जिस मुल्क में बेटियों की भ्रूण हत्या को रोकने के लिए बेटी बचाओ जैसा कैंपेन चलाना पड़े उस देस में बेटियाँ कितनी सशक्त होंगी यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है, जिन बेटियों को कैंपेन चला कर, कानूनी धाराएं लगा कर बचाया गया है उनका भविष्य कहाँ तक सुरक्षित है और वे लड़कियाँ कितनी स्वतंत्र होंगी अपने फैसला लेने में और उन्हें कितनी बराबरी का दर्जा मिलता होगा ये अंदाज़ा आप लगा सकते हैं।
स्त्रियों के खिलाफ सदियों से चली आ रही यह कंडीशनिंग इस मुल्क में भयावह है, और इसकी सब से बुरी बात यह है कि इसमें शिकार भी महिला है और हथियार भी स्वयं महिला है जिसे पितृसत्तात्मक शक्तियों द्वारा उसी के ख़िलाफ़ प्रयोग किया जाता है ।
मैने एक चर्चा में कह दिया था कि पाज़ेब लड़की के पाँव की बेड़ी है और कंगन हथकड़ी, और फिर वहाँ मौजूद संस्कृति के रक्षक इन्हें गहना बताते हुए यशगान करने लगे कि यह तो लड़की के सौंदर्य को बढ़ाते हैं उसमें चार चाँद लगाते हैं, यह गहने हमारी परंपरा है इत्यादि इत्यादि ।
मैं पूछता हूँ कि क्या सुंदर दिखना ही लड़की का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए?? क्या एक लड़की की पहचान सिर्फ एक सुंदर दिखने वाला शरीर है? तुम लोग यह चाहते हो कि लड़की एक गुड़िया की तरह रहे जिसे तुम जो पहनाना चाहो वो पहने, जिसे तुम जैसे चाहो सजाओ, जिसके साथ जी भर के खेलो और जब चाहो तोड़ दो।
नहीं ! लड़की कोई गुड़िया नहीं है, वो मात्र देह नहीं है, वो आत्मा है तुम्हारी ही तरह, वो आज़ादी चाहती है तुम्हारी ही तरह, वो पढ़ना चाहती है, वो खेलना चाहती है, वो आगे बढ़ना चाहती है वो नाम कमाना चाहती है, वो जो जी मे आये करना चाहती है, लेकिन आप की कंडीशनिंग उसे ये सब नहीं करने दे रही, आप एक पूरे तबके के अपराधी हैं जिस के साथ आपने सदियों तक सिर्फ इस आधार पर भेदभाव किया क्योंकि वो लड़की है।
शिक्षा के विकास के साथ थोड़ा बदलाव ज़रूर आया है जिस से कुछ लड़कियाँ इस कंडीशनिंग को तोड़ पाने में कामयाब हुई हैं और वो अपनी ज़िंदगी मे काफी हद तक सेटल्ड हैं और अपनी ज़िंदगी के ज्यादातर फैसले ख़ुद लेती हैं, जो जी मे आये करती हैं, जो जी मे आये पहनती हैं जहाँ जी चाहे घूमती हैं,जो मीडिया में, कॉरपोरेट्स में, पॉलिटिक्स में, और सिस्टम के अन्य बहुत्त से बड़े पदों पर पदस्थ हैं तथा देस दुनिया के तमाम मुद्दों की समझ रखती हैं और उन पर चर्चाएँ करती हैं ।
लेकिन लड़कियों का एक बड़ा तबका आज भी उसी कंटीली कंडीशनिंग से जूझ रहा है, जो फड़फड़ा रही हैं, लहूलुहान हैं, आज़ाद होना चाहती हैं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रही हैं, इन लड़कियों में मुख्यतः ग्रामीण लड़कियाँ होती हैं जिनके चारों और शिकारी हैं, एक जानलेवा कंडीशनिंग है, जिनके गले मे दुपट्टा है।
दुपट्टा शब्द देख कर शायद आप मे से बहुतों को बुरा लगे और आप इसे पचा न पायें क्योंकि मध्यमवर्ग का एक बड़ा तबका ऐसे परिवारों का है जिनमे ये लड़कियाँ पाई जाती हैं, हम अपने घरों में ऐसी लड़कियों को देखने के आदी हो चुके हैं, हमें इस मे कुछ भी अजीब नहीं लगता क्योंकि कहीं न कहीं हम सब उसी कंडीशनिंग के दायरे में रह कर देखते हैं व सोचते हैं । लेकिन मैं फिर भी कहूँगा कि दुपट्टा एक लड़की के गले का फंदा है।
जिस उम्र में इस कंडीशनिंग को तोड़ चुकी लड़कियाँ मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग ले रही होती हैं, डांस/म्यूजिक क्लासेज अटेंड कर रही होती हैं, डिबेट्स में पार्टिसिपेट करना शुरू कर चुकी होती हैं उसी उम्र में इन बेचारी लड़कियों को यह सिखाया जा रहा होता है कि दुपट्टा लेना क्यूँ ज़रूरी है, दुपट्टे को मैनेज कैसे करना है? दुपट्टे के बिना घर से निकली तो चार लोग क्या कहेंगे इत्यादि इत्यादि।
जैसे ही दुपट्टा एक लड़की को सौंपा जाता है इसका सीधा सीधा अर्थ यह है कि समाज की कंडीशनिंग ने उस बच्ची के गले मे फन्दा डाल दिया है! जो अब तक चिड़ियों की तरह चहक रही थी, तितली की तरह मंडरा रही थी, जो अपने आप को आज़ाद परिंदा समझ रही थी, जिसे अब तक ख़ुद से बाहर के भयावह जंगल का अंदाज़ा नहीं था अब वो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के शिकंजे में कसी जा चुकी है।
उसे फंदे की आदत नहीं है सो वो निकल जाती है बाहर गली में खेलने अपने भाई के साथ और जब घर आती है तो माँ की डांट सुनती है कि क्यूँ गयी बिना दुपट्टे के बाहर? वो अपने भाई की तरफ देखती है और माँ से कहती है “माँ भैया भी तो बिना दुपट्टे के गए थे .. फिर मुझे ही क्यूँ डांटा?? और इसका किसी माँ के पास कोई जवाब नहीं है क्योंकि उस माँ को भी इसी वजह से डाँटा गया है बचपन मे अनेकों बार और आज माँ का वही दुपट्टा घूँघट बन चुका है, कल बेटी का यही दुपट्टा उसका घूँघट हो जाएगा, बस यही जीवन है इस देस में एक लड़की का।
अपने अक्सर देखा होगा बसों में ट्रेनों में बाज़ार में दुपट्टा इधर उधर हो जाने पर झिझकी हुई लड़कियों को जो फटाफट उसे ठीक करने में लग जाती हैं , लड़कियाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था की गुलाम हैं और दुपट्टा उनके गले मे डाला हुआ आइडेंटिटी कार्ड जो हमेशा उन्हें याद दिलाता है कि आप को यह करना है यह नहीं करना है। दुपट्टा हमेशा लड़की को एहसास दिलाता है कि वो एक लड़की है , लड़का नहीं है इसलिए लड़कियों की तरह सोचे, लड़कियों वाले काम करे ! काम शिकारी ने तय किये हुए हैं , दुपट्टा लड़कियों के मन मे वो आत्मविश्वास नहीं पैदा होने देता जो उसे आगे बढ़ने के लिए चाहिए।
आज जब इस कंडीशनिंग को तोड़ चुकी लड़कियाँ यह साबित कर चुकी हैं कि कोई भी काम लड़कों वाला या लड़कियों वाला नहीं होता है, वो सब काम कर सकती हैं बस उनके पैरों से बेड़ियाँ निकाल ली जाएं, उनके हाथों की हथकड़ियाँ तोड़ दी जाएं और उनके गले से फन्दा खींच लिया जाए, फिर भी दूसरी तरफ लड़कियों को यही समझाया जा रहा है कि दुपट्टा आप के चरित्र का प्रमाण है, आपके अच्छा होने आपके संस्कारी होने का प्रमाण है।
ये समाज, संस्कृति, चरित्र, संस्कार इत्यादि ऐसे शब्द हैं जिनका सहारा ले कर हजारों साल से स्त्री का शोषण हुआ है और आज तक हो रहा है , दुपट्टा क्यूँ ज़रूरी है इसका तार्किक जवाब किसी के पास नहीं है सो पितृसत्तात्मक शक्तियों ने इसे संस्कार के साथ जोड़ कर अपना काम आसान कर लिया है।
मजाज़ ने एक शेर कहा था कि
तेरे माथे का ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
मैं इस कंडीशनिंग की शिकार लड़कियों से बस यही कहना चाहता हूँ कि आप जिनको अपना आदर्श समझती हैं, जिनके जैसा बनना चाहती हैं उनमें से एक भी आपकी तरह दुपट्टे से लिपटी नहीं रहती थी, आप कल्पना चावला, सायना नेहवाल, सानिया मिर्ज़ा या और कोई भी लड़की जो आपका आदर्श है उसकी पिक्स गूगल करिए ,आपको कहीं भी दुपट्टा नहीं दिखेगा। सीधी सी बात यह है कि अगर आप को आगे बढ़ना है आपको वो करना है जो आप करना चाहती हैं तो आप को यह कंडीशनिंग तोड़नी पड़ेगी, आपको अपने पाँव से बेड़ियाँ निकालनी होंगी, तोड़नी होंगी अपने हाथों की हथकड़ियाँ और निकाल के हवा में उड़ा देने होंगे अपने गले के तमाम फंदे ।