ग़ज़लें
1
हर तरफ ज़ुल्म है आतंक है तबाही है
और सितम ये है कि रोने की भी मनाही है
तू भले लाख छुपा ले तेरे गुनाहों को
वो जो ख़ुदा है हरिक ज़ुल्म देखता ही हैं
2
मैं खाक़ हूँ, ये जो सोना बता रहे हैं मुझे
ज़हीन लोग हैं चूना लगा रहे हैं मुझे
मैं चाहता हूँ कि रोटी नसीब हो मुझ को
वो चाँद तारों के किस्से सुना रहे हैं मुझे
जो कह रहे थे कि इक पल में भूल जाएंगे
एक अरसा हो गया अब तक भुला रहे हैं मुझे
3
कभी दरों से कभी खिड़कियों से बोलेंगे
सड़क पे रोको गे तो हम घरों से बोलेंगे
कटी ज़बाँ तो इशारे करेंगे आँखों से
जो सर कटे तो हम अपनी धड़ों से बोलेंगे
ये आसमान उन्हीं के सुनाएगा किस्से
जो अपनी बात को अपने परों से बोलेंगे
सवाल कर ही लिया हैं तो अब सम्भल जाओ
वो अब ज़बाँ से नहीं लाठियों से बोलेंगे
हमारा नाम भी लिख लीजे अपनी गोली पर
कि अब निकल के हम अपनी हदों से बोलेंगे
4
जो भी है, बिक जाने को तैयार है, धिक्कार है
हर तरफ बाज़ार ही बाज़ार है, धिक्कार है
वो, किया था छेद जिस ने कल तुम्हारी नाव में
आज उसके हाथ में पतवार है, धिक्कार है
गिद्ध हो तुम, खा रहे हो नोच कर इस मुल्क को
और कहते हो वतन से प्यार है, धिक्कार है
क्या यहाँ कोई नहीं जो रोक ले इस भीड़ को
क्या सभी की ज़ेहनियत बीमार है? धिक्कार है
कल जहाँ जयकार थी उत्साह था उल्लास था
अब वहाँ धिक्कार की दरकार है, धिक्कार है
आइये इक दूसरे को कोस लें हम और आप
ये हमारी ही चुनी सरकार है, धिक्कार है.
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मई-जून 2018), पेज – 29