बुद्ध प्रकाश
14 जनवरी, 1764 में सिक्खों ने सरहिन्द के अफगान राज्यपाल जैन खां को पराजित किया तथा पूर्वी पंजाब और हरियाणा में अफगान शासन समाप्त कर दिया। तत्पश्चात सिक्ख सरदारों ने हरियाणा आपस में बांट लिया। फूल सिंह वंश के गजपत सिंह ने जींद तथा सफीदों में मोर्चाबंदी की। पटियाला के आलासिंह तथा अमरसिंह ने भी हरियाणा का कुछ भाग अधिकृत कर लिया। 1777 में जींद में किए गए समझौते के अनुसार हांसी, हिसार तथा रोहतक मुगल शासन के अधीन तथा फतेहाबाद, सिरसा और रानिया पटियाला के क्षेत्राधिकार में थे। 1767 में भाई देसू सिंह ने कैथल में सिक्ख रियासत की स्थापना की। उसके उत्तराधिकारी लालसिंह तथा उदयसिंह साहित्य तथा ज्ञान को संरक्षण प्रदान करने वाले थे।
इन रियासतों की स्थापना के अतिरिक्त अनेक सिक्ख मिसलों ने हरियाणा को विध्वंस किया तथा दोआब में प्रवेश करते हुए दिल्ली तक धावा बोल दिया। 25 दिसम्बर, 1763 को नजीबुद्दौला के साथ हुई मुठभेड़ में जाट सरदार सूरजमल की मृत्यु हो जाने पर उसके पुत्र जवाहर सिंह ने क्रोधित होकर सिक्खों का समर्थन प्राप्त किया। नवम्बर, 1764 में जब जवाहर सिंह ने नजीबुद्दौला को दिल्ली में घेर लिया, तब जस्सासिंह आहलुवालिया के नेतृत्व में सिक्खों के बुडढा दल ने यमुना को पार करके दोआब विशेषतः नजीब की रियासत को लूटा। एक जनवरी 1765 में वे बराड़ीघाट तक पहुंच गए, जहां उनमें और जाटों के बीच नियमानुसार सन्धि हुई।
इस दौरान नजीबुद्दौला ने अहमदशाह दुर्रानी से पुनः सहायता की प्रार्थना की। अतः उसने सिन्धु को पार करके लाहौर की ओर प्रस्थान किया। यह सुनकर सिक्ख तत्काल पंजाब की ओर चल पड़े तथा अहमदशाह के साथ तब तक लड़ते रहे, जब तक कि वह मार्च, 1765 में पंजाब छोड़ कर चला नहीं गया। तथापि सितम्बर में उन्होंने हरियाणा तथा दोआब में पुनः प्रवेश करने का निर्णय लिया। तरुण दल ने सहारनपुर में प्रवेश किया और बुडढा दल ने दिल्ली के उत्तरी प्रदेश में तबाही मचाई। परन्तु नजीबुद्दौला ने जैसे-तैसे कुशलतापूर्वक तथा धैर्य से उनका सामना किया।
तरूणदल दीपावली मनाने के लिए अमृतसर वापिस आ गया और तत्पश्चात दोआब पर पुनः आक्रमण किया। नजीबुद्दौला ने उनका सामना करने के लिए प्रस्थान किया। शामली में दोनों के बीच युद्ध हुआ। दो दिन के युद्ध के पश्चात सिक्खों ने यमुना को पार किया तथा रोहतक से 20 मील पूर्व की ओर खरखोदा के समीप बुढा दल से मिल गए। दिल्ली पहुंचने के लिए केवल एक दिन ओर चाहिए था।
जवाहर सिंह मराठों से दुःखी था। अतः उसने सात लाख रुपए की आर्थिक सहायता देकर सिक्खों से समझौता कर लिया। उसने उन्हें मराठों के मित्र जयपुर के राजा माधोसिंह पर भी आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। उस ओर प्रस्थान करते हुए उन्होंने रिवाड़ी और वहां के लोगों को लूटा।
दिसम्बर, 1767 में सिक्खों ने नजीबुद्दौला की रियासत पर पुनः आक्रमण किया और कई बार की मुठभेड़ के पश्चात वह परास्त होकर दिल्ली छोड़ने पर विवश हो गया। सिक्खों के लिए दिल्ली का मार्ग खुला था तथा वे शासककर्ता बन सकते थे। परन्तु उनके सरदारों में वैमनस्य तथा विरोध होने के कारण वे उस परिस्थिति का लाभ न उठा सके। तथापि पंजाब तथा हरियाणा पर उनका अधिकार सुरक्षित हो गया था।
जनवरी, 1770 में सिक्खों ने पानीपत पर आक्रमण किया तथा दिल्ली तक प्रत्येक गांव में लूटमार की और भरतपुर के जाटों के क्षेत्र में उपद्रव मचाया। 31 अक्तूबर, 1770 को नजीबुद्दौला की मृत्यु पर करनाल-पानीपत प्रदेश में सिक्खों के आक्रमणों का एक ओर दौर आरंभ हो गया।
अप्रैल-मई, 1772 में सिक्खों ने सरहिन्द के मनोनीत गवर्नर मुगल अलीखां को पराजित किया। इससे मुगल सम्राट क्रुद्ध हो गया तथा दिल्ली में तैनात मराठा सरदार जनकोजी भयभीत हो गया। सिक्खों को पीछे हटाने के लिए जनकोजी ने पानीपत ओर करनाल की ओर प्रस्थान किया, परन्तु पिहोवा जाकर वहां स्नान करने के पश्चात राजधानी लौट आया। मराठों और सिक्खों में कोई युद्ध नहीं हुआ।
जनवरी, 1774 में सिक्खों ने पुनः दिल्ली पर आक्रमण कर दिया और शाहदरा में लूटमार की। उस समय गूजर भी सम्राट को परेशान कर रहे थे। अतः सम्राट ने गूजरों के साथ युद्ध करने के लिए सिक्खों को अपने साथ मिलाना चाहा, परन्तु अमीर अबदुल अहमद खां ने इसका विरोध किया। उसने सरहिन्द की फौजदारी प्राप्त करके समरु को नियुक्त किया, परन्तु सिक्खों ने उसे अत्यधिक परेशान करके हरियाणा छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया।
18वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हरियाणा पर किसी का स्वामित्व नहीं था तथा सभी प्रकार के लुटेरों ने इसमें लूटमार की और तबाही मचाई। विशेष रूप से सिक्खों तथा मराठों के संघर्ष से जीवन नितांत असुरक्षित हो गया था। शताब्दी के अंत में मराठा अधिकारी जार्ज टामस ने कैथल में प्रवेश किया और अपनी तोप सेना से सिक्खों को वहां से निकाल दिया। परन्तु उसके शीघ्र ही बाद उसने मराठों की नौकरी छोड़ दी और हरियाणा में उत्तर में घग्गर से लेकर दक्षिण में बेरी तक तथा पूर्व में महम से लेकर पश्चिम में बेहादरा तक का क्षेत्र-खण्ड बलपूर्वक छीन लिया। हिसार, हांसी, भिवानी, फतेहाबाद, टोहाना तथा जार्जगढ़, जिसे आजकल जहाजगढ़ कहा जाता है, उसमें शामिल थे। उसमें लगभग 800 गांव थे तथा 2,86,000 रुपए का राजस्व प्राप्त होता था। उसकी राजधानी हांसी उन्नति करने लगी।
तत्पश्चात शीघ्र ही जार्ज टामस ने जींद पर आक्रमण कर दिया। आरंभिक पराजय के पश्चात उसने नगर को घेर लिया। उस रियासत के सिख सरदार भाग सिंह ने सभी सिक्ख सरदारों से सहायता की अभ्यर्थना की। कैथल का भाई लालसिंह, भीकासिंह उसकी रक्षा के लिए आए। पटियाला से बीबी साहिब कौर तत्काल उसकी सहायता के लिए आई, परन्तु टामस ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। परन्तु नाभा का राजा जसवंत सिंह, लाडवा का गुरदत सिंह तथा थानेसर के भंगा सिंह और मेहताब सिंह जींद पहुंचे। बीबी साहिब कौर ने अपने नेतृत्व में उन्हें संगठित किया। अंत में 1799 में टामस जींद का घेरा उठाने के लिए बाध्य हो गया तथा वह हांसी वापस आ गया। सिक्खों ने मार्ग में उसे रोकना चाहा, परन्तु उसने उन्हें पराजित करके छोड़ दिया। अंत में टामस तथा जींद सरदार सन्धि करने के लिए सहमत हो गए।
1799 में टामस ने राजस्थान के अभियान में भाग लिया और तत्पश्चात सिक्ख क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया, परन्तु सिंधिया तथा उसके सेनापति पेरर्न के आक्रमण ने उसकी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया। बेरी के युद्ध में अपनी पराजय के पश्चात वह 1801 में ब्रिटिश प्रदेश लौट गया। 1802 में कलकत्ता की तरफ जाते समय मार्ग में उसका जीवनान्त हो गया।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृः 72