अविनाश सैनी
जींद उपचुनाव का राजनीतिक महत्व यह है कि यह लोकसभा चुनावों की टोन सेट करेगा। सत्ताधारी पार्टी तो इनेलो-जजपा के आपसी प्रतिद्वंद्व और कांग्रेस की आपसी फूट पर ही अपने जीत को सुनिश्चित मान रही है। उसे अपने कार्यों की अपेक्षा विरोधी दलों की फूट पर अधिक भरोसा है उसके सहारे ही राजनीतिक वैतरणी पार करना चाहती है। सं.
28 जनवरी को होने वाले जींद विधानसभा उपचुनाव की बिसात बिछ चुकी है, मोहरे तय हो गए हैं और सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी गोटियां फिट करने में मशगूल हैं। कांग्रेस ने कैथल के विधायक और पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला को मैदान में उतारकर मुकाबले को हाईटेक बना दिया है। रणदीप की उपस्थिति से तय हो गया कि कांग्रेस पुनः इस सीट पर अपना वर्चस्व कायम करने को कृतसंकल्प है।
तीन राज्यों में जीत और राहुल गांधी की आक्रामक सक्रियता से कांग्रेसियों के हौसले बुलंद हैं। लगता है कि उन्हें जींद के रास्ते आगामी विधानसभा चुनाव फतह करने की उम्मीद दिखाई दे रही है। तभी तो सुरजेवाला के मैदान में उतरते ही खेमों में बंटी कांग्रेस पुनः एकजुट नज़र आने लगी है।
देवीलाल परिवार के दबदबे वाली इस सीट पर नवगठित जननायक जनता पार्टी अपना मजबूत दावा रखती है। इसलिए पार्टी ने ‘करो या मरो’ के इस मुकाबले में अपने सबसे मजबूत प्रत्याशी दिग्विजय चौटाला पर दाव लगाया है। शुरुआती आकलनों में सबसे आगे चल रही जजपा का भविष्य काफ़ी हद तक इसी चुनाव पर टिका है। अपने इस पहले चुनावी समर में जींद के मजबूत किले को जीत कर जजपा नेता एक तीर से दो निशाने लगाना चाहते हैं। एक तरफ़ तो इससे उनके राजनीतिक कैरियर की धमाकेदार शुरुआत होगी, वहीं दूसरी तरफ खुद को चौधरी देवीलाल की विरासत का असली वारिस साबित कर वे इनेलो के वोटबैंक पर और मजबूत दावा पेश कर पाएंगे।
इधर भाजपा निवर्तमान विधायक एवं इनेलो नेता स्व. हरिचंद मिड्ढा के पुत्र डॉ. कृष्ण मिड्ढा को टिकट थमा कर सहानुभूति लहर के सहारे अपनी वैतरणी पार करने की जुगत में है। मेयर चुनावों में मिली आशातीत सफलता से उत्साहित भाजपा किसी भी सूरत में यह जीत हासिल करना चाहती है। इसलिए पार्टी ने मेयर चुनावों की तरह यहां भी ‘गैर-जाट’ का कार्ड खेला है। यह गैर-जाट वोटों के ध्रुवीकरण के दम पर जीत की उम्मीद ही है कि पिछले दिनों तक जींद उपचुनाव न करवाने पर अड़ी मनोहर सरकार ने हाबड़-ताबड़ में चुनाव करवाने का फैसला लिया ताकि पहली बार इस जाट बहुल सीट पर फूल खिला कर आगामी विधानसभा चुनावों के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया जा सके।
इनेलो की बात करें तो मजबूत उम्मीदवार के टोटे में कभी मांगेराम गुप्ता तो कभी सुरेन्द्र बरवाला को आयात करते दिख रहे अभय चौटाला ने अन्ततः ज़िला परिषद के उप-प्रधान उमेद रेढू को मैदान में उतारा है। कंडेला खाप में अच्छी पैठ रखने वाले उमेद रेढू के माध्यम से अभय चौटाला की मंशा जीतने की बजाय अपने पारंपरिक जाट वोटों को जजपा की तरफ जाने से रोकने की अधिक दिखाई देती है। निःसंदेह जाट वोटों में बंटवारे से जीत के प्रति आश्वस्त जजपा को सीधा नुकसान होगा। इनेलो और बसपा के गठबंधन के बाद प्रदेश में यह पहला बड़ा चुनाव है। इस नज़र से इसमें इस बात का टेस्ट भी हो जाएगा कि बसपा के वोटर या कहें कि दलित वोटर का इनेलो की तरफ कितना झुकाव रहता है।
इधर भाजपा के बागी सांसद राजकुमार सैनी की नवगठित लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी भी मजबूती से मैदान में डटी है। सैनी ने 5 बार के पार्षद और 3 बार नगर परिषद अध्यक्ष रहे पं. विनोद आश्री को टिकट दिया है और सबसे पहले अपना प्रत्याशी घोषित कर रणनीतिक बढ़त हासिल करने में सफल रहे हैं। विनोद आश्री के माध्यम से सैनी की मंशा ब्राह्मण और दलित-पिछड़े वोटों को लामबंद करने के साथ-साथ शहरी वोटों को रिझाना है। अगर उनकी ‘शोशल इंजीनियरिंग’ कारगर साबित हो गई तो निःसंदेह नतीज़े चौकाने वाले रहेंगे।
इस चुनाव में जजपा, कांग्रेस और इनेलो ने जाट प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं और एक लाख 69 हज़ार 210 मतदाताओं वाले इस विधानसभा क्षेत्र में सबसे अधिक लगभग 47000 जाट वोटर ही हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि अब तक हुए 12 विधानसभा चुनावों में यहां से केवल एक बार ही जाट विधायक बन पाया है। यहां से 6 बार महाजन (मांगेराम गुप्ता 4 बार और बृजमोहन सिंगला 2 बार), 2 बार पंजाबी (हरिचंद मिड्ढा), 3 बार पिछड़े (1967 व 1968 में 2 बार दयाकिशन तथा 1987 में परमानंद) एवं एक बार 1972 में दलसिंह के रूप में जाट समुदाय से विधायक चुना गया।
राजनीतिक दलों की बात करें तो जींद से कांग्रेस ने सर्वाधिक 5 बार जीत दर्ज की है। इनमें से 2 बार दयाकिशन (1967 व 1968) तथा 3 बार मांगेराम गुप्ता (1991, 2000 व 2005 में) विधायक बने। एक बार मांगेराम गुप्ता 1997 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीते थे। इसके बाद 1982 और 1987 में लोकदल के बृजमोहन सिंगला तथा परमानंद ने और दो बार इनेलो के टिकट पर हरिचंद मिड्ढा ने 2009 व 2014 में जीत दर्ज की। एक बार नेशनल कांग्रेस ऑर्गेनाइज़ेशन (NSO) के दलसिंह एम एल ए बने तो एक बार 1986 में हविपा के टिकट पर बृजमोहन सिंगला ने जीत का परचम लहराया।
कांग्रेस प्रत्याशी 5 बार दूसरे स्थान पर रहे तो देवीलाल समर्थक दल के उम्मीदवार 4 बार उपविजेता रहे। जहां तक भाजपा का सवाल है, 1967 से अब तक भाजपा प्रत्याशी केवल एक बार (सुरेन्द्र बरवाला) 2014 में ही मुख्य मुकाबले में रहा है।
वर्तमान चुनाव पर नज़र डालें तो रणदीप सुरजेवाला की उम्मीदवारी ने मुकाबले को काफी रोचक बना दिया है। चुनावी विश्लेषणों में अभी तक जजपा की निश्चित जीत के दावे किए जा रहे थे परंतु अब रणदीप की उपस्थिति से मुकाबला कांटे का हो गया है।
जाट वोटों के बिखराव की स्थिति में सारा दारोमदार गैर-जाट वोटों पर रहेगा। यहां पंजाबी, ब्राह्मण और सैनी समुदायों के लगभग पंद्रह-पंद्रह हज़ार वोट हैं। महाजन और चमार तकरीबन चौदह-चौदह हज़ार हैं जबकि वाल्मीकि 9000, कुम्हार 7000, धानक 5000 और खाती मतदाता 4000 के करीब हैं। इनके अलावा लगभग 3000 बैरागी, 2800 लोहार और 2500 नाई मतदाता हैं। 3500 कि करीब वोट बादी, खटीक तथा सांसी बिरादरियों के हैँ। इस तरह यहां दलित-पिछड़े वर्ग के काफी वोट हैं। ज़ाहिर है कि जो प्रत्याशी दलित-पिछड़े तबकों के अधिक वोट लेगा, जीत का सेहरा उसी के माथे बंधेगा।
इस सीट पर 84 वर्षीय पूर्व मंत्री मांगेराम गुप्ता का भी अच्छा रसूख है। सभी दलों के प्रतिनिधि उनसे मिल कर समर्थन मांग चुके हैं। टिकट देने के प्रयास भी किये गए पर बात सिरे नहीं चढ़ी। अन्ततः उन्होंने किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार करने से मना कर दिया। अब देखने वाली बात यह है कि अपने पुत्र के राजनीति भविष्य को ध्यान में रखते हुए वे किस पार्टी या प्रत्याशी पर मेहरबान होते हैं!
भाजपा ने पंजाबी प्रत्याशी पर दाव खेला है। इससे गैर-जाट वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना बनती दिखती है। परन्तु अब गौर करने वाली बात यह है कि सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण का बिल पास करवाने के बाद भाजपा दलित-पिछड़े वोटों को कितना साध पाएगी!
राजकुमार सैनी की ‘लोसुपा’ को हल्के में लेने वालों को समझना होगा कि ब्राह्मण समुदाय के विनोद आश्री शहरी वोटों को प्रभावित करने में सक्षम हैं। मेयर के चुनावों में लोसुपा प्रत्याशियों के रिपोर्ट कार्ड को देखें तो उन्होंने दलित-पिछड़े तबकों के उम्मीद से ज़्यादा वोट लिए हैं। निःसंदेह लोसुपा प्रत्याशी का सबसे अधिक नुकसान भाजपा को होगा। इसके अलावा इलाके में अच्छा प्रभाव रखने वाले, दो बार के विधायक और पूर्व मंत्रीे बृजमोहन सिंगला की काट भी भाजपा को ढूंढ़नी होगी जिनके बेटे अंशुल सिंगला ने अब रणदीप सुरजेवाला के समर्थन में निर्दलीय प्रत्याशी से नाम वापिस ले लिया है।
राजनीतिक नफ़े-नुकसान की बात करें तो अभय चौटाला के लिए यह चुनाव बेहद अहम है। इसी से तय होगा कि देवीलाल-चौटाला की राजनीति का असली वारिस कौन है! वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनके भतीजे दिग्विजय चुनाव जीतें। उनकी हर संभव कोशिश रहेगी कि जजपा के रथ को जींद में ही रोक दिया जाए। किसी बड़े चेहरे की बजाय उमेद रेढू पर दांव खेलने का उनका मकसद भी जजपा का खेल बिगाड़ना है। ज़ाहिर है कि उनका फोकस अपने प्रत्याशी की जीत से अधिक दिग्विजय की हार पर रहेगा। कृष्ण मिड्ढा इनेलो को झटका देकर भाजपा के पाले में गए हैं। इसका मलाल भी अभय चौटाला को अवश्य होगा। इसलिए वे भाजपा प्रत्याशी को भी जीतते हुए नहीं देखना चाहेंगे।
रामबिलास शर्मा के कथनानुसार रणदीप सुरजेवाला की हार से पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का ‘कांटा’ भले ही निकल जाए परन्तु इससे राहुल दरबार में उनकी किरकिरी होने की संभावना भी कम नहीं है। हुड्डा कभी नहीं चाहेंगे कि राहुल गांधी के समक्ष उनके नम्बर कम हों। इसके अलावा आगामी विधानसभा चुनावों की दृष्टि से भी रणदीप के पीछे एकजुट दिखे कांग्रेसी नेताओं की ज़रूरत है कि पार्टी यह उपचुनाव जीते और प्रदेश में महौल बने कि कांग्रेस जीत रही है।
खैर अभी तो शुरुआत है। धीरे-धीरे स्थिति और स्पष्ट होगी। पर इतना तय है कि हमेशा हरियाणा की राजनीति को नई दिशा देनेवाला जींद इस बार एक अनूठी जंग का साक्षी बनने जा रहा है।
-अविनाश सैनी
9416233992
Anonymous
बहुत बढ़िया विश्लेषण ,
great👍