10 मई, 1857 को अम्बाला तथा मेरठ के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। अगले दिन दिल्ली में भी गड़बड़ी हो गई। 13 मई को क्रांतिकारियों ने गुड़गांव पर आक्रमण कर दिया। जिला मैजिस्ट्रेट इसे नियंत्रित न कर सका। सरदार एवं चौधरी, जिनके हितों पर ब्रिटिश प्रशासन ने कुठाराघात किया था, उठ खड़े हुए। उनके साथ सम्मिलित होने वालों में कृषक भी थे, जिनके साथ उनके संबंध परम्परागत थे। लूटमार के कारण लोग और भी उत्तेजित हो गए, बहुत से व्यक्तियों को पुरानी शत्रुता का बदला लेने के लिए साहसपूर्ण कार्य करने की प्रेरणा मिली और लोग भी खलबली से लाभ उठाने तथा पुनः प्रतिष्ठा पाने के विचार से जोश में आ गए। इस विद्रोह से रिवाड़ी के राव तुलााम, झज्जर के अब्दुल समद खां तथा हिसार के मुहम्मद अज़ीम जैसे वास्तविक साहसी व्यक्तियों की शक्ति बढ़ गई। ब्रिटिश अधिकारी तथा कमाण्डर उन्हें बड़ी कठिनाई से पीछे हटा सके। उदाहरणार्थ, राव तुला राम तथा उसके साथियों के साथ 16 नवम्बर को हुई मुठभेड़ में लेफ्टिनेंट कर्नल गेराई की मृत्यु हो गई, खरखौदा तथा रोहतक की मुठभेड़ में लेफ्टिनेंट डब्ल्यू.एस.आर. हडसन को प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। हिसार में जनरल वैन कोर्टलैंड तथा कैप्टन राबर्टसन को रानियां के नवाब नूर मुहम्मद खां तथा अन्य लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। करनाल-पानीपत क्षेत्र में कैप्टन हयूज बल्लेह गांव के निवासियों से पराजित हो गया तथा करनाल के नवाब तथा पटियाला के राजा की सहायता से ही उन्हें परास्त किया जा सका। इसी प्रकार लेफ्टिनेंट पीयरसन तथा कैप्टन मैकनील को भी कैथल, लाडवा तथा असंध प्रदेशों में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जिला अम्बाला में रोपड़ में सरदार मोहर सिंह ने ब्रिटिश शासकों के लिए अनेक समस्याएं खड़ी कर दीं। कुछ सरदार निष्पक्ष रहे, किंतु कुछ सरदारों ने ब्रिटिश राज्य की सहायता की और परिणामस्वरूप नवम्बर तक विद्रोह दबा दिया गया।
यद्यपि 1857 के विद्रोह के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है, परन्तु कुछ बातें सुस्पष्ट हैं। प्रथमतः यह स्पष्टतः ब्रिटिश-विरोधी भावना से प्रेरित था, जिस कारण यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह बन गया-द्वितीयतः यह धीरे-धीरे प्रकट हो रही नई व्यवस्था के विरुद्ध पुरातन व्यवस्था का अंतिम विरोध था। नई व्यवस्था प्राचीन शासनकाल के लाभभोगियों को निकालने में कार्यरत थी। तृतीयतः इसी कारण यह बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने और उन्हें एकता स्थापित करने के लिए प्रेरित करने में असमर्थ रही। इस बात को स्पष्ट करने के लिए तत्कालीन प्रत्यक्षदर्शी मुसलमान तथा हिन्दू बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया को जान लेना अति आवश्यक है।
उस समय का मुसलमान बुद्धिजीवी सुविख्यात कवि गालिब है। इस आंदोलन के नेता मुगल राजदरबार से सम्बद्ध थे और उसका भी मुगल राज दरबार से गहरा संबंध था तथा वह अपने चारों ओर व्याप्त वातावरण का सूक्ष्म दर्शक तथा विलक्षण व्याख्याकार था। दिल्ली में हुए 11 मई, 1857 के विद्रोह के विषय में उन्होंने लिखा, ‘उस मनहूस दिन ईर्ष्या द्वैष से उन्मत्त मेरठ के कुछ अभागे सैनिकों ने शहर पर आक्रमण कर दिया-उनमें से प्रत्येक व्यक्ति निर्लज्ज एवं विक्षुब्ध तथा अपने स्वामी के प्रति हिंसापूर्ण घृणा से परिपूर्ण था। (राल्फ रसल तथा खुर्शीदुल इस्लाम, ‘गालिब, लाइफ एंड लैटर्ज’, लंडन 1969 पृ. 135)। उसने उन्हें ‘उग्र जानवरों के साथी’ बताया है (वही, पृ. 134)। यद्यपि उसने लिखा कि सैनिक और कृषक शासकों के विरुद्ध थे तथापि उसका कथन है कि ‘चोर तथा चैर्यपटु दिन दिहाड़े लोगों का धन लूट लेते और रात को वैभपवूर्ण जीवन बिताते। प्रत्येक निकम्मा व्यक्ति अभिमान से फूला हुआ भंवरदार चक्रवात के समान कुछ भी कर गुजरने को उद्यत था, झांड के समान व्यर्थ का आडम्बर करने वाला प्रत्येक तुच्छ तथा घमंडी व्यक्ति वेगपूर्ण पानी पर इस्ततः बहते हुए तृण सदृश था।’(वही पृ. 137)। परन्तु गालिब ब्रिटिश शासन का अंधाधुंध पक्षधर नहीं था। उसने ब्रिटिश शासन की प्रतिहिंसा का भयंकर चित्र प्रस्तुत किया और विशेष रूप से मुसलमानों को अपने घरों में राजधानी वापिस आने की अनुमति न देने पर खेद प्रकट किया (वही, पृ. 149)।
उस समय के प्रसिद्ध हिन्दू बुद्धिजीवी, ब्राह्मण नेता देवेन्द्र नाथ टैगोर ने विद्रोह के दुष्परिणाम तथा बहादुर शाह की गिरफ्तारी को स्वयं देखा था। उसने स्थिति के विषय में कहा ‘इस दुखमय संसार से किसी की नियति के विषय में क्या कहा जा सकता है’ बस इतना कहकर उसने स्थिति के प्रति उदासीनता व्यक्त की है। अपने देश के प्रति गहन श्रद्धा रखने वाले तथा उस पर गर्व करने वाले ऐसे व्यक्ति का, जो कि निःसंदेह विदेशी प्रतिनिधि नहीं था, उस आंदोलन का कर्ता-धर्ता व्यक्ति के प्रति ऐसी तटस्थ दार्शनिक उक्ति इस बात का द्योतक है कि 1857 की घटनाओं का उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। (कृष्ण कृपलानी, रविन्द्रनाथ टैगोर, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 1962, पृ. 31) वास्तव में, जैसा बी.एस. नरवाने लिखा है, उस समय के महत्वपूर्ण विचारकों के लेखों तथा भाषणो में विद्रोह संबंधी घटनाओं का बहुत कम वर्णन मिलता है। (‘माडर्न इंडियन थाट’, एशिया पब्लिशिंग हाउस, 1964, पृ. 17)।
अतः स्पष्ट है कि विद्रोह का संबंध केवल कुछ ही लोगों से था यद्यपि वे ब्रिटिश विरोधी भावना से अनुप्राणित देशभक्त ही थे।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृः 78