मंगतराम शास्त्री
आज का दिन भी वैसा ही बीतेगा जैसा कल बीता।
कल का दिन भी वैसा ही बीतेगा जैसा कल बीता।।
सैकिंड मिन्ट और घंटे दिन मास बरस भी बीत रहे
समय का पहिया कब हारा है किसने इसको है जीता।
कैसे कहूं मुबारक कल को भी वैसे ही छल होगा
जैसे आज लगाया दफ्तर वालों ने मुझको फीता।
चाहे एक जनवरी हो या चैत्रमास की हो एकम
मेरे लिए तो हैं दोनों ही दिवस बाइबिल और गीता।
तब तक मंगल दिन कैसे हो सकते हैं भारत भर में
जब तक यहां परीक्षा अग्नि की देती रहेंगी सीता।
काली रातें बीतेंगी तब ही तो होगा नया विहान
नए साल के स्वागत में तब लिख पाऊंगा मैं कविता।
खड़तल सारा दिन अपना तन खेत में रेत बनाता जो
वो कैसे नव वर्ष मनाए जब तक है बर्तन रीता।