बुद्ध प्रकाश
यौधेयों ने, जिनके विषय में पहले उल्लेख किया जा चुका है, ई, पू. की प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्ध में अपनी मुद्रा चला कर भारतीय इतिहास में ख्याति प्राप्त की। उन सिक्कों को उनके रूपांकनों के आधार पर अनेक वर्गों में बांटा जा सकता है। कुछ पर चक्र वृक्ष, कुछ पर ध्वज और सूर्य तथा कुछ पर चक्र ध्वज सहित हाथी और बैल हैं। प्रतीत होता है कि जब बारूत्री, यूनानी रावी के पूर्व में आक्रमण कर रहे थे, तब उनके एक सरदार ने जिसे महाराज की उपाधि प्राप्त थी, उन्हें सुरक्षा के लिए संगठित किया। यद्यपि उन्होंने उक्त महाराज के अधीन प्रस्थान किया, तथापि उनकी गणतंत्रीय तथा अल्पतंत्रीय प्रकृति अक्षुण्ण रही, जैसा कि उनके कुछ सिक्कों पर अंकित राजतंत्री प्रशासन के सूचक किसी लेख के स्थान पर यौधेयानाम् बहु-धान्य के मुद्रालेख से स्पष्ट होता है। उनकी शक्ति का रहस्य उनके युद्धनैपुण्य तथा कृषि.कौशल में निहित था और उनके सिक्कों पर अंकित हाथी और बैल इन्हीं के प्रतीक हैं। रुद्रदमन के जूनागढ़ शिलालेख से पता चलता है कि उन्होंने सामान्य भाषा में सामान्यतः वीर की उपाधि प्राप्त कर ली थी।
शकों तथा पहलवों के आगमन से यौधेयों के इतिहास में एक अन्य परिवर्तन हुआ। उन्होंने स्कन्द अथवा कार्तिकेय को अपना परिरक्षी देवता तथा लाक्षणिक शासक और स्थल, जल तथा वायु सेना का अध्यक्ष मानकर अपनी सैन्य शक्ति को सुसंगठित किया तथा उसी के नाम पर सिक्के चलाये, जैसा कि सिक्कों पर अंकित मुद्रालेख यौधेय भगवत स्वामिन ब्रह्मण्यदेवस्य (यौधेयों के देवता ब्रह्मण्य का) से स्पष्ट हो जाता है। इनमें से कुछ किस्म के सिक्कों पर स्कन्द के स्थान पर त्रिशूलधारी शिव प्रतिमा अंकित हैए जिससे स्पष्ट होता है कि किसी समय वे शिव को भी अपना देवता और स्वामी मानते थे। इन सिक्कों के पिछली ओर सम्भवतः क्रमशः शिवालिक और सरस्वती के द्योतक पर्वत तथा नदी के मध्य सुख-समृद्धि के प्रतीक कमल पर लक्ष्मी खड़ी हुई है। यदा-कदा परम्परागत धारणा के अनुसार ब्रह्मावर्त अथवा आर्यवर्त की प्रतीक लक्ष्मी के स्थना पर हरिण देखने में आता है। कभी-कभी कुछ सेनापतियों के नाम आते हैं, जैसे कि भानुवर्मन जिसने शकों से युद्ध में विशेष ख्याति प्राप्त की।
कुशानों के आगमन से यौधेय परास्त हो गए, किंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और युद्ध के लिए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करते रहे। हुविष्क के पश्चात् उन्होंने कुशानों के कुछ दुर्गों, जैसे हरियाणा में बाम्ला के निकट औरंगाबाद पर अधिकार करके अपना आक्रमण आरंभ किया। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि इस मुद्रांकनशाला स्थल पर कनिष्क और हुविष्क के सिक्कों के सांचों के साथ-साथ यौधेयायें के सिक्कों के सांचे भी उपलब्ध हैं किंतु वासुदेव के सिक्कों के सांचे उपलब्ध नहीं होते। उस स्थल से उन्होंने वासुदेव के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा और अनेक भागों में उसके शासन को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सोनीपत के समीप मुल्हण, सिदिपुर लोवाए क्रिसेनहटी करोंथा, भिवानी आदि सेए लुधियाना के समीप सुनेत तक वासुदेव और यौधेयों के नाम वाले मुद्राकोषों की खोज से यह स्पष्ट हो जाता है कि यौधेयों ने वासुदेव के अधीन कुशानों के शासन के विरुद्ध सम्पूर्ण शक्ति के साथ आक्रमण किया। एक नई प्रकार की मुद्रा से यह बात सिद्ध हो जाती है कि इस संघर्ष में यौधेय विजयी हुए। इस मुद्रा की सीधी तरफ युद्धदेव कार्तिकेय दाएं हाथ में माला लिये खड़े हैं और बायां हाथ कटि प्रदेश पर रखा हुआ है तथा समीप ही मोर खड़ा है। इन मुद्राओं पर पर अंकित चित्र जिस गति, साहस और स्फूर्ति के भाव को अभिव्यक्त करते हैं, वह मुद्राओं के सीधी तरफ अंकित यौधेय गणस्य जयः (यौधेय गणतंत्र की जय) मुद्रालेख में स्वरित हो जाता है। प्रतीत होता है कि वे लोग तीन श्रेणियों या शाखाओं में बंटे हुए थे और प्रत्येक ने मुद्राओं पर द्वि (द्वितीय) और त्रि (तृतीय) अंकित कर अपनी विलग सता बनाए रखी। उनके प्रतीक भी भिन्न-भिन्न हैं-एक प्रकार की मुद्रा पर केवल देवी अंकित है, दूसरी मुद्राओं पर देवी के बाईं ओर कलश तथा दाईं ओर अधोमुखी त्रिशूल है। तीसरी पर उसकी दाएं ओर शंख है और बाईं ओर दो सर्प हैं। यौधेयों की प्रथम शाखा ने प्रथम प्रकार की मुद्रा चलाई, दूसरी ने द्वितीय प्रकार की और तीसरी ने अंतिम प्रकार की। यद्यपि उन्होंने अपनी पृथक-पृथक सत्ता को बनाये रखा, तथापि वे अपने-अपने कुल के सामान्य लक्षणों, युद्ध देवता स्कन्द और देवी को मानते रहे और महाराज महासेनापति कहलाने वाले अपने सरदारों का नाम अंकित करने की बजाय अपना सामान्य मुद्रालेख यौधेयगणस्य जयः रखना उचित समझा। इस प्रकार उन्होंने अनेकता में एकता की अनुपम युक्ति के अनुसार कार्य किया और जैसा कि हमें सुनेत में पाई गई उनकी एक मुद्रा से ज्ञात होता है, इसी के कारण उन्होंने रहस्यमय जयमंत्रधारी अजेय योद्धा के रूप में ख्याति प्राप्त की।
दिल्ली, सोनीपत, पानीपत, हांसी, सिरसा, अबोहर, भटनेर, सहारनपुर आदि से लेकर पश्चिम में देपालपुर, सतगढ़, अजुधान, कहरोल और मुलतान तथा उत्तर में कांगड़ा तक प्राप्त उनकी मुद्राओं से स्पष्ट हो जाता है कि यौधेयों का विशाल क्षेत्र पर अधिकार था। खोकराकोट से लेकर लुधियाना तक का विशाल प्रदेश सर्वथा उनके नियंत्रणाधीन था और यहीं पर उन्होंने युद्धप्रिय हिन्दूधर्म की विचार धारा का विकास, संस्कृत परम्परा का पुनरुत्थान तथा आर्थिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति, मुक्ति और मुक्ति विचारधारा में सामंजस्य स्थापित जोकि पुराणों में सुरक्षित प्राचीन संस्कृति का मर्म है।
अर्जुनायन यौधेयों के समकालीन और सहयोगी थी। उनकी मुद्रा यौधेयों की मुद्रा से पर्याप्त मिलती-जुलती है। वे शिव के उपासक थे और उनकी मुद्रा पर शिव के प्रतीक नंदी तथा लिंग अंकित थे। वे दिल्ली-जयपुर-आगरा के क्षेत्र में अधिक संख्या में थे। संघर्ष के उस युग में शक्ति प्राप्त करने वाले अन्य लोग अग्रोदक या अग्रोहा के अग्रेय अथवा अग्रवाल थे। उन द्वारा चलाई गई मुद्रा के सीधी और चक्रवृक्ष तथा उलटी ओर बैल अथवा सिंह अंकित थे। उन पर अंकित मुद्रालेख इस प्रकर है: अग्रोदक अगाका जनपदस्य। यह ज्ञातव्य है कि सोलहवीं शती तक उनकी गणना ठाकुरों या क्षत्रियों में होती थी जैसे कि मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत के एक उद्धरण से स्पष्ट है। (503, 3, सम्पादक वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ. 532)। बाद में ही उन्हें व्यापारी या बनिया कहा जाने लगा। यवनों का विरोध करने वाला पूर्वी पंजाब का एक सुप्रसिद्ध कुल औदुम्बरों का था। उनकी मुद्रा से विदित होता है कि उन्होंने रणकुशल वेद मुनि विश्वामित्र को अपना गुरु तथा अपने राज्य की प्रतिमूर्ति मानते हुए प्राचीन भरतों और पुरुओं की परम्परा को पुनः चलाया। उनका राज्य यौधेयों के राज्य में मिल गया और उनका आक्रमण हिन्दू धर्म का सिद्धांत यौधेय के धर्म का अंग बन गया। कुनिंदा औदुम्बरों के पड़ौसी थे, जो यमुना और सतलुज के मध्य शिवालिक पहाड़ियों की तराई में और सतलुज तथा ब्यास के ऊपरी तटों के मध्य क्षेत्र में बसे हुए थे। उनका भी उत्थान हुआ और उन्होंने अपनी मुद्रा पर आर्यवर्त की समृद्धि की प्रतीक लक्ष्मी तथा हरिण की मूर्ति अंकित थी। कुषाणों के सांचों में ढाली गई उनकी कुछ मुद्राओं पर त्रिषूलधारी शिव की प्रतिमा और हरिण, वृक्ष तथा नदी के चिन्ह कुषाणों के साथ उनके संघर्ष को दर्शाते हैं। शीघ्र ही वे भी यौधेयों की विकासोत्मुखी शक्ति में लीन हो गए और प्रमुखतः यौधेयों ने कुषाणों के विरुद्ध संघर्ष किया। इस प्रकार चतुर्थ शती ईसवी तक यौधेय हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी राजस्थान तथा पूर्वी पंजाब की सर्वश्रेष्ठ तथा प्रभावशाली शक्ति बन गए थे और उन्हें विजयश्री प्राप्त करने के मंत्र के ज्ञाता समझा जाता था।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृ. 13