चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह
अब तक मैंने अपने मन में भाते विषयों पर जो कुछ निवेदन किया है इससे पाठकों ने भली-भांति समझ लिया होगा कि किसान सैंकड़ों वर्षों से हर तरफ से तरह-तरह के जुल्मों का शिकार रहा है। लेकिन इसने अपनी अनोखी आचार संहिता से हताश होकर अपने साथ हुए अत्याचारों व जुल्मों का भी जिक्र तक नहीं किया और न उन क्रूरताओं के खिलाफ शिकायत करने का ख्याल दिल में आया। उसके एशियाई ख्याल से प्रीत की यही रीत ठीक है कि होंठों पर खामोशी की मोहर लगी रहे और दिलों में याद का सिलसिला कायम रहे। उसके विचार में गिला-गुजारी, शिकायत नाला-फरियाद न सिर्फ आचार-संहिता का स्पष्ट उल्लंघन है, बल्कि प्रेम-भावना के आरंभिक सिद्धांतों का निरादर भी है। क्या भोला बंदा है! अरे मासूमियत की पोट! जब से पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव हुआ, वफा की जिन्स लद गई, सदाचार तो नाम मात्र का भी नहीं रहा। शुद्ध प्यार दुनिया से जलावतन हो गया। आईने वफा उलट गया। निजामे इश्क दरहम वरहम हो चुका, बिखर गया। आचार-संहिता के सच्चे प्रेम की पुरानी किताबों को बलाए ताक रख दे। खूंटियों पर टांग दे-कुर्ड़ियों पर फेंक दे।
अब इन विषयों पर नई पुस्तकें छप गई हैं। इन पुस्तकों को पढ़। शायद पहले ही चंद पृष्ठों से पता लग जाएगा कि जहां पहले खामोशी का पाठ था, वहां अब शोरों गुल की शिक्षा है। जहां पहले खुद फरोशी का पद नामा था, वहां अब खुदनुमाई और खुदसताई यानि अपनी प्रशंसा आप करने की शिक्षा है।
आमदम बर सरे मतलब। मुख्य उद्देश्य की बात बताता हूं। यह तो पाठकों ने अच्छी तरह देख और समझ लिया होगा कि सरकारी टैक्सों के लिए किसान एक लट्टू ऊंट का काम देता है। जो पुराना बोझ था, वह भी इसकी पीठ पर चला आता है। हुकूमत के प्रबंध को चलाने के लिए जब भी नए बोझ लादने पड़ते हैं, तो वे भी इसकी पीठ पर लाद दिए जाते हैं, क्योंकि यह लदने से इन्कार कना नहीं जानता, कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता कि आखिर यह ऊंट कहां तक बोझ सहन कर सकता है। कभी न कभी इस की कमर टूट जाएगी। कभी न कभी इस का ढ़ोढा बैठ जावेगा।
यह तो टैक्सों का बुरा हाल हुआ। लेकिन जब इन टैक्सों से प्राप्त रुपए के खर्च का प्रश्न आता है, तो हमारी सरकार का अधिकार-पहचान और न्यायप्रियता को देखिए। आमतौर पर किसान-आबादी देहात में बसती है और नगरों की जनसंख्या का अधिक भाग गैर-जमींदार है। इसलिए यह कहना दुरुस्त होगा कि जो रुपया देहात में खर्च होता है, वह किसान के लिए खर्च होता है। यदि रुपए के खर्च को इस कसौटी पर रखा जावे तो यह मानना पड़ेगा कि गरीब किसान किसी गिनती में नहीं। सवाल के इस पक्ष को मैं जरा विस्तार के साथ बताना चाहता हूं।
यदि कोडी-कोडी का हिसाब रखा जाए तो जहां नगरों में प्रति व्यक्ति एक रुपया खर्च होता है। वहां देहात में एक दो पैसे खर्च होते होंगे। जहां नगरों में वार्षिक आय का एक रुपया खर्च होता होगा, वहां देहात में मुश्किल से चार छै पैसे खर्च होते होंगे। वसूली के समय किसानों की जेब से नब्बे प्रतिशत के दरम्यान टैक्स वसूल किया जाता है। खर्च के समय दस प्रतिशत बमुश्किल किसानों पर खर्च होगा। वसूली के समय गैर-जमींदारों पर दस-पंद्रह फीसदी का बोझ पड़ता हो तो पड़ता हो। खर्च के समय नब्बे प्रतिशत तक गैर-जमींदारों की नजर हो जाता है। देहात पर टैक्स का बोझ नब्बे प्रतिशत लेकिन टैक्स का मुआवजा दस फीसदी। शहरों पर टैक्स का भार दस फीसदी लेकिन उन पर खर्च नब्बे फीसदी!
जब तक इसकी विस्तारपूर्वक व्याख्या नहीं की जावेगी, शायद लोग मेरे भाव को पूरी तरह न समझ सकें। इसलिए मैं उचित समझता हूं कि पंजाब प्रांत के खर्चों का हवाला भी दे दूं। हमारे प्र्रांत का रुपया कहां-कहां खर्च होता है? सड़कों पर, कालेज-मदरसों पर अस्पतालों पर, स्वास्थ्य रक्षा के कामों पर भवन निर्माण पर सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहों और पेंशनों पर।
जरा सड़क की मद को लीजिए। देहात में कितनी सड़कें हैं? और वे कैसी हालत में हैं? औसतन मुश्किल से दस-बीस गांवों में से एक गांव डिस्ट्रिक बोर्ड की सड़क पर पड़ता होगा और शायद पचास में से एक गांव पक्की सड़क पर स्थित होगा। बाकी कच्चे रास्ते नजर आवेंगे, जिनमें गर्मी के मौसम में जलता-भुनता टखनों तक रेत और बरसात में घुटनों तक पानी और कीचड़। ये रास्ते कहीं ऊंचे है कहीं नीचे हैं। जगह-जगह इनमें गढ़े हैं। चाहे तो शख्स इन की जमीन को अपने खेत में शामिल करके इन को तंग कर सकता है। कोई पूछने वाला नहीं। कहीं जमींदा का गड्डा गिर कर टूट जाता है। कहीं इसके बैल की टांग टूटती है। बरसात के दिनों में पानी भर जाने से बहू बेटियों का गुजर मुश्किल हो जाता है। मगर किसान के दुख-दर्द की बात सुनने वाला कोई नहीं। कुछ सड़कें भी मामूली देहाती रास्तों से कुछ बेहतर हालत में नहीं होती। यदि कुछ बेहतरी की सूरत होती है, तो केवल इस कदर कि साथ खेतों वाले इन सड़कों की जमीन की चोरी से झिझकते हैं। बाकी सारी कठिनाइयां वही होती हैं जो कच्चे प्राईवेट रास्तों में होती होती हैं। यहां तक कि यदि कोई पुली टूट जाए, तो कई साल तक तो इनकी मुरम्मत की नौबत नहीं पहुंचती। क्योंकि इन सड़कों पर कमिश्नर साहब या डिप्टी कमीश्नर साहब की मोटर का गुजर नहीं होता। यदि देवयोग से इन साब का इधर से उधर हो जाए या कोई डिस्ट्रिक बोर्ड का कोई शिक्षित और साहसी सदस्य जो अपने-आप को डिस्ट्रिक बोर्ड के इंजीनियरों और ओवरसीयरों को मातहत न समझता हो, इसकी रिपोर्ट कर दे तो इसकी मुरम्मत का ख्याल हो सकता है। इससे उलट लाहौर, अमृतसर, रावलपिंडी, मुलतान, स्यालकोट, अम्बाला, दिल्ली जैसे बड़े नगरों की हालत को देखिए। कितनी चैड़ी-चैड़ी सडकें हैं। कितनी अच्छी इसकी देखभाल रहती है। तारकोल से इनकी दरेसी होती है। अगर उन पर सूई गिर जाए तो एक कदम की दूरी से बड़ी आसानी के साथ नजर आ सकेगी। देहाती रास्तों पर या डिस्ट्रिकट बोर्ड की मामूली कच्ची सड़कों पर अगर किसान का जूआ गिर जाए, तो गर्मी के मौसम में तो अक्सर-जगह रेत में दब जाएगा और बरसात के मौसम में पानी या कीचड़ में गायब हो जाएगा।
कालेज और स्कूलों को देखा जाए तो नगरों में लड़कियों के विद्यालय और लड़कों के विद्यालय तथा महाविद्यालय जगह-जगह मौजूद हैं। किसी लड़के को या किसी लड़की को अपनी शिक्षा के लिए माता-पिता की देखरेख से बाहर रहने की जरूरत नहीं। फीस और पुस्तकों का खर्च दिया और शिक्षा पूरी हो जाती है और वे अपने माता-पिता की देखरेख में रहने के कारण भांति-भांति के खतरों से बच जाते हैं। बेचारे किसान को एक लड़के की शिक्षा पर तिगना चैगुणा खर्च करना पड़ता है। कई प्रकार की नैतिक जोखें उठानी पड़ती हैं और वह अपनी लड़कियों को स्थानीय सुविधाएं न होने की वजह से अनपढ़ रखता है।
अस्पताल देहात में कम हैं और जो होते हैं, वे निहायत घटिया होते हैं। कहीं औजार नहीं तो कहीं दवाइयां खत्म। रोगियों के लिए रहने का कोई प्रबंध नहीं होता। कहने को डाक्टरी सहायता का कुछ प्रबंध देहात में भी पांच-पांच दस-दस मील की दूरी पर है, परन्तु वह नगरों वाली मौत कहां? नगरों में उत्तम से उत्तम अस्पताल निहायत आलीशान भवन, कहीं संगेमरमर का फर्श, कहीं शीशे के किवाड़। आम मरीजों के लिए बड़ी-बड़ी खुली हवादार बारकें। जो किराया देकर पृथक रहने की क्षमता रखते हैं इन मरीजों के लिए फैमिली वार्ड मर्दों के अस्पताल अलग स्त्रियों के अलग बढ़िया से बढ़िया और अनुभवी मर्द और औरत डाक्टर मौजूद। रोगियों की खबरगिरी के लिए कहीं कम्पाउंडर कहीं नर्स कहीं दूसरे मुलाजिम। ताजा से ताजा और कीमती दवाइयां हर समय मौजूद। कहीं अंधेरे कमरे कहीं आप्रेशन रूम। बाज बड़े-बड़े नगरों में एक्सरे का प्रबंध भवनों की शान व फूलों की क्यारियों की मौजूदगी गहरी और हरी बारीक कटी हुई घास के मैदान और ऐसी ही ऐसी और बातें देखने वाले के दिल में यह ख्याल पैदा करती हैं कि अस्पताल नहीं वाजद आलीशान का कोई महल है और यदि कहीं-कहीं दवाओं की बू नहीं तो कोई अनजान व्यक्ति यह यकीन न करे कि वह अस्पताल किसी राजा या नवाब का महल नहीं।
स्वास्थ्य रक्षा के सिलसिले में जो रुपया नगरों और देहातों में खर्च होता है। यदि उसका मुकाबला किया जाए तो भी आश्चर्यजनक घटनाएं सामने नजर आती हैं। नगरों में स्थान पर साफ-सुथरा फिल्टर किया हुआ पानी नलों के जरिए से नागरिकों के प्रयोग के लिए दिया जाता है। देहात में बाज जगहों पर तालाबों का बरसाती पानी पिया जाता है। जहां कुएं हैं। उनके पानी को साफ और स्वच्छ स्वास्थ्यप्रद रखने का कोई प्रबंध नहीं किया जाता। वृक्ष के पत्ते टहनियांें, पक्षियों की बीटें कुओं में गिरकर सड़ जाती हैं और पानी को खराब कर देती हैं। कई बार विशेषतः वर्षा ऋतु में कुएं के पानी में कीड़े पड़ जाते हैं मगर इसको साफ करने का कोई प्रबंध नहीं होता। नगरों में खंड़जे हैं पक्की सड़कें हैं। गंदा पानी निकालने के लिए पक्की नालियां हैं। गंदे पानी को दूर पहुंचाया जाता है। देहात की गलियां वर्षा ऋतु में नरक का दृश्य होती हैं। टखनों तक कीचड़ हो जाती है। पशुओं का गोबर और पेशाब वहीं सड़ता है। घों का मैला पानी जगह-जगह छोटे-छोटे गड्ढों में सड़ता रहता है। न नालियां हैं। न पानी की निकासी का कोई प्रबंध है। देहात में आबादी के बिल्कुल साथ कुर्डि़यां पड़ी होती हैं, बटौड़े बने हुए होते हैं। जगह-जगह पानी खड़ा रहता है, जो बदबू देता है और मच्छरों के जन्म स्थान का काम देता है। कहने को गांव की आबो हवा अच्छी बताई जाती है, परन्तु वास्तविकता यह है कि गांव के अंदर गलियों की हालत इतनी खराब होती है कि किसान की जिंदगी का अधिक समय आबादी से बाहर न बीते तो वह सदा बीमार रहे। हिन्दोस्तान की औसत आयु के समय से पहले ही इस संसार से कूच हो जाए।
शहरियों के आराम के लिए नगरों में प्रकाश का प्रबंध होता है। प्रायः बड़े-बड़े कस्बों में बिजली की रोशनी होती है, जो आमतौर पर तेल से सस्ती पड़ती है। बिजली के खंभे भी होते हैं, जो समर्थ समृद्ध लोगों के लिए मामूली पंखों की मजदूरी से कम खर्च पर बड़ा आराम पहुंचाते हैं। जगह-जगह बाग, पार्क और सैरगाहें भी होती हैं, जिनको लोग प्रातः अपनी सेहत की बढ़ौतरी के लिए इस्तेमाल करते हैं। देहात में इस प्रकार का कोई प्रबंध नहीं होता है। बाज शहरी बिना सोचे और विचारे यह जवाब दिया करते हैं कि इसमें किसान को क्या शिकायत हो सकती है। शहरों में जो आराम के सामान हैं, इनके लिए शहर वाले कमेटियों को रुपया देते हैं। इसमें किसान का या सरकार का शहरियों पर क्या अहसान है। परन्तु इस जवाब को केवल अनभिज्ञ आदमी ही धोखे में रह सकते हैं। प्रथम तो बाज सुविधाएं ऐसी हैं जिनके लिए शहर वाले कोई टैक्स कमेटी को या सरकार को नहीं देते। मसलन जितने सरकारी स्कूल और कालेज हैं वे सब सरकार के खर्चे पर चलते हैं। बहुत से बाग ऐसे हैं, जो सूबे के खर्च पर चलाए जाते हैं। मसलन लाहौर का लारंस गार्डनं नगर की सीमा के अंदर और कमेटी के प्रबंध अधीन जो आराम की चीजें पक्की सड़कें, रोशनी, वाटर वक्र्स, साफ पानी के नलों का प्रबंध, बदरौ की नालियों आदि की सुविधाएं नगर निवासियों के लिए उपलब्ध हो जाती हैं। निस्संदेह इनके लिए शहर वालों से टैक्स लिए जाते हैं। परन्तु याद रहे कि इन सब चीजों के लिए सूबे के खजाने से पचास फीसदी से लेकर 75 प्रतिशत तक ग्रांट-इन-एड मिलती है। इस लिए इनको बनाने और कायम रखने में जहां शहर वालों के आठ आने खर्च होते हैं। वहां प्रांतीय सरकार के भी आठ आने और कई बार इससे भी अधिक खर्च होते हैं।
नए भवनों के निर्माण पर और पुराने भवनों की मुरमम्त पर भी सरकार करोड़ों रुपया प्रति वर्ष खर्च करती है। यह रुपया भी पचानवें प्रतिशत शहरों में ही खर्च होता है। इन भवनों से नगरों की ही रौनक बढ़ती है। शहर वालों को ही उनका ज्यादातर फायदा पहुंचता है। ठेके उठते हैं। शहर वाले ठेकेदार लाभ कमाते हैं। देहात वालों का इंजीनियर साहब तक आमतौर पर देहातियों की पहुंच नहीं। दफ्तर वाले सब गैर-जमींदार और शहरी होते हैं। उनसे इनका मेलजोल नहीं। डाली-डपाली ये देना जानते नहीं। चापलूसी के तरीकों से भी यह अनभिज्ञ होते हैं परिणाम यह होता है कि किसान को ठेके से, सामान ढोने से या मजदूरी से भी कोई लाभ इन कीमती भवनों के निर्माण से नहीं हो सकता। फिर खर्च करने के ढंग भी ऐसे सावधानी से खाली हैं कि मुहम्मतशाह रंगीले और असफाकउद्दौला को पीछे छोड़ जाते हैं। जिला रोहतक में सैंकड़ों स्कूल ऐसे हैं, जो रुपए के अभाव के कारण बीस वर्ष से चैपालों में लगते हैं। इन प्राथमिक पाठशालाओं के लिए रुपया नहीं, लेकिन लाहौर में एक बोर्डिंग हाउस की मुरम्मत पर आठ लाख रुपए खर्च किए जाते हैं।
किसान कमाता है, गैर-जमींदार भोगता है। किसान मेहनत करता है, गैर जमींदार ऐश करता है। किसान से रुपया बटोरा जाता है, गैर जमींदार के लिए खर्च किया जाता है। नंगे बदन, नंगे पांवों और खाली पेट काम करके किसान दौलत पैदा करता है और साहूकार की खत्ती और सरकार के खजाने को भरपूर कर देता है, परन्तु इसका अपना लंगर सदा मस्त रहता है। बीवी भूखी, बच्चे फाका मस्त, खुद खाली पेट। यह क्या तमाशा है? यह क्या मुसीबत है? किसान पर विपदा क्यों है? और कब तक रहेगी? जवाब साफ है। किसान ऊंची निगाह वाला नहीं, छोटे ख्यालों वाला है। अनुचित और असीमित विनम्रता का शिकार है। अपने-आपको सबका बेगारी समझता है, अपने-आपको सेवक, सबका गुलाम मान बैठा है।
ऐ किसान! यदि तू उन्नति और मान चाहता है तो जमीन से नजर उठा और आसमान से नजर लड़ा। तू इसलिए नीचे पड़ा हुआ है क्योंकिः
किया रिफअत की लिज्जत से न दिल को आशना तूने।
गुजारी उम्र पस्ती में मिसाले नक्शे पा तूने।।
तूने ऊंचाई के आनंद से अपने दिल का परिचय नहीं कराया। पांव के निशान की भांति तूने भी अपनी सारी उम्र नीचे पड़े रहकर गुजार दी। मैं तुम्हें जगा कर ही दम लूंगा। मैं तुम्हें नीचे मिट्टी में पड़ा हुआ नहीं देख सकता।