चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह
बादल आया। वर्षा होने की संभावना हुई। किसान ने कस्सी कंधे पर रखी और खेत की राह ली। समझता है कि अगर वर्षा आने से पहले डोला न बांधा, तो खेत का पानी उतर जाएगा। बीज भी डाला फसल भी उगी। कहीं उंची कहीं जरा नीची है। किसान ख्याल करता है कि फसल अच्छी लगी है। परमात्मा ठीक-ठीक पार कर दे तो इस वर्ष साहूकार का ऋण कुछ हल्का कर दूंगा। लड़की सयानी हो चली है। इसकी शादी का भार भी सिर से उतार दिया जाए तो अच्छा होगा।
एक दिन चरी का भरोटा खेत से लाकर पशु बांधने के छप्पर में डालकर बाहर चबूतरे पर हुक्का पीने के लिए बैठा ही था कि सामने से आकाश की रंगत बदलती दिखाई दी। जरा गौर से देखा तो उसकी मुसीबत पहचानने वाली आंखों ने तुरंत बता दिया कि टिड्डी दल है। जमींदार का सांस ऊपर का ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। मालिक सच्चे, अब क्या करूं? टिड्डी और निकट आई। आकाश में चक्की चलने जैसा शोर हुआ। लीजिए यह लैंडदरी (हरावल दस्ता) भी आ गई। वृक्षों पर, छप्परों पर, छतों पर और मैदान में पहले एक-एक, दो-दो टपकीं आन की आन में दस-दस, बीस-बीस के झुरमुट आने लगे। चंद मिन्टों में सब कुछ पीला ही पीला नजर आने लगा। किसान कलेजा मोस कर बैठ गया। कैसी कर्जे की अदायगी? कैसा बेटी का बयाह? बीज की लागत की ही फिकर पड़ गई। सृष्टि में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। अपने दिल में कितना अहंकार रखता है! कितने दावे बांधता है! लेकिन कुदरत की ताकतों के सामने कितना विवश है! टिड्डियां आई, अंडे दे गई। अंडों के कीड़े निकले। मुश्किल से आध इंच पांव-इंच कद। लेकिन सब कुछ सफाचट कर दिया।
जब फसल की कोई आशा नहीं रही, तब साहूकार ने दावा किया। किसान ने सहल किस्तों के लिए उजर किया। उजर की सुनवाई हुई। वह अपील करने के समर्थ न था। डिग्री जारी हो गई। साथ ही कुर्की और साथ ही गिरफ्तारी किसान हैरान, परेशान, क्या करे? क्या कहे? नौ बच्चों का बाप। सब नाबालिग। बड़ी लड़की जिसकी उम्र केवल 12 वर्ष। हसरत भरी निराश निगाह से बीवी की ओर देखाा। एक ठंडी आह भरी और कुर्क अमीन के साथ हो लिया!
जमींदारनी का दिल उमड़ आया। जोर-जोर से रोने लगी ‘अरे ओ मेरे सिर के साईं। मेरे नन्हें बच्चों का क्या हाल होगा? अरे साहूकार तेरे पूत मरें।’ किसान ने अपनी औरत को समझाया। साहूकार से क्षमा याचना की और कहा, ‘लाला जी यह औरत जात है। इसकी बात का कोई गिला मत करना। तुम्हारे रुपए एक-एक कौड़ी करके और हड्डी तक बेच दूंगा।’ ‘साहूकार को कुर्क अमीन की उपस्थिति से बड़ी तसल्ली थी। झट बोला, चौधरी तेरी हड्डियों का कुछ नहीं उठता। अपनी लड़की भरपाई को बेचने की फिक्र कर। खासी सयानी है। अच्छे दाम में जावेगी। यह सुनकर किसान की आंखों में लहू उतर आया। क्रोध से पागल हो गया। जैसे बाज चिड़िया पर झपटता है, बिजली की भांति साहूकार पर झपटा। गर्दन पकड़ी, सिर पर उठाया और जोर से भूमि पर पटक दिया। जमीन में एक पत्थर का टुकड़ा गड़ा हुआ था, थोड़ा सा बाहर निकला हुआ था। साहूकार का सिर इस पत्थर पर लगा। खोपड़ी फट गई। बेहोश हो गया। मामला पुलिस के सुपुर्द हुआ। छोटी अदालत ने सात साल कठोर कारावास की सजा दीं किसान की ओर से अपील की गई। साहूकार के रिश्तेदारों ने निगरानी की। हाईकोर्ट ने अपील नामंजूर की और काले पानी की सजा दी। सजा के बाद किसान मर गया।
असल डिग्रीदार मर गया। कर्जदार दूसरी दुनिया में पहुंचा, लेकिन डिग्री की वसूली की कारवाई जारी रही। तीन हजार सात सौ की डिग्री थी। किसान के पास तीन सौ बीघे जमीन नहरी थी। साहूकार के उत्तराधिकारी ने सारी जमीन को मुस्ताजरी (ठेके में) लेने की दर्खास्त दी। कागजात कलेक्टर साहब के पास भेज दिए। पटवारी और स्थानीय अफसरों से मिलकर डिग्रीदार ने आय का नक्शा तैयार कराया कि जिसके अनुसार सारी जमीन की आय से 20 साल में भी डिग्री की रकम पूरी न हो। तहसीलदार ने रिपोर्ट की कि कर्जदार के पास खेती की जमीन के सिवाए और कोई गुजारे की सूरत नहीं है। घर में एक बेवा है, चार नाबालिग लड़के और पांच नाबालिग लड़कियां हैं। कलेक्टर ने रिपोर्ट की कि चैथाई जमीन गुजारे के लिए छोड़कर बाकी जमीन बीस वर्ष के लिए मुस्ताजरी दे दी जाए।
कागजात दीवानी की अदालत में पहुंचे। सीनियर सब जज की अदालत में पेशी हुई। बुढ़िया भी पहुंच गई। डिग्रीदार ने कहा ‘मुझे कम जमीन लेनी मंजूर नहीं है और चूंकि मेरा मुतालबा पूरा नहीं होता, इसलिए मुझे कम जमीन लेने पर मजबूर नहीं किया जा सकता। बुढ़िया ने लिखित जवाब अर्जीनवीश से लिखवाकर पेश कर दिए थे। वह सहमी हुई खड़ी थी। इससे कोई कुछ नहीं पूछता था। आखिर सीनियर सब-जज ने हुक्म दिया।
‘माई बुढ़िया, तेरी दर्खास्त नामंजूर। तेरी सारी जमीन बीस साल के लिए डिग्रीदार को दी जाएगी।’
बुढ़िया: मेरे ये सब बच्चे याणे हैं। ये कहां जावेंगे?
जज: हमें नहीं पता कहां जावेंगे?
बुढ़िया: हजूर, तू तो हाकिम है। दोनों तरफ देख। ऐसा एक तरफ का होकर मत बैठ।
जज: माई, यह कानून की बात है। हम कुछ नहीं कर सकते।
बुढ़िया: हुजूर! कानून प्रजा की रिच्छा (रक्षा) के लिए होता है, प्रजा के नाश के लिए नहीं। यह कौन-सा कानून है जो हमें हमारी दादी-लाही जमीन से निराताल देश निकाल देता है।
जज: देख माई, हमने तुम्हें समझा दिया। अब तुम जाओ।
बुढ़िया: हुजूर, समझा खाक दिया? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया। मैं इन बच्चों को कहां ले जाऊं। यह क्या राज है जिसने मेरी तीन सौ बीघे जमीन सारी साहूकार को दे दी?
मेरे सारे बच्चे गलियारों में भागते फिरेंगे। तू हाकिम है। आखिर तेरे भी बच्चे होंगे, यदि तेरे साथ ऐसी बीते को क्या हो?
जज: चपड़ासी, इस औरत को कमरे से बाहर निकाल दो।
बुढ़िया: अच्छा मैं जाती हूं। लेकिन मालिक तेरा भला कैसे करेगा? यह तूने क्या न्याय किया। तू भी शायद साहूकार का कुछ लगता होगा।
यह कहती, बड़बड़ाती हुई जमींदारनी चली गई। लेकिन बुढ़िया सच्ची थी। अब न्याय-इंसाफ का कोई ख्याल नहीं है। अब या तो काम को धक्का दिया जाता है, या कानून की आत्मा का खून करके कानून के शब्द पर अधिक ध्यान दिया जाता है। बेचारे किसान को तो सब तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है। थानेदार इसकी खाल खींचता है। जिलेदार इसकी चमड़ी उधेड़ता है। साहूकार इसकी ऊन उतारता है। सरकार इस पर हाथ साफ करती है। अदालत में जाओ तो वहां रस्मी इंसाफ। प्रशासकों के पास जाओ तो ऊपरी दिलासा। जमाना प्रतिकूल है। सरकार मददगार नहीं। लेकिन ओ प्राकृतिक नियमों से अनभिज्ञ किसान! खुदा भी उसकी मदद करता है, जो अपनी मदद आप करता है। ओ जमाने की रफ्तार से नावाकिफ किसान, तूने कभी सुना नहीं कि सरकार की आंखें नहीं होती, केवल कान होते हैं? तूने सरकार के कानों का कभी प्रबंध किया?