के चिराग से।

दूसरे से क्या गिला जब स्वयं अपने दूसरों से अधिक निर्दयता दिखलाएं? दूसरों से क्या शिकायत जब स्वयं अपने परायों से अधिक दुख के कारण बन जाएं?

मन अज बेगानगां हरगिज न नालम।

कि बामन हरचे करदे आं आशना करद।।

(मैं दूसरों के विरुद्ध शिकायत नहीं करता, क्योंकि मेरे अपने भाई ही मुझ पर अत्याचार कर रहे हैं।)

अंत में सरकार को लीजिए। मेरे मालिक! मेरी जान व माल की मालिक सरकार! मेरी वफादारी में कलाम नहीं। मेरी सेवा में संदेह की गुंजाइश नहीं। युद्ध के समय, मैं इसका सैनिक, शांति के समय मैं इसका कमाऊ पूत! फ्रांस में  लड़ा, फलांडर्ज में लड़ा, दरे दानियाल में लड़ा, गोलीपोली में लड़ा, दक्षिण अफ्रीका में लड़ा। जहां गया, कदम पीछे नहीं हटाया। अपने खून से जमीन लाल कर दी। युद्ध समाप्त हुआ। तलवार उठाकर रख दी और हल, फाली और दरांती से दोस्ती लगाई। अटूट धन से सरकार के खजहाने को भरा रखता हूं। परन्तु सरकार मेरे साथ निराली बेरुखी और उदासीनता का व्यवहार करती है। मालगुजारी का गला-सड़ा पुराना तरीका छाती पर लगाए बैठी है। कहती है कि जमीन सरकार की है और किसान जमीन के प्रत्येक इंजज पर मामला देने का जिम्मेदार है। इससे मेरी रोटी पर कर लग गया है। दूसरों की रोटी माफ है। मेरी रोटी भी मामले से मुक्त नहीं कर दी गई। अपने परिश्रम और अपने रुपए से कुआं बनाता हूं। सरकार नाल चाह लगा देती है। कहां तक बखानूं। प्रांत के करों का अधिकतर भार मेरे दुर्बल कंधों पर लाद दिया है। इस पर भी संतोष नहीं। शाकिर था, परन्तु शिकायत का एक शब्द भी जबान पर नहीं लाता था। परन्तु अब उत्पादन की कमी और कीमतों के बढ़न से निढाल हो चुका हूं। बच्चे भूखे मरते हैं। अब जरा सी ठेस को भी सहन करने की इच्छा शक्ति नहीं बची है। परन्तु सरकार को भी अभी तक यह विश्वास नहीं कि मेेरे सारे साधन जवाब दे चुके हैं। असल में तो अब हालात ऐसे हो गए हैं कि किसी न किसी कारण से प्रत्येक फसल पर रिआयत की प्रार्थना करनी पड़ती है। परन्तु सिद्ध कहावत है कि हाकिम की आंखें नहीं होती, कान होते हैं और इन कानों तक शिकायत पहुंचने की मुझमें शक्ति नहीं। जबान खोलता शर्माता हूं, डरता हूं।

यही नहीं। सरकार मुझसे रुपया वसूल करती है। फिर इस रुपए से शहरवालों के लिए अस्पताल, सड़कें, मदरसे, कालेज, बाग, पार्क, पानी के नल, नालियां और बदरोएं आदि आधुनिक युग की तमाम सुख की वस्तुएं प्रदान करती हैं। सरकार मुझे भूल जाती है।

सरकारी नौकरी के विभागों में मुझे अक्सर बड़ा बेरुखा जवाब मिलता है। कोई स्थान रिक्त होता है या कहीं जगह खाली होती है तो मुझे कानों कान पता नहीं लगता। सिफारिश करने वाले अफसरों तक मेरी पहुंच नहीं। पेट पट्टी बांधकर अजीज को पढ़ाता हूं। लेकिन जब नौकरी का समय आता है तो मेरा अजीज मुंह ताकता रह जाता है और किसी लाला का लड़का नौकरी पर नियुक्त कर दिया जाता है। सरकार ने मेरी रिआयत के लिए एक विशेष प्रस्ताव पास भी किया है। परन्तु चंद विभागों को छोड़कर बाकी विभागों में अनगिनत लोगों की हथफेरियां के कारण इस पर उमिल अमल दरआमद नहीं होता। मैं जब इस मामले में सरकार से शिकायत करता हूं तो सरकार बुरा मानती है। यह समझती है कि यह शिकायत सरकारी अफसरों की नेकनीयती, सतर्कता तथा सावधानी पर एक प्रकार का आक्रमण है। खैर! मेरा तात्पर्य किसी अफसर की नेकनीयती और जागरूकता पर हो या न हो, मगर मेरी भोली सरकार ने यह कैसे समझ लिया कि इसके सारे अफसरान देवता या फरिश्ते हैं?

ऐ जुलजलाल तेजवन्त महामान्य, प्रभु! मैं बिल्कुल बेयार और बेसहाय हूं। दुश्मनों से चारों ओर से घिरा हुआ हूं। हरदम और हम के साथी कोई नहीं देता। दरिद्रता, भुखमरी और ऋण के घावों से निढाल हूं। दिनभर कठोर परिश्रम करता हूं, फिर भी शाम को पेट भर सूखा टुकड़ा खाने के लिए मिल जाने की तसल्ली नहीं। तो बता क्या मेरी जिंदगी से मौत अच्छी नहीं? बहुत दुखी हूं। मैं इतना दुखी और मायूस हूं कि कभी तेरी आस्था में तेरे रहम में और तेरे न्याय में संदेह होने लगता है, लेकिन फिर अंदर से यही आवाज आती है कि ‘घबरा मत! मलिक के घर देर तो है, लेकिन अंधेर नहीं। उठ संभल, काम कर!’ इस आवाज के सामने सिर झुकाता हूं। दिल दर्द की आवाज से मुझे चेतावनी दे चुका। मुतलक जुल सजानी को आगाह कर चुका। यह अपनी गम की आवाज अपने प्यारे-प्यारों और दूसरों को, सबको सुना चुका। अब तेरे भरोसे पर फिर सर गरमे अमल होता हूं। मेरी सरगरमी ओर मेरे अमल में अपने फैज से बरदत दे। मुझ पर दया कर।

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Author: सर छोटू राम

जन्म: 24 नवम्बर 1881, दिल्ली-रोहतक मार्ग पर गांव गढ़ी-सांपला, रोहतक (हरियाणा-तत्कालीन पंजाब सूबा) में       चौधरी सुखीराम एवं श्रीमती सिरयां देवी के घर। 1893 में झज्जर के गांव खेड़ी जट में चौधरी नान्हा राम की सुपुत्राी ज्ञानो देवी से 5 जून को बाल विवाह। शिक्षा: प्राइमरी सांपला से 1895 में झज्जर से 1899 में, मैट्रिक, एफए, बीए सेन्ट स्टीफेन कॉलेज दिल्ली से 1899-1905। कालाकांकर में राजा के पास नौकरी 1905-1909। आगरा से वकालत 1911, जाट स्कूल रोहतक की स्थापना 1913, जाट गजहट (उर्दू साप्ताहिक) 1916, रोहतक जिला कांग्र्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष 1916-1920, सर फजले हुसैन के साथ नेशनल यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदार लोग) की स्थापना 1923, डायरकी में मंत्राी 1924-1926, लेजिस्लेटिव काउंसिल में विरोधी दल के नेता 1926-1935 व अध्यक्ष 1936, सर की उपाधि 1937, प्रोविन्सियल अटॉनमी में मंत्री 1937-1945, किसानों द्वारा रहबरे आजम की उपाधि से 6 अप्रैल 1944 को विभूषित, भाखड़ा बांध योजना पर हस्ताक्षर 8 जनवरी 1945। निधन: शक्ति भवन (निवास), लाहौर-9 जनवरी 1945। 1923 से 1944 के बीच किसानों के हित में कर्जा बिल, मंडी बिल, बेनामी एक्ट आदि सुनहरे कानूनों के बनाने में प्रमुख भूमिका। 1944 में मोहम्मद अली जिन्ना की पंजाब में साम्प्रदायिक घुसपैठ से भरपूर टक्कर। एक मार्च 1942 को अपनी हीरक जयंती पर उन्होंने घोषणा की-‘मैं मजहब को राजनीति से दूर करके शोषित किसान वर्ग और उपेक्षित ग्रामीण समाज कीसेवा में अपना जीवन खपा रहा हूं।’ भारत विभाजन के घोर विरोधी रहे। 15 अगस्त 1944 को विभाजन के राजाजी फॉर्मुले के खिलाफ गांधी जी को ऐतिहासिक पत्र लिखा।

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