राजा को ख़ून देखने का जुनून था। ख़ून देखे बिना उसे नींद नहीं आती थी। राजा चूंकि राजा था, ख़ून बहाने के परंपरागत एकरस तरीक़े से ऊब जाता- जैसे बच्चे एक ही खिलौने से खेलते हुए ऊब जाते हैं- और इसलिए हठ कर बैठता कि ख़ून बहाने के लिए अभिनव प्रयोग किए जाएँ। दरबारी तो हमेशा से ही उसकी कृपा पर जीते आए थे और प्रजा अपने शेर जैसे राजा को अति प्रतापी मानते हुए उसे पागलों की तरह चाहती थी। सो, कभी किसी बलात्कृत कन्या का शव किसी घास के मैदान में मिलता, उसका रक्त घास से चिपक कर सूख गया होता; कभी किसी गुरुकुल को निशाना बना दिया जाता, वहां शिक्षा ग्रहण कर रहे विद्यार्थियों के कपाल फोड़ दिए जाते; कभी तलवारें बरछे लिए लोगों की भीड़ सड़कों पर उतर आती और सड़कें ख़ून से भर जातीं। कभी लोग कुत्तों और सांडों की तरह आपस में भिड़ जाते। ख़ूब ख़ून बहता। राजा तृप्त हो जाता और एक मक्कार मुस्कान के साथ सारे घटनाक्रम पर हार्दिक दुख व्यक्त करता।
समय का फेर हुआ। प्रजा ने तय किया कि बस, बहुत हो चुका, अब और रक्त नहीं बहाया जाएगा। लोगों ने लड़ना बंद कर दिया। राजा ने बिस्तर पकड़ लिया। दरबारियों ने लोगों को लड़ाने का हर संभव प्रयास किया। यहाँ तक कि सारा रक्तरंजित इतिहास प्रजा के बीच खोल कर रख दिया, पर लोग लड़ने को तैयार नहीं हुए। राजा अब आख़िरी साँसे गिन रहा था। दरबारी उसके आसपास जमा थे। राजा की गिड़गिड़ाती आँखें प्रधान दरबारी की ओर एकटक देख रही थीं। प्रधान दरबारी को दया आ गई। ऐसे निरीह राजा की उसने कल्पना भी नहीं की थी। उसने तलवार निकाली और राजा के पेट में घोंप दी। ख़ून का झरना बह निकला। राजा उठ बैठा, ज़ोर से हँसा, प्रधान दरबारी को धन्यवाद कहा और मर गया।