बुद्ध प्रकाश
कालांतर में कुरु साम्राज्य राजनीतिक गौरव तथा आर्थिक उत्थान का केंद्र बन गया। महाभारत से यह पता चलता है कि उस समय कुरुवंश का गौरव तथा समृद्धि पराकाष्ठा पर थी। किंतु इससे पड़ोसी, विशेषतया पूर्व में पांचाल, विरोधी भी हो गए। उसके साथ-साथ सामाजिक विकास के कारण दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक हो गया और परम्परा तथ प्रगति अन्तर्विरोध उभर कर सामने आया। समाज परिवारों, जातियों तथा कबीलों का समूह था, जिनकी निष्ठा परिसीमित तथा संबंध संकीर्ण थे, जबकि आर्थिक उन्नति सदस्यों की व्यक्तिगत रूचि तथा दक्षता द्वारा निश्चित व्यवसाय विशेषों के माध्यम से हो रही थी और इसका आधार सार्वजनिक हित था न कि वंशीय अथवा प्रादेशिक संबंध। इन दो विचार पद्धतियों का विरोध कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन तथा कृष्ण के संवाद में स्पष्टतः लक्षित होता है। अर्जुन पारिवारिक परम्परा, अर्थात् कुलधर्म को कर्त्तव्य-निश्चायक मानता था, जबकि कृष्ण ने कर्म को ही अनिवार्य कर्तव्य बताया। अर्जुन ने परिवार को एक ऐसी अविंच्छिन्न श्रृंखला बताया जो पूर्वजों, उत्तर जीवियों तथा भावी संतति को परस्पर मिलाती है और व्यक्तिगत हानि-लाभ से ऊपर उठकर एकता की भावना का विकास करती है। कृष्ण ने समाज का वर्गीकरण व्यवसाय के आधार पर किया, जिसके सभी सदस्य कर्त्तव्य के विशाल जाल में समान गुण और कर्म द्वारा श्रृंखलाबद्ध होते हैं।
ये कर्त्तव्य पारिवारिक बंधनों से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार अर्जुन ने कहा कि व्यक्तिगत लाभ के लिये अपने परिवार वालों से युद्ध करके उनका हनन नहीं करेगा, क्योंकि परिवार के विनाश से व्यक्ति की उपलब्धियां निरर्थक हो जाती हैं। कृष्ण ने इस बात पर जोर दिया कि उसे अपने व्यवसाय के अनुरूप अपने कर्त्तव्य के भार को वहन करने के लिये युद्ध में उनका हनन करना पड़ेगा । परम्परागत संबंध वाले वर्ण धर्म और व्यक्तिगत प्रतिमा पर आधारित व्यावसायिक संबंधों वाले वर्ण धर्म के मध्य यह मतभेद ही भगवद् गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य है और यही वह आकाश-दीप है जो कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के रूप में समुपस्थित इस अन्तर्विरोध पर प्रकाश डालता है।
महाभारत में इस महायुद्ध की घटनाओं का अत्यन्त गहन तथा जीवन्त चित्रण किया है। इसमें भारत के प्रायः सभी लोगों ने भाग लिया। स्पष्टतः इसमें वर्णित सभी घटनाएं ऐतिहासिक नहीं मानी जा सकतीं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वर्णित अनुसार कुरुओं और पांडुओं का परस्पर कोई सम्बद्ध था भी अथवा नहीं। किंतु इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन का सूचक है जिसमें वंशीय और प्रादेशिक मूल्यों का स्थान आर्थिक एवं व्यावसायिक आधार ने ले लिया और वही नानाविध देशवासियों की एकता का मूलाधार बना। अन्य क्रांतियों के समान इससे भी उथल-पुथल और घोर अव्यवस्था फैली, परन्तु जीर्ण-शीर्ण परम्परा समाप्त हो गई और प्रगति एवं विकास का मार्ग खुल गया जो एकता तथा सामंजस्य की नव प्रवृत्तियों में प्रस्फुटित हुआ।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृ. 6