बुद्ध प्रकाश
नादिरशाह ने दिल्ली में निष्क्रय तथा लूट-खसोट का वातावरण बना दिया था। 1739 से 1761 तक पांच बार अहमदशाह दुर्रानी द्वारा, एक बार सूरजमल जाट द्वारा, एक बार जीत सिंह गूजर द्वारा, एक बार रोहतक जिले के बलोचियों द्वारा, आठ बार रुहेलों द्वारा, आठ बार मराठों तथा एक वर्ष के अंदर 11 बार साम्राज्य के मुगल अधिकारियों तथा तुर्की सैनिकों द्वारा यहां पर लूटमार करके विध्वंस किया गया (‘मराठे तथा पानीपत’, स.एच.आर. गुप्ता, पृ. 321)। दिल्ली तथा इसके इर्द-गिर्द के इलाकों में रहने वाले लोगों ने अधिकतम कष्ट झेले तथा हरियाणा के लोगों को भी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति ने विविध रूप से यथाशक्ति प्रहार किया तथा लूट-खसोट की। छीना-झपटी तथा लूटमार के ऐसे वातावरण में जनसाधारण को सबल तथा अत्यंत सहनशील होते हुए भी असीम कठिनाइयों तथा क्लेशों का सामना करना पड़ा। इस आतंककारी नाटक के मुख्य अभिनेता मराठे तथा अफगान थे, जिनका नेतृत्व अब्दाली सरदार अहमदशाह दुर्रानी कर रहा था, जिसने नादिरशाह के अधीन शक्ति प्राप्त की। उसने भारत में अपने साहसपूर्ण कार्यों का पूरा-पूरा लाभ उठाया।
‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श से प्रेरित मराठे 1737 में उत्तरी भारत में पहुंचे। मार्च में बाजीराव दिल्ली के निकट ही मौजूद था तथा जहां अब ‘तालकटोरा क्लब’ स्थित है, उस स्थान के निकट ‘तालकटोरा’ नामक स्थान पर डेरा डाला हुआ था। रकाबगंज के स्थान पर, जहां अब तालकटोरा सड़क से एक गली निकलती है, मराठों तथा मुगलों के बीच संग्राम हुआ, जिसमें मुगलों के 600 सैनिक, 200 घोड़े तथा हाथी मारे गए। परन्तु शीघ्र ही मराठे रिवाड़ी, कोट पुतली तथा ग्वालियर के रास्ते से खिसक गए। इसी बीच मल्हार राव होल्कर ने यमुना पार करके दोआब में खूब लूट-खसोट की।
मराठों के अचानक ही खिसक जाने का कारण संभवतः यह समाचार था कि निजामुलमुल्क को भारी सेन सहित उनके साथ लड़ने के लिए उत्तर में आने के लिए कहा जा रहा था। अतः बाजीराव ने भोपाल के निकट निजाम को रोका तथा दोराहा सराय की सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए उसे विवश किया, जिसके अनुसार मालवा पर मराठों का अधिकार हो गया और उत्तर में उनकी सत्ता को स्वीकार कर लिया गया।
1748 में बजीर कमरुद्दीन खां की मृत्यु हो गई तथा सफदर जंग ने उसका पद संभाल लिया। परन्तु कमरुद्दीन के पुत्र इंतिजामुद्दोला ने उसका विरोध किया। नया सम्राट अहमदशाह भी उसके विरुद्ध था। इसलिए वजीर को मराठों से सहायता मांगनी पड़ी। रुहेलों के आक्रमण से स्थिति और भी गंभीर हो गई तथा मराठा सहायता की आवश्यकता अपरिहार्य हो गई। परिणामस्वरूप मार्च, 1751 में मराठा सेना ने रुहेलों को पराजित करते हुए तथा उनके मित्र फर्रुखाबाद के नवाब बंगश को मार भगाते हुए दोआब में प्रवेश किया।
इस प्रकार थके-मांदे रुहेलों ने अहमदशाह दुर्रानी, जो अफगानों का शासक बन बैठा था, की ओर अपना रुख किया। अहमदशाह ने 1751-52 में पंजाब पर आक्रमण किया तथा मार्च, 1752 में लाहौर पर अधिकार जमा लिया। उसकी प्रगति ने मुगल सम्राट तथा उसके बजीर सफदर जंग को मराठों के साथ दृढ़ संधि करने को विवश कर दिया। तदनुसार 12 अप्रैल, 1752 को मुगल दरबार तथा मराठों के बीच संधि हुई, जिसके अनुसार पेशवा ने निम्नलिखित बातों के लिए वचन दिया-
(1) अहमद शाह दुर्रानी को भारत से दूर रखना, तथा
(2) राजपूतों, रुहेलों, बांगश अफगानों, जाटों आदि आंतरिक दुराचारियों से साम्राज्य की सुरक्षा करना,
(3) तथा बदले में सैन्य खर्चों को पूरा करने के लिए सन्धि, पंजाब तथा अपर गंगा दोआब के कुछ जिलों के राजस्व का चौथ प्राप्त करना, तथा
(4) आगरा, मथुरा, नारनौल तथा अजमेर का गवर्नर इस शर्त पर नियुक्त किया जाना कि वह वर्तमान प्रशासन को बनाए रखेगा। इस संधि से उत्तरी भारत, विशेषतः दिल्ली तथा हरियाणा में, मराठों की वैध रूप से स्थिति सुदृढ़ हो गई।
परन्तु सन्धिपत्र की स्याही भी सूखने नहीं पाई थी कि मुगल सम्राट मराठों के साथ किए गए समझौते को तोड़ कर आक्रमणकारी दुर्रानी से जा मिला। 23 अप्रैल, 1752 को उसने पंजाब पर अहमदशाह का आधिपत्य स्वीकार कर लिया तथा मराठों के साथ की गई संधि मानने से इन्कार कर दिया। इस पर मराठों ने आर्थिक सहायता की मांग की और उसके कुछ भाग के बदले में अपने आश्रित गाजिउद्दीन को दक्षिण का वायसराय नियुक्त करने की मांग की, तत्पश्चात वे दक्षिण की तरफ चले गए।
इस बीच दिल्ली षड्यंत्रों का केंद्र बना हुआ था। सम्राट अहमद शाह अपने मंत्री सफदर जंग से झगड़ कर अलग हो गया और मराठों को एक करोड़ रुपया तथा अवध तथा इलाहाबाद के प्रदेश देकर पुनः उनसे सहायता मांगी। दिल्ली में अपने एजेंटों-हिंगेन भाइयों तथा वहां ठहरी हुई छोटी सी सेना के मुखिया अंताजी मनकेश्वर की गलत रिपोर्ट पर पेशवा सफदरजंग के साथ अपने संबंधों की उपेक्षा करते हुए रघुनाथ राव के अधीन दिल्ली अपनी एक सेना भेजने पर सहमत हो गया। वह सेना 1754 में राजस्थान तथा जाट प्रदेश के रास्ते से होती हुई दिल्ली पहुंची और राजधानी के लोग आतंक से दहल उठे। होलकर के घुड़सवारों द्वारा शाही शिविर की लूट-खसोट तथा सिकंदराबाद की सड़क पर शाही महिलाओं का अपहरण विशेषतः निंदनीय था। परन्तु मल्हार राव ने इस जघन्य कुकृत्यों का दोष अपने ऊपर न लेकर इसकी जिम्मेदारी पिण्डारियों जैसे चंचंल तथा लुटेरे शिविर अनुचरों पर डाल दी।
एक जून, 1754 को रघुनाथ राव मथुरा से दिल्ली पहुंचा तथा मराठा मित्र गाजिउद्दीन के छोटे पुत्र इमादुल्मुल्क को वजीर बनाने के लिए सम्राट पर दबाव डाला। मराठा सरदार का आदेश मानने के सिवाए सम्राट के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। परन्तु अगले ही दिन नए वजीर ने सम्राट अहमद शाह को गद्दी से उतार दिया और उसके स्थान पर आलमगीर द्वितीय को गद्दी पर बिठा दिया। इस प्रकार मुगल सम्राट मराठों का नामित व्यक्ति समझा जा सकता है। नए सम्राट ने कृतज्ञता स्वरूप 25 अक्तूबर, 1754 को एक शाही फरमान जारी किया, जिसके अनुसार गया तथा कुरुक्षेत्र के प्रदेश पेशवा को समर्पित कर दिए। तदनुसार, कुरुक्षेत्र से मुसलमान अधिकारियों को वापिस बुला लिया गया तथा इसका प्रशासन हिंगेन भाइयों के हाथों में चला गया।
उस क्रांति से दिल्ली का राज्य वास्तव में पूर्णतः मराठों के हाथों में चला गया। परन्तु समझदारी की नितांत कमी के कारण वे उस स्थिति से लाभ उठाने में असफल रहे तथा उन्होंने वजीर से जबरदस्ती धन प्राप्त करके बाजार में लोगों को कत्ल करने, घाटों पर ब्राह्मणों को सताने, आसपास के गांवों के जाट-कृषकों को परेशान करने तथा दोआब में देहाती क्षेत्रों में अशांति फैलाने में अपने समय तथा शक्ति को नष्ट कर दिया। तब रघुनाथराव गढ़मुक्तेश्वर गया तथा वहां से वह राजस्थान पहुंचा। तत्पश्चात उसने दक्कन में शरण ली। दिल्ली में हिंगेन भाइयों तथा अंताजी मनकेश्वर, जिनका आचार-व्यवहार ठीक नहीं था तथा आपसी संबंध भी अच्छे नहीं थे, अपने-अपने आर्थिक हितों में उलझे रहे। मुगल दरबार द्वारा आर्थिक सहायता के बदले में मराठों को सौंपे गए क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो गई।
अगस्त, 1857 में रघुनाथराव तथा मल्हारराव पुनः दिल्ली आए। इस बीच उत्तरी भारत में अहमदशाह दुर्रानी, जिसे सम्राट आलमगीर द्वितीय की स्वीकृति से रुहेला सरदार, नजीबुद्दोला, लाहौर की धूर्त शासिका, मुगलानी बेगम तथा अन्य मुसलमानों द्वारा आमंत्रित किया गया था, के हाथों निकृष्टतम रूप से लूट-खसोट की जा चुकी थी। 28 जनवरी, 1757 से जबसे उसने दिल्ली में कदम रखा, अप्रैल तक जब वह अपने देश वापिस लौटा, उसने लोगों पर घोर एवं जघन्य अत्याचार किए तथा नृशंसतापूर्वक उनकी जान-माल तथा प्रतिष्ठा को लूटा। लौटते समय उसने सरहिन्द मंडल को अपने राज्य में मिला लिया तथा यमुना को अपने राज्य की पूर्वी सीमा बना लिया। इस प्रकार हरियाणा का काफी भाग अफगान शासकों के अधीन चला गया और उसका कार्यभार अब्दुल समदखां को सौंप दिया गया। यहां तक कि दिल्ली भी उसके नामित नजीबुद्दौला के चंगुल में थी, जिसने वहां पर वस्तुतः तानाशाही की। अन्ताजी के अधीन छोटी सी मराठा सेना उस स्थिति का सामना करने में असमर्थ थी। इन सब समाचारों को सुनकर पेशवा ने रघुनाथ राव को पुनः उत्तर में भेजा। जब मराठा सेना पहुंची, इमादुलमुल्क दुर्रानियों के अवशेषांश को समाप्त करने के लिए इसका सदुपयोग करने के लिए अति उत्सुक था।
सारे अगस्त मास के दौरान मराठे नजीबुद्दौला के साथ कुछ निर्णयों संबंधी प्रयास करते रहे। अंत में वह बहुत तंग आ गया, परन्तु उसने रघुनाथ राव के पास अपने मामले के समर्थन के लिए मल्हार राव को गांठ लिया। अंततः 3 सितम्बर को उसे दिल्ली चले जाने की अनुमति दे दी गई। मराठे उस घातक शत्रु को समूल नष्ट करने के स्वर्ण अवसर से चूक गए, परन्तु उत्तरी भारत में वे सर्वोच्च सत्ताधारी थे। सभी नए अधिकारी रघुनाथ राव से मिल गए तथा उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। अंताजी मनकेश्वर को दिल्ली प्रांत का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। हरियाणा कानूनी तौर से मराठा शासन के अधीन था। उन्होंने एक तरफ रोहतक जिले में कामगरखां बलोच से राजस्व की वसूली, दूसरी तरफ, दोआब में नसीब की रियासत को लूटा।
9 जनवरी, 1758 को मल्हार राव की महिलाएं सोमवती अमावस्या के अवसर पवित्र सरोवर में स्नान करने के लिए कुरुक्षेत्र आईं। शाहाबाद के स्थान पर अब्दुलसमद खां, जिसे अहमदशाह दुर्रानी ने सरहिन्द का गवर्नर नियुक्त किया था, के एक सैन्यदल ने उन पर हमला कर दिया। मराठा गारद ने अफगानों को कत्ल कर दिया और उनके घोड़े छीन लिए। लौटते समय, मल्हार राव ने तरावड़ी, करनाल तथा कुंजपुरा के लोगों से धन वसूल किया। तत्पश्चात यमुना पार करके वह रघुनाथराव से जा मिला और पंजाब को विजय करने की योजना को पूरा किया। जालंधर दोआब के गवर्नर, अदीना वेग खां ने, जो अहमदखां के आने पर भाग गया था, उन्हें पूरी सहायता देने तथा मार्गदर्शन का वचन दिया।
फरवरी, 1758 में मराठे पंजाब की ओर बढ़े। रघुनाथ राव 5 मार्च को अम्बाला के निकट मुगल की सराय, 6 मार्च को राजपुरा, 7 मार्च काो सराय बंजारा तथा 8 मार्च को सरहिन्द पहुंचा। दूसरी ओर अदीना बेग खां ने सिक्खों के साथ मिलकर नगर के चारों ओर घेरा डाल लिया। दुर्रानी गवर्नर, अब्दुस समद खां भाग गया, परन्तु पकड़ा गया। फिर भी लूट के धन की हिस्सेदारी पर मराठों का सिक्खों से झगड़ा हो गया। बड़ी मुश्किल से अदीना बेग खां के प्रयत्नों से उनके बीच होने वाला एक भारी झगड़ा टल गया।
मराठों की इस विजय पर जहां खां तथा तैमूर शाह लाहौर छोड़ कर काबुल चले गए। 20 अप्रैल, 1758 को उनकी सेना ने लाहौर में प्रवेश किया। शालीमार बाग में एक शानदार मंच पर रघुनाथ राव ने नजर प्राप्त की। नगर में आनन्दोत्सव मनाए गए। इसके साथ ही पीछे हटते हुए अफगानों का पीछा किया गया। अंत में मराठे अटक पहुंचे और सिन्धु के किनारे अपना गेरुआ झण्डा लहराया। दत्ता जी को वहां नियुक्त किया गया कि वह अफगानों को यह दरिया पार करने से रोके। मुलतान से बापूजी त्रिम्बक ने सिन्धु दरिया को पार करके डेरागाजी खां तथा इसके आसपास के क्षेत्र पर अपने राज्य की स्थापना की। दुर्रानी राज्य अपनी समाप्ति पर था।
मराठों ने अदीना बेग खां को लाहौर का गवर्नर नियुक्त कर दिया और दिल्ली की ओर कूच किया। 5 जून को वे सोमवती अमावस्यास के दिन पवित्र सरोवर में स्नान करने के लिए थानेसर के स्थान पर रुके। तत्पश्चात वे अपनी उपलब्धियों को सुदृढ़ करने के लिए मामूली से प्रबंध करते हुए दक्कन की ओर चले गए। केवल, दत्ताजी वहां ठहरा तथ मार्च, 1759 में सतलुज के किनारे माछीवाड़ा पहुंचा। वहां से उसने पेशावर के स्थान पर साबाजी को, अटक के स्थान पर सुकोजी को, रोहतास के स्थान पर बपुराव, लाहौर के स्थान पर नरोशंकर तथा नरसोजी, सरहिन्द के स्थान पर नारायण राव तथा मुलतान के स्थान पर बापूजी त्रिम्बक को नियुक्त किया। जून में, साबाजी के पेशावर से चले जाने के पश्चात् दुर्रानी सेनापति, जहांखां ने अटक पर अधिकार कर लिया और रोहतास की ओर बढ़ा, परन्तु साबाजी और सिक्खों द्वारा पराजित करके भगा दिया गया। परन्तु दत्ताजी निपुण कूटनीतिज्ञ नहीं था, उसने जबरदस्ती वसूलियां करके बहुत से लोगों से दुश्मनी मोल ले ली थी।
उत्तर में मराठों का आधिपत्य, मुसलमान शासकों, कुछ राजपूतों तथा अन्य सरदारों के लिए विक्षोभ तथा मनस्ताप का कारण बना हुआ था। परम विद्वान, धर्म शास्त्रज्ञ तथा दिल्ली के मदरसा-ए-रहीमिया के अध्यक्ष शाह-वली-उल्लाह ने मराठों तथा जाटों के विरुद्ध खुले तौर पर जेहाद का प्रचार किया तथा भारत पर आक्रमण करने के लिए अहमदशाह दुर्रानी को आमंत्रित किया। अफगान सेनापति नजीबुद्दौला तथा मुगल सम्राट ने भी दुर्रानी से आने की प्रार्थना की। उन्होंने इस बात का कोई विचार नहीं किया कि केवल दो वर्ष पूर्व ही अफगान आक्रान्ताओं के हाथों लोगों ने कितने भयंकर अत्याचार सहे थे। वास्तव में, वे अपने मनोरथों की पूर्ति हेतु अपने नागरिकों को मौत के मुंह में झोंकने को भी तैयार थे। सबसे अधिक दुःख की बात तो यह थी कि मुगल सम्राट भी, जिसके पूर्व दो शताब्दियों से भी अधिक समय तक इस देश पर शासन कर चुके थे, हिंस्र आक्रान्ता को इस देश पर कब्जा करने तथा यहां के निरपराध लोगों के संत्रास तथा विध्वंश के लिए आमंत्रित करने को तैयार था। एक शासक की ओर से अपनी प्रजा के प्रति ऐसा विश्वासघात नितांत अनोखा था।
उस समय अहमदशाह दुर्रानी अत्यंत प्रसन्न था। उसने भी भारतीयों के विरुद्व जिहाद का प्रचार किया तथा सितम्बर, 1759 में एक भारी सेना, 40,000 घुड़सवार अपनी तथा 20,000 जहाँ खां के नेतृत्व में, लेकर कंधार से कूच किया। ज्योंही वह आगे बढ़ा, इस सेना में और वृद्धि होती रही, क्योंकि भारत की सम्पति और नारियों के प्रलोभन से प्रेरित सरदार अधिकाधिक संख्या में इस सेवा में भर्ती होते रहे। तीव्र गति से कूच करते हुए वह 27 नवम्बर को सरहिन्द, 20 दिसम्बर को अम्बाला तथा 24 दिसम्बर को तरावड़ी पहुंचा। यह समाचार सुनकर दत्ता जी ने 18 दिसम्बर को कुंजपुरा के दक्षिण में अंधेरा घाट पर यमुना को पार किया तथा चार दिन के पश्चात कुरुक्षेत्र की ओर बढ़ा। 24 दिसम्बर को उसके एक सेनापति झोइटे ने तरावड़ी के स्थान पर अफगानों के एक सैन्य दल को परास्त कर दिया, परन्तु वह उन सैनिकों का तब तक पीछा करता रहा, जब तक शाह पसन्द खां के नेतृत्व में 5,000 सैनिकों द्वारा बन्दी नहीं बना लिया गया। मराठों के 400 सैनिक मारे गए, उनके सिर काट दिए गए थे तथा धड़ इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ऐसा भयंकर दृश्य देखकर दत्ता जी को वहां से लौटना पड़ा, ताकि अफगानों को दिल्ली पर कब्जा करने से रोका जा सके। वह 29 दिसम्बर को सोनीपत पहुंचा, 5 जनवरी को दिल्ली गया तथा बराड़ी के स्थान पर डेरा डाल दिया। 8-9 जनवरी की रात को अफगानों ने एक घाट पर यमुना को पार करना आरंभ किया। अपराहन में मराठे उन पर टूट पड़े, परन्तु उनकी बन्दूकें अधिक देर तक टिकी नहीं रह सकीं। गोलियों की बौछार से निर्भीक दत्ताजी स्वयं केवल एक भाला लेकर इस हंगामे में कूद पड़ा और मारा गया। अब अफगान आक्रान्ता के लिए दिल्ली का मार्ग साफ था तथा लाल किले के द्वार उसका स्वागत करने को उत्सुक थे। उनके सैनिकों ने राजधानी में खूब लूटमार की तथा यहां के लोगों पर भयंकर अत्याचार किए। वहां से उसने सूरजमल के विरुद्ध कूच किया तथा मराठा पार्टियों का पीछा करते हुए एक मार्च, 1760 को सिकंदराबाद के निकट उसमें से एक पार्टी को बन्दी बना लिया, जबकि उसके भारतीय एजेण्टों ने सभी प्रकार से बहला-फुसलाकर अधिकाधिक मुसलमान तथा राजपूत सरदारों को अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न किया।
यह समाचार सुनकर, पेशवा ने उत्तरी भारत से अफगानों को निकालने के लिए सदाशिवरावभाऊ के नेतृत्व में एक सेना भेजी। इस सेना में 10,000 सैनिक पेशवा के अपने, 12,000 सैनिक उसके सरदारों के तथा 8,000 सिपाही इब्राहिम खां गार्दी के अधीन यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित थे तथा इसके अतिरिक्त एक भारी संख्या में पिंडारी तथा लुटेरे थे। एक अगस्त, 1760 को भाऊ ने दिल्ली पर आधिपत्य जमा लिया और ऐतिहासिक लाल किले पर अपना झंडा फहरा दिया। इससे मराठे गौरवशाली तथा अफगान निराश हो गए।
दिल्ली से भाऊ ने शुजाउद्दौला को अपने साथ मिलाने के लिए उससे मित्रवत् बातचीत प्रारंभ की। इससे इमादुलमुल्क चिढ़ गया और मराठों का साथ छोड़ दिया। वह पहले ही भगौड़ा बनकर अपनी कायरता का प्रदर्शन कर चुका था जब अहमद शाह दिल्ली पर कब्जा करने के लिए तैयारी कर रहा था। ठीक उसी समय सूरजभान ने भी मराठों का साथ छोड़ दिया। युद्धनीति के संबंध में भाऊ से उसका मतभेद था। उसका छापामार लड़ाई में विश्वास था, जबकि भाऊ आमने-सामने की लड़ाई में डटकर लड़ने और पछाड़ देने के पक्ष में था, परन्तु उसके अलग होने का कारण कोई व्यक्तिगत विद्वेष या मराठा आधिपत्य के लिए अरुचि भी हो सकता है।
परन्तु भाऊ की कठिनाइयां बढ़ रही थीं। उसके पास अपनी सेना को वेतन देने के लिए कोई पैसा नहीं था। उसके पास खाद्य सामग्री भी पर्याप्त नहीं थी। दिल्ली को इतना अधिक लूटा जा चुका था कि कमी पूरी करने के लिए धन प्राप्त करने के सभी तरीके असफल हो गए। अतः भाऊ ने चले जाने का निर्णय कर लिया। 10 अक्तूबर को उसके आदमियों ने सम्राट शाहजहां द्वितीय को, जिसको इमादुलमुल्क ने अहमद शाह दुर्रानी के निमंत्रक, आलमगीर द्वितीय को छल से कत्ल करके 30 नवम्बर, 1759 को गद्दी पर बिठाया था, गद्दी से उतार दिया तथा उसके स्थान पर शाह आलम के सम्राट होने की उद्घोषणा कर दी। उसी दिन वह कुंजपुरा की ओर चल पड़ा, जहां पर अफगानों ने भारी मात्रा में सामग्री एकत्रित की हुई थी। 17 अक्तूबर को साढ़े छह लाख नकद, 2 लाख मन गेहूं तथा अन्य रसद और 3,000 घोड़ों तथा भारी संख्या में बन्दूकों आदि सहित किला मराठों के हाथ आ गया। 19 अक्तूबर को मराठों ने वहां खूब धूमधाम से दशहरा मनाया तथा 25 अक्तूबर को कुरुक्षेत्र जाने तथा पवित्र सरोवर में स्नान करने के उद्देश्य से तरावड़ी पहुंचे। परन्तु उसी समय उन्हें सूचना मिली कि अहमदशाह बाघपत के स्थान पर यमुना को पार कर रहा है। इस डर से कि कहीं उसकी सेना का पिछला भाग काट न दिया जाए, भाऊ ने कुरुक्षेत्र का मार्ग छोड़ तुरन्त पानीपत की ओर कूच किया। 29 अक्तूबर को भाऊ तथा उसकी वीर पत्नी पार्वती बाई हाथों में तलवारें लेकर अपने घोड़ों पर सवार होकर पानीपत पहुंचे तथा वहां पर घोर विध्वंस किया। दूसरी ओर से अफगान सेनाएं आ गई। इस प्रकरा वहां पर महासंग्राम का वातावरण बन गया।
बहुत से भारतीय सेनापतियों द्वारा अफगान सेना को पुनः सुदृढ़ बना दिया गया था, जबकि मराठों को किसी अन्य शक्ति द्वारा सहायता प्राप्त नहीं हुई, हां उनको कुछ सहायता लोगों से अवश्य प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि अभिमान के कारण भाऊ ने किसी की भी परवाह नहीं की तथा सूरजमल जैसे होशियार व्यक्ति की भी उपेक्षा की। परन्तु हाल ही में की गई खोज के अनुसार कुछ नए तथ्ये सामने आए हैं कि वह सभी भारतीयों से सहायता प्राप्त करने का इच्छुक था। पुराने मराठा आश्रित, इमादुलमुल्क को खोकर भी शुजाउद्दौला के साथ समझौते की बातचीत तथा उसकी ओर से धुतकारने के बावजूद, उसे वजीर नियुक्त करना तथा दिल्ली के सिंहासन पर शाहआलम को बिठाना इस बात का द्योतक है कि उसने मराठा शासन स्थापित करने में शीघ्रता नहीं की। इसी प्रकार जाटों, गुजरों तथा अहीरों, विशेषतः 18 खापों या पालों के जाटों तथा थोकों तथा पंचायतों के मुखियों को ‘आगामी आक्रमण के विरुद्ध देश की सुरक्षा के लिए’ उनका सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्हें आमंत्रित करते हुए पत्र लिखना तथा स्वयं को हिन्दू धर्म का सेवक बताना इस बात को सिद्ध करता है कि वह कृषकों तथा ग्रामीण लोगों से सहायता प्राप्त करने को व्यग्र था। दानतराय की अध्यक्षता में सिसौली गांव में हुई सर्वखाप पंचायत की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव के अनुसार दुर्रानी के विरुद्ध मराठों की सहायता के लिए चैधरी श्योलाल के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों की सेना संगठित करने का निर्णय लिया गया था, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि उसकी प्रार्थना की नितान्त उपेक्षा नहीं की गई थी। (एम.सी. प्रधान, दी पालिटिकल सिस्टम आफ दी जाट्स आफ नारर्दन इण्डिया, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1966, पृ. 258-59)। अतः यह ठीक नहीं है-कि भाऊ ने जन सहायता की उपेक्षा की, यद्यपि यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उसे कितनी सहायता प्राप्त हो सकी।
पानीपत के स्थान पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ। शीघ्र ही अफगान शिविर में भुखमरी फैल गई। भाऊ ने यमुना के पार उसकी सप्लाई व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। गोबिन्दपंत बुन्देले ने अपनी शक्ति दोआब में केंद्रित कर दी। अतः तारीख-ए-मंजिल-ए-फुतूह के लेखक तथा उक्त घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी मुहम्मद जफर शामलू ने लिखा है कि ‘शाह के शिविर में अनाज रुपए सेर बिकता था तथा सैनिक निरुत्साहित एवं हताश हो गए थे, एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी, काशीराज पंडित लिखता है कि आटा दो रुपए सेर के भाव बिकता था। उस समय मराठा सेनापतियों ने दो बड़ी भूलें की। प्रथमतः गोबिन्दपंत सप्लाई साधनों पर निगरानी की बजाए, जेता नामक एक गूजर सेनापति से, जिसे मैंने परिछतगढ़ का जीत सिंह माना है, निष्क्रय लेने के लिए ठहर गया। उस समय गूजर सरदार दोआब में यमुना पार करके बढ़ रहे थे तथा यह गोविन्दपंत का कर्तव्य था कि यदि उनकी सहायता प्राप्त न कर सके तो कम से कम उन्हें तटस्थ तो करे ही। परन्तु उसके उद्दण्ड तथा अभिमानपूर्ण रवैये के कारण वे विपक्षी बन गए और जीत सिंह ने उसके ठौर-ठिकाने तथा गतिविधियों के बारे में अहमदशाह को सूचित कर दिया और उसे बन्दी बनाने के लिए गुप्त रूप से हमला कर दिया तथा उसके 20,000 बैल छीन लिए, जिन पर अनाज लाद कर मराठा शिविर में ले जाया जा रहा था। इससे दुर्रानी शिविर के मराठा शिविर में रसद की कमी हो गई। दूसरे जब अफगान अतीव निराशा की स्थिति में थे, भाऊ ने आक्रमण नहीं किया। आलसी तथा आत्मसंतुष्ट होने के कारण वह महीनों ही निष्क्रिय बना रहा और अकाल के कारण भारी जन-हानि हुई तथा उसकी सेना का उत्साह भी मंद पड़ गया। अंततः जब मराठा सैनिक हतोत्साहित हो गए, उनकी शक्ति क्षीण हो गई तथा वे भूख की यातना सहन करने की अपेक्षा युद्ध भूमि में लड़ मरने को उद्यत हो गए, तब भाऊ ने युद्ध करने का निर्णय किया। (इन घटनाओं के लिए देखिए बुद्ध प्रकाश द्वारा लिखित ‘दी रोल आफ सहारनपुर इन मराठाज एण्ड पानीपत’, (पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ 1961 पृ. 306-320)।
14 जनवरी, 1761 को प्रातः लगभग 9 बजे मराठों ने अफगानों पर गोलाबारी शुरू कर दी। परन्तु उनकी बंदूकें बहुत भारी तथा बेडौल थी तथा परस्पर एक-दूसरे से बांधकर स्थायी रूप से जमीन में गाड़ी हुई थीं। अतः उनके निशाने प्रायः अफगान शिविर के पीछे गिरकर बेकार गए। लगभग एक घंटे तक यह स्थिति देखकर साहसी इब्राहिम खां गार्दी ने प्रशिक्षित बंदूकचियों को आदेश दिया कि गोलीबारी बंद करके रुहेलों पर सामने की ओर से आक्रमण करें। इस आक्रमण से उनके आठ-नौ हजार सैनिक मारे गए और उनकी शक्ति क्षीण होने के कारण वे तितर-बितर हो गए।
तथापि बिठल शिवदेव के नेतृत्व में मराठा घुड़सवार पंक्तियां तोड़ कर सरपट दौड़ते हुए इब्राहिम गार्दी से आगे निकल गए। परन्तु, रुहेलों की गोलीबारी का सामना करने में असमर्थ होने के कारण, ये चेन से बंधी बन्दूकों के पीछे लौट आए। युद्ध योजना की उपेक्षा करके की गई कार्यवाही के परिणामस्वरूप भारी संख्या में जन हानि हुई तथा सेना हतोत्साहित हो गई।
इसी बीच दोनों पक्षों के मध्य भागों में मुठभेड़ हो गई। मराठा अश्व सेना ने एक भयंकर हमला किया। एक प्रत्यक्षदर्शी के शब्दों में वे दुर्रानी सैनिकों को ‘नदी के पानी की तरह’ पी गए। अफगान सेना का भयंकर संहार किया जा रहा था और जो सैनिक बच गए, उनमें भगदड़ मच गई। परन्तु मराठे अकस्मात् ही ढीले पड़ गए और उन्होंने अपेक्षित सेना के साथ तत्काल आक्रमण नहीं किया। वास्तव में उन्होंने इस अवसर पर उपयोग के लिए आरक्षित सेना रखने के विषय में सोचा ही नहीं था।
दूसरी ओर अहमदशाह के पास युद्ध स्थल से काफी दूर पर्याप्त संख्या में आरक्षित सेना थी। वे फुर्ती से मोर्चाबंदी के मध्य तथा दाईं भागों में पहुंचे। पहले उसके नसाकचियों ने भगौड़ों को उनके छिपने के स्थानों से बाहर निकाल कर घेर लिया। तत्पश्चात उसकी आरक्षित सेना के सैनिक पहुंच गए। लगभग एक बजे अपराहन तक उसकी सेना के मध्य तथा दाएं भाग को पुनः संगठित किया जा चुका था, जबकि बायां भाग अक्षुण्ण बना रहा।
तब दुर्रानी ने अपने वजीर शाह वली खां को हाथ में तलवार लेकर मध्य भाग का नेतृत्व करते हुए मराठों पर हमला करने का आदेश दिया। इसी प्रकार के हमले दाईं तथा बाईं ओर से भी किए गए। विशेषतः बाईं ओर से नजीबुद्दौला तथा शाहपसन्दखां, जिन्होंने उस समय तक युद्ध में कोई विशेष भाग नहीं लिया था, के नेतृत्व में सेना धूल एवं धुएं के घटाटोप में सतर्कतापूर्वक आगे बढ़े, उन्होंने मराठों को अपनी प्रगति के संबंध में स्पष्ट अनुमान लगा सकने का भी अवसर नहीं दिया तथा वे असमंजस में जहां खड़े थे, वहीं खड़े रहे।
यद्यपि मराठे भूख के कारण दुर्बल हो रहे थे, क्योंकि उनके पास दोपहर तक खाने के लिए कुछ नहीं था, फिर भी उन्होंने अफगानों के उक्त भयंकर आक्रमण का बड़ी शूरता से सामना किया। युद्ध पूरे जोरों पर था तथा दोनों सेनाओं को काफी हानि हुई और दोनों पक्षों में बहुत से सैनिक मारे गए। गोलियों की बौछार एवं धक्का-मुक्की के उस अवसर पर अकस्मात ही लगभग 2 बजे अपराहन मराठा सेना के नामीय सेनापति 17 वर्षीय विश्वासराव के माथे पर सनसनाती हुई एक गोली आ लगी, जिससे वह हौदे में लुढ़क गया। इस घटना से भाऊ विचलित हो गया तथा मराठा सेना की कमर टूट गई।
उसी समय दो दुर्घटनाएं हुई। दो हजार अफगान सिपाहियों के एक सैन्य दल ने जो मराठा सेना में नियुक्त थे तथा उन्हें मराठा सेना के बाएं भाग में तैनात किया था, इसका साथ छोड़कर इसके ही माल सामान को लूटना आरंभ कर दिया। दूसरे अनुभवी सेनापति मल्हार राव होल्कर अपने सैन्य दलों के साथ युद्ध भूमि से चला गया।
इस गड़बड़ी में अहमद शाह दुर्रानी ने तुरंत बाशगुलज नामक दासों के अपने श्रेष्ठ सैन्य दलों के छह यूनिट सेना के मध्यभाग में भेजे। वे तीन भागों में विभाजित थे तथा उनमें से दो भाग दाएं से बाएं तथा पीछे की ओर फैल गए तथा तीसरे भाग ने मराठों पर पीछे से आक्रमण कर दिया। 1500 छोटी तोपों वाले ऊंटों ने महासंहार किया। यद्यपि मराठों को भारी हानि हुई, तथापि उन्होंने तीन बार प्रत्याक्रमण किया।
इस प्रकार विश्वराज की मृत्यु के एक घंटे के अन्तर्गत मराठा सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गई। भाऊ की जांघ पर भी बरछे और गोली का घाव लगा। जब वह युद्ध क्षेत्र में लंगड़ा कर चल रहा था, कुछ अफगान घुड़सवारों ने उस पर आक्रमण कर दिया, किंतु उसने सिंह की भांति पलट कर दो-तीन आक्रामकों को मार गिराया और अंत में उनके प्रहारों से धराशाही हो गया। काले आम का एक वृक्ष, ‘काला अम्ब’ जिसके नाम पर अब इस गांव का नाम रख लिया गया है, वही स्थान है, जहां इस मराठा वीर ने वीरगति प्राप्त की थी।
पानीपत की लड़ाई से यह निश्चित हो गया कि उत्तरी भारत पर मराठों तथा अफगानों में से किसी का भी शासन नहीं था। मराठे नष्ट हो गए, अफगान चले गए और सिक्खों तथा यूरोपियनों आदि के लिए रास्ता साफ हो गया।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृः 60