चौथी शताब्दी में गुप्त वंश ने उत्तरी भारत को एकता प्रदान की। हरियाणा के लोगों ने उनकी इस कार्रवाई का स्वागत किया तथा यौधेय तथा अन्य लोग उनके साथ मिल गए ‘‘समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भ’’ लेख में कहा गया है कि ये लोग ‘‘सभी प्रकार के कर अदा करके, आदेशों का पालन करके तथा अभ्यर्थना द्वारा उसके उग्र समादेशों का पालन करते थे’’ समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् शक-कुशानों के आक्रमण के रूप में गुप्त साम्राज्य को पुनः संकट का सामना करना पड़ा। शक्तिहीन रामगुप्त अपनी राजमहिषी को अभ्यर्पित करके भी शांति के लिए तैयार था, परन्तु उसके वीर भाई चंद्रगुप्त ने अपनी विलक्षण कूटनीति द्वारा आक्रामकों को परास्त कर दिया। इसके शीघ्र बाद उसने बख्त्र देश में अपना प्रसिद्ध अभियान आरंभ कर दिया। इन अभियानों में हरियाणा के लोगों, विशेषकर यौधेयों द्वारा उसे पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई, जैसा कि अभी तक पर्याप्त रूप से अपुष्ट प्रमाण से स्पष्ट होता है।
चंद्रगुप्त के समय में शासन में प्रमुखतः युद्ध के देवता सकन्द अथवा कार्तिकेय की उपासना की जाती थी। काव्य के माध्यम से लोगों के अन्तस्तल में अंकित करने के उद्देश्य से राष्ट्र के महाकवि कालिदास ने ‘कुमारसम्भव’ का प्रणयन किया। इसी विचारधारा के अनुसार सम्राट ने अपने पुत्र का नाम भी कुमारगुप्त रखा। ‘कुमारगुप्त’ ने राजसत्ता प्राप्त करते ही कार्तिकेय सम्प्रदाय को संरक्षण प्रदान किया, जैसा कि 415-16 ईसवी के विलसद शिलालेख से प्रकट होता है। इस शिलालेख में किसी ध्रुवशर्मन द्वारा ब्रह्मण्यदेव स्वामी महासेन के देवालय में कुछ वृद्धि का उल्लेख है। यहां यह बात विशेषतः उल्लेखनीय है कि इस देवता का नाम यौधेयों की उक्त मुद्राओं से ग्रहण किया गया है। कुमारगुप्त ने इसके अतिरिक्त एक विशेष प्रकार की मुद्रा चलाई, जिस पर कार्तिकेय देवता अपने वाहन मयूर परवाणि पर सवार दिखाए गए हैं। केवल यह ही नहीं, उसने अपने बाद सिंहासनारूढ़ होने वाले अपने बड़े सपुत्र का नाम स्कन्द रखा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त से लेकर स्कन्दगुप्त तक कार्तिकेय सम्प्रदाय में सन्निहित शक्ति सिद्धांत गुप्त साम्राज्य की नीतियों में प्रमुख रूप से व्याप्त रहा और कवि कालिदास ने अपने उक्त काव्य में इसे उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की।
जैसा कि उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि कार्तिकेय सम्प्रदाय यौधेयों का प्रमुख मत बन गया था और उनकी सैनिक और राजनीतिक विचारधारा इसी पर आधारित थी। महामयूरी (V, 21) में कुमार कार्तिकेय को रोहतक का संरक्षण देव माना गया है और महाभारत में (II, 29, 3-5) इस नगर को इस देव का प्रिय आवास कहा गया है। यौधेय, जिनकी राजधानी रोहतक थी, कार्तिकेय को न केवल अपना इष्ट देव समझते थे, प्रत्युत उन्हें अपना शासक भी समझते थे और उनके नाम पर उन्होंने मुद्रा भी चलाई, जैसा कि ऊपर दर्शाया जा चुका है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यौधेयों ने शक-कुशानों से अपने सैनिक संघर्ष विषयक सिद्धांत के रूप में विशेषतः कार्तिकेय सम्प्रदाय को विकसित किया। इस तथ्य से कि गुप्त वंश ने चुद्रगुप्त से लेकर आगे तक इसे अपने साम्राज्यवादी सिद्धांत का अनिवार्य आधार बनाया, यही ध्वनित होता है कि उन्होंने भी इसे यौधेयों से ही ग्रहण किया। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस काल से गुप्त वंश और यौधेयों के परस्पर सम्बन्ध स्पष्टतः विजय और सुदृढ़ीकरण के कार्य में सन्निकट सम्पर्क के कारण घनिष्ठतम हो गए।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृ. 17