ललकार – चौधरी छोटू राम

चौ. छोटूराम

चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह

वर्तमान युग तरक्की का युग है, विज्ञान का युग है, ज्ञान और हुनर का युग है, भाषण और लिखाई का युग है, संगठन का युग है! परन्तु बेचारा किसान है कि वर्तमान युग की इन सब विशेषताओं से अनभिज्ञ है। पुरानी कुंड का ठेकरा है और समझता है कि आखिर दुनिया ऐसी भी क्या मानवता से खाली होगी कि इसको एक अपवित्र और व्यर्थ की वस्तु की भांति पांव की ठोकर से ठुकरा दे। क्या भोला बन्दा है! प्रतिदिन देखता है कि जब इन्सान लींबू का रस निकाल चुकता है तो बेरस छिलक को इतनी दूर फैंकता है कि फिर पैर नीचे आकर फिसलने का कारण न बन सके।

मेरे प्यारे भाई, आदर के योग्य मेरे प्यारे दहकान भाई, यह तमाशा देखकर भी कोई सबक नहीं सीखा। उफ! मैं भी क्या इन्सान हूं! कैसा सवाल पूछ रहा हूं? किसान की पहचान तो यही है कि देखे और फिर न देखे। इसकी आंख को बारीकी से देखने का अभ्यास नहीं। आंखें से कुआं और जोहड़ तो देख लेता है। बस इसकी देखने की सीमा यहीं तक है। सौ बार ठोकर खाए और फिर भी मार्ग में पड़े पत्थर से सावधान नहीं हो। यही तो किसान की निराली शान है।

किसान क्या है? प्राचीन सभ्यता का एक स्मारक है पुरानी संस्कृति का एक बचा हुआ भाग है। समुद्री जहाज आए, रेल आई, तारा आया, बेतार का तार आया, वायुयान आया। विज्ञान के आविष्कारों ने दुनिया छोटी कर दी, अब दूरी का कोई अर्थ नहीं रहा। समुद्र की तह में और आकाश की फिजा में अपने नये यंत्रों की पहुंच का आश्चर्यजनक प्रमाण पेश किया है। परंतु किसान है अपनी पुरानी चाल नहीं बदलता। जमाना बदला, हालात बदले, पड़ौसी बदले। यदि कोई नहीं बदला तो किसान नहीं बदला। वही हल, वही गड्ढा, वही रहट और वही कोल्हू, वही कस्सी और वही खुर्पा। मित्र और शुभचिंतक कहते-कहते थक गए कि भाई हिलो, जमाना हरकत का है। जमाना जुम्बिस (गति) का है। जमाना तरक्की का है, लेकिन जमीन जुम्बद गुल मुहम्मद (जमीन हिल जाए पर मियां गुल मुहम्मद वही रहेगा)।

जमींदार शायद समझता है कि न बदलना, न हिलना-जुलना यह भी सदाचार संहिता में शामिल है। जमाना बेशक बदल जाए, लेकिन मेरा बदलना मेरी शान के खिलाफ है।

                लेकिन जमींदार भाई सुन। यह हठधर्मी छोड़ दे। मैं भी तेरा भाई हूं। तेरी ही बिरादरी का एक छोटा सा सदस्य हूं। तेरा सच्चा शुभचिंतक हूं। तेरे वर्ग का सच्चा हितैषी हूं। तेरी जमायत का सेवक हूं। जाड़े के मौसम में बारीक मलमल के कपड़े पहनना समझदारी नहीं है। यह जमाना बदल गया तो तू भी बदल। अब हालात बदल गए तो भी अपने अंदर तबदीली ला। तीर व तलवार का जमाना गया। अब बंदूक, मशीन गन, बम और विषैली गैसों के शस्त्रों से लड़ाई लड़ी जाती है। अब ढाल तलवार को टांड पर रख दे। अपने-आप को नए शस्त्रों से सुसज्जित कर! यदि ऐसा नहीं करेगा, तो तेरी खैर नहीं। तू शान को मरता है, परन्तु तू यह नहीं देखता कि तेरी हस्ती खतरे में है। तू उच्च आचार का पुजारी बनता है, परन्तु तू यह नहीं देखता कि तेरी हस्ती खतरे में है। तू उच्च आचार का पुजारी बनता है, लेकिन इस बात का पता नहीं कि तेरे ऊंचे आचार-व्यवहार के मजे समाप्त हो गए। तू आईना वफा का दम भरता है, लेकिन तूझे इस बात का पता नहीं कि वर्तमान सभ्यता ने इस चीज को रद्द कर दिया है। तू अपने वर्तमान अंदाज पर लट्टू है। तू अजीब लापरवाही से कहता है:

खामोशी गुफ्तगू है, बे जबानी है जबां मेरी

(मेरा मौन ही मेरी बातचीत है और न बोलना ही मेरा बोलना है)

यदि भौतिकवाद न होता, यदि मायावाद ने आध्यात्मिकता का दम न घोंट दिया होता, यदि सच्चाई, सदाचार और न्याय का राज होता तो मैं तुझे तेरी धर्मपरायण्यता पर बधाई देता। मगर ये दर्द की पोट, सुन। अपने चारों ओर के हालात पर दृष्टि डाल। सत युग का जमाना नहीं है। कलयुग का जमाना है। आज की सभ्यता पर आध्यात्मिकता का आधिपत्य नहीं है। सब कुछ भौतिकता में फंसा हुआ दिखाई देता है। राम राज भी नहीं है। हारूं रशीद का भी दौर-दौरा नहीं है। एशियाई सभ्यता का सूर्य जो आध्यामिकता के प्रकाश से चमक रहा था, लंबे समय से अस्त हो चुका है। अब तो फिरंगी तहजीब का सूर्य आकाश के बीच में चमकता दिखाई पड़ता है और इसकी तेज गर्मी से आध्यात्मिकता के सब चश्मे सूख गए हैं। यदि जीवन चाहता है तो अपना ढंग बदल डाल। एकदम बदल डाल। सकून की जगह सरापा हरकत हो जा। जड़ता छोड़कर गतिशील बन जा। गूंगापन छोड़कर बोलने लग। चुप्पी के स्थान पर आवाज उठा। प्राचीन युग की यादें दिल से भुला दे और वर्तमान युग का शौकीन बन जा। हजरत इकबाल ने एक अति प्रभावित करने वाली कविता ‘दर्द’ पर लिखी है। इकबाल ने इस नज्म में तेरी ही तस्वीर खींची मालूम होती है। इस नज्म के चंद पद बड़े भौडे पैबंद लगाकर पेश करता हूं। शायद ये तुझ पर कुछ प्रभाव डालें।

‘वतन की फिकर कर नादां मुसीबत आने वाली है

तिरी बरबादियों के मशविरे हैं आसमानों में

जर देख इसको जो कुछ हो रहा है, होने वाला है

धरा क्या है भला अहदे कुहन की दास्तानों में

यह खामोशी कहां तक? कुव्वते फरियाद पैदा कर

ज्मीं पर तू हो और तेरी सदा हो आसमानों में

न समझोगे तो मिट जाओगे ओ हिन्दोस्तां वालो

तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में’

(ऐ भोले किसान, भविष्य की चिंता कर। संकट आने वाला है। तेरे विनाश की योजनाएं बनाई जा रही हैं। जरा देख तो सही कि तेरे चारों ओर क्या हो रहा है और क्या होने वाला है, पुराने किस्से-कहानियों में क्या धरा है? कब तक चुप रहेगा! टपने अधिकार मांगने का मजा चख। तू भूमि पर हो, परन्तु तेरी आवाज आकाश में गूूंजे। यदि तू नहीं समझेगा तो ऐ दुनिया के अन्नदाता तू स्वयं मिट जाएगा और यह जालिम दुनिया तुझे भुला देगी। कोई भी तुझे याद न करेगा)।

                ऐ जमींदार! यदि जिंदा रहना चाहता है और गुमनामी के गड्ढे से निकलना चाहता है तो संघर्ष के नए तरीके सीख। खामोशी को छोड़ दे। बेजबानी पर लानत भेज। अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए रोना-धोना, चिल्लाना-चीखना, नाला व फरियाद, रौला-रबदा करना सीख। देख तो सही तेरे चिल्लाने का कुछ प्रभाव पड़ता है या नहीं। खामोश का तरीका देख लिया है। इसकी परीक्षा बहुत समय तक हो चुकी है। यह तरीका लाभ का नहीं है, हानि का है। लंबे समय तूने चुप रहकर देख लिया। यह चुप्पी का मार्ग ध्येय तक नहीं ले जाता। अब तक तू गलत रास्ते पर चलता रहा है। कदम लौटा, रुख पलट शोर व बावेला, फरियाद या गोगा, दुहाई और तिहाई का मार्ग पकड़। और फिर देख क्या जल्दी तेरे बुतखाने के किंगुर नजर आने लगते हैं और वह बुत जिसको तू बेपीर समझता है किस कदर पीरी का पात्र निकलता है।

                ऐ किसान! चौकस हो के रह, चैकन्ना बन। होशियारी से काम ले। यह दुनिया ठगों की बस्ती है और तू बड़ी आसानी से ठगों के जाल में फंस जाता है। जिनको तू पालता है वे भी तेरे विरुद्ध हैं। और तुझे खबर तक नहीं। कोई तुझे पीर बनकर लूटता है, कोई पुरोहित बनकर लूटता है। कोई मुझे शाह बन कर लूटता है। कोई तुझे ब्याज से लूटता है। कोई रिश्वत से लूटता है। कोई स्वयं ग्राहक बनकर तुझे लूटता है। कोई ग्राहक बनकर तेरी ऊन-सी उतारता है। कोई आढ़त से तुझे ठगता है, कोई कमीशन से तेरी दौलत को चट कर जाता है। कभी भाव में तुझ से धोखा किया जाता है, कभी हिसाब में तुझे दल दिया जाता है। यदि तू कुछ खुशहाल है तो तुझे कारूं और हातिमभाई बनाकर लूटने वाले डूम, भाट मौजूद हैं। यदि तू कंगाल है, तो साहूकार जोंक की तरह तुझे चिपट जाता है।

                जरा सोचकर देख। इतने भूतों से कैसे बचेगा! खामोशी और बेजबानी से नहीं, बल्कि अभियान चलाने और आवाज उठाने से। सुकून नहीं, बल्कि शक्ति से। बेबसी से नहीं, बल्कि आंदोलन से। संघर्ष कर। गफलत के सपने से जाग। करवट बदल। उठ। मुंह धो। सक्रिय हो। हंगामा करने के शस्त्र लेकर कर्म-युद्ध में कूद पड़ और अपने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दे!

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सर छोटू राम

जन्म: 24 नवम्बर 1881, दिल्ली-रोहतक मार्ग पर गांव गढ़ी-सांपला, रोहतक (हरियाणा-तत्कालीन पंजाब सूबा) में       चौधरी सुखीराम एवं श्रीमती सिरयां देवी के घर। 1893 में झज्जर के गांव खेड़ी जट में चौधरी नान्हा राम की सुपुत्राी ज्ञानो देवी से 5 जून को बाल विवाह।
शिक्षा: प्राइमरी सांपला से 1895 में झज्जर से 1899 में, मैट्रिक, एफए, बीए सेन्ट स्टीफेन कॉलेज दिल्ली से 1899-1905।
कालाकांकर में राजा के पास नौकरी 1905-1909। आगरा से वकालत 1911, जाट स्कूल रोहतक की स्थापना 1913, जाट गजहट (उर्दू साप्ताहिक) 1916, रोहतक जिला कांग्र्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष 1916-1920, सर फजले हुसैन के साथ नेशनल यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदार लोग) की स्थापना 1923, डायरकी में मंत्राी 1924-1926, लेजिस्लेटिव काउंसिल में विरोधी दल के नेता 1926-1935 व अध्यक्ष 1936, सर की उपाधि 1937, प्रोविन्सियल अटॉनमी में मंत्री 1937-1945, किसानों द्वारा रहबरे आजम की उपाधि से 6 अप्रैल 1944 को विभूषित, भाखड़ा बांध योजना पर हस्ताक्षर 8 जनवरी 1945।
निधन: शक्ति भवन (निवास), लाहौर-9 जनवरी 1945।
1923 से 1944 के बीच किसानों के हित में कर्जा बिल, मंडी बिल, बेनामी एक्ट आदि सुनहरे कानूनों के बनाने में प्रमुख भूमिका। 1944 में मोहम्मद अली जिन्ना की पंजाब में साम्प्रदायिक घुसपैठ से भरपूर टक्कर। एक मार्च 1942 को अपनी हीरक जयंती पर उन्होंने घोषणा की-‘मैं मजहब को राजनीति से दूर करके शोषित किसान वर्ग और उपेक्षित ग्रामीण समाज कीसेवा में अपना जीवन खपा रहा हूं।’ भारत विभाजन के घोर विरोधी रहे। 15 अगस्त 1944 को विभाजन के राजाजी फॉर्मुले के खिलाफ गांधी जी को ऐतिहासिक पत्र लिखा।

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