अल्ताफ़ हुसैन हाली पानीपती की पुण्य तिथि के अवसर पर। हाली का जन्म हुआ था सन् 1837 में और मृत्यु हुई 31 दिसंबर 1914 में। हाली की एक कविता है ‘हुब्बे वतन’ यानी देश-प्रेम। हरियाणा सृजन उत्सव में जन नाट्य मंच कुरुक्षेत्र ने 25 फरवरी 2017 को इसके एक अंश को प्रस्तुत किया था।
हुब्बे वतन1
अल्ताफ़ हुसैन हाली पानीपती
(1874)
ए सिपहरे2 बरीं के सय्यारो3
ए फ़िज़ाए ज़मीं के गुलज़ारो
ए पहाड़ों की दिल फ़रेब फज़ा
ए लबे जू4 की ठण्डी-ठण्डी हवा
ए अनादिल5 के नग़म-ए-सहरी
ए शबे माहताब6 तारों भरी
ए नसीमे बहार के झोंको
दहरे ना पाएदार के धोको
तुम हर एक हाल में हो यूँ तो अज़ीज़
थे वतन में मगर कुछ और ही चीज़
जब वतन में हमारा था रहना
तुमसे दिल बाग़-बाग़ था अपना
तुम मेरी दिल लगी के सामाँ थे
तुम मेरे दर्दे दिल के दरमाँ7 थे
तुमसे कटता था रन्जे तन्हाई
तुमसे पाता था दिल शकेबाई8
आन एक-एक तुम्हारी भाती थी
जो अदा थी वो जी लुभाती थी
करते थे जब तुम अपनी ग़म ख़्वारी
धोई जाती थी कुल्फ़तें9 सारी
जब हवा खाने बाग़ जाते थे
हो के खुशहाल घर में आते थे
बैठ जाते थे जब कभी लबे आब
धो के उठते थे दिल के दाग़ शिताब10
कोहो11 सहराओ आसमानो ज़मीं
सब मेरी दिल लगी की शक्लें थीं
पर छूटा जब से अपना मुलको दयार
जी हुआ तुम से खुद ब खुद बेज़ार
न गुलों की अदा खुश आती है
न सदा बुलबुलों की भाती है
सैरे गुलशन है जी का एक जंजाल
शबे महताब जान का है वबाल
कोहो सहरा12 से ता लबे दरिया
जिस तरफ़ जाएं जी नहीं लगता
क्या हुए वो दिन और वो रातें
तुम में अगली सी अब नहीं बातें
हम ही गुरबत13 में हो गए कुछ और
या तुम्हारे ही कुछ बदल गए तौर
गो वही हम हैं और वही दुनियां
पर नहीं हम को लुत्फ़ दुनियां का
* * *
ए वतन ए मेरे बहिश्ते14 बरीं
क्या हुए तेरे आसमानो ज़मीं
रात और दिन का वो समाँ न रहा
वो ज़मीं और वो आसमाँ न रहा
तेरी दूरी है मूरिदे आलाम15
तेरे छुटने से छुट गया आराम
काटे खाता है बाग़ बिन तेरे
गुल हैं नज़रों में दाग़ बिन तेरे
मिट गया नक्श कामरानी16 का
तुझसे था लुत्फ़ जि़ंदगानी का
जो के रहते हैं तुझसे दूर सदा
उनको क्या होगा जि़ंदगी का मज़ा
हो गया याँ तो दो ही दिन में ये हाल
तुझ बिन एक-एक पल है एक-एक साल
सच बता तू सभी को भाता है
या के मुझसे ही तेरा नाता है
मैं ही करता हूँ तुझपे जान निसार
या के दुनिया है तेरी आशिक़े जार
क्या ज़माने को तू अज़ीज़ नहीं?
ऐ वतन तू तो ऐसी चीज़ नहीं
जिन्नो इंसान की हयात17 है तू
मुर्ग़ो माही18 की कायेनात है तू
है नबातात19 को नमू तुझ से
रूख20 तुझ बिन हरे नहीं होते
सबको होता है तुझसे नशवो नुमा
सबको भाती है तेरी आबो हवा
तेरी एक मुश्ते21 ख़ाक के बदले
लूँ न हरगिज़ अगर बहिश्त22 मिले
जान जब तक न हो बदन से जुदा
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा
* * *
हमला जब क़ौमे आर्या ने किया
और बजा उनका हिन्द में डंका
मुल्क वाले बहुत से काम आए
जो बचे वो गुलाम कहलाए
शुद्र कहलाए राक्षस कहलाए
रंज़ परदेस के मगर न उठाए
गो गुलामी का बन गया धब्बा
न ‘छुटा उनसे देस’ पर न छुटा
* * *
क़द्र ए दिल वतन में रहने की
पूछे परदेसियों के जी से कोई
जब मिला रामचन्द्र को बनवास
और निकला वतन से होके उदास
बाप का हुक्म रख लिया सर पर
पर चला साथ लेके दाग़े जिगर
पाँव उठता था उसका बन की तरफ
और खिंचता था दिल वतन की तर
गुज़रे गुरबत में इस क़दर महो साल
पर न भूला अजुध्या की ख़्याल
देस को बन में जी भटकता रहा
दिल में काँटा सा एक खटकता रहा
तीर एक दिल में आके लगता था
आती थी जब अजुध्या की हवा
काटने चौदह बरस हुए थे महाल23
गोया एक एक जुग था एक एक साल
* * *
हुए यसरिब की सिम्त जब राही
सय्यदे बतहा के हम राही
रिश्ते उल्फ़त के सारे तोड़ चले
और बिल्कुल वतन को छोड़ चले
गो वतन से चले थे होके ख़फ़ा
पर वतन में था सबका जी अटका
दिल लगी के बहुत मिले सामाँ
पर न भूले वतन के रेगिस्ताँ
दिल में आठों पहर खटकते थे
संगरेज़े24 ज़मीने बतहा के
घर जफ़ाओं से जिनकी छूटा था
दिल से रिश्ता न उनका टूटा था
* * *
हुई यूसुफ़ की सखतियाँ जब दूर
और हुआ मुल्के मिस्र पर मामूर
मिस्र में चार सू था हुक्म रवाँ
आँख थी जानिबे वतन निगराँ
बादे किनआँ जब उसको आती थी
सल्तनत सारी भूल जाती थी
दुख उठाए थे जिस वतन में स$ख्त
ताज भाता था उस बग़ैर न त$ख्त
जिनसे देखी थी सख़्त बे मेहरी
लौ थी उन भाईयों की दिल को लगी
* * *
हम भी हुब्बे वतन25 में गो हैं ग़र्क़
हममें और उनमें है मगर ये फ़र्क़
हम हैं नामे वतन के दीवाने
वो थे अहले वतन के परवाने
जिसने यूसुफ़ की दास्तां है सुनी
जानता होगा रूदाद उसकी
मिस्र में क़हत26 जब पड़ा आकर
और हुई क़ौम भूख से मुज़तर27
कर दिया वक़्फ़ पा बैतुलमाल28
लब तक आने दिया न हरफ़े सवाल
खत्तियाँ और कोठे खोल दिए
मुफ़्त सारे ज़ख़ीरे तोल दिए
क़ाफ़िले खाली हाथ आते थे
और भरपूर याँ से जाते थे
यूँ गए क़हत के वो साल गुज़र
जैसे बच्चों की भूख वक़्ते सहर
* * *
ए दिल! ए बन्दे वतन हुश्यार
ख़्वाबें ग़फ़लत29 से हो ज़रा बेदार30
ओ शराबे ख़ुदी के मतवाले
घर की चौखट के चूमने वाले
नाम है क्या इसी का हुब्बे वतन
जिसकी तुझको लगी हुई है लगन
कभी बच्चों का ध्यान आता है
कभी यारों का ग़म सताता है
याद आता है अपना शहर कभी
लौ कभी अहले शहर की हैं लगी
नक्श है दिल पे कूच31 ओ बाज़ार
फिरते आंखों में है दरो दीवार
क्या वतन की यही मुहब्बत है
ये भी उल्फ़त में कोई उल्फ़त है
इसमें इन्सां से कम नहीं है दरिंद
इससे ख़ाली नहीं परिंदो चरिंद
टुकड़े होते हैं संग32 गुरबत में
सूख जाते हैं रूख फ़ुरक़त33 में
जाके काबुल में आम का पौधा
कभी परवान चढ़ नहीं सकता
आके काबुल से याँ बहीओ अनार
हो नहीं सकते बारवर जि़न्हार34
मछली जब छूटती है पानी से
हाथ धोती है जि़न्दगानी से
आग से जब हुआ समन्दर दूर
उसके जीने का फिर नहीं मक़दूर35
घोड़े जब खेत से बिछड़ते हैं
जान के लाले उनकी पड़ते हैं
गाय या भैंस, ऊँट या बकरी
अपने अपने ठिकाने ख़ुश हैं सभी
कहिए हुब्बे वतन इसी को अगर
हमसे हैवाँ नहीं हैं कुछ कमतर
* * *
है कोई अपनी क़ौम का हमदर्द36
नोए इंसां का जिसको समझें फ़र्द37
जिसपे इतलाक़38 आदमी हो सही
जिस को हैवाँ पे दे सकें तरजीह
क़ौम पर कोई ज़द न देख सके
क़ौम का हाले बद न देख सके
क़ौम से जान तक अज़ीज़ न हो
क़ौम से बढ़ के कोई चीज़ न हो
समझे उन की खुशी ओ राहते जाँ
वाँ जो नौरोज़ हो तो ईद यहाँ
रंज को उनके समझे माया39 ए ग़म
वाँ अगर सोग हो तो याँ मातम
भूल जाँए सब अपनी क़द्रे जलील40
देख कर भाईयों को ख़्वारो ज़लील41
जब पड़े उन पे गरदिशे अफ़लाक42
अपनी आसाइशों पे डाल दे ख़ाक
* * *
बैठे बेफ़िक्र क्या हो हम वतनो!
उठो अहले वतन के दोस्त बनो!
मर्द हो तो किसी के काम आओ
वरना खाओ, पियो, चले जाओ
जब कोई जि़ंदगी का लुत्फ़ उठाओ
दिल को दुख भाइयों के याद दिलाओ
पहनो जब कोई उम्दा तुम पोशाक
कहो दामन से ता गिरेबाँ चाक
खाना खाओ तो जी में तुम शरमाओ
ठंडा पानी पिओ तो अश्क बहाओ
कितने भाई तुम्हारे हैं नादार43
जि़ंदगी से है जिन का दिल बेज़ार44
नौकरों की तुम्हारे जो है ग़िज़ा45
उनको वो ख़्वाब में नहीं मिलता
जिसपे तुम जूतियों से फिरते हो
वाँ मयस्सर नहीं वो ओढऩे को
खाओ तो पहले लो ख़बर उनकी
जिनपे बिपता है नेस्ती46 की पड़ी
पहनो तो पहले भाईयों को पहनाओ
के है उतरन तुम्हारी जिनका बनाओ
एक डाली के हैं सब बरगो समर47
है कोई उनमें ख़ुश्क और कोई तर
सब को है एक अस्ल से पेवन्द48
कोई आजुरदा49 है कोई ख़ुरसन्द50
मुक़बिलों51! मुदब्बिरों52 को याद करो
खुशदिलों! ग़मज़दों को याद करो
जागने वालो! ग़ाफ़िलों53 को जगाओ
तैरने वालो! डूबतों को तिराओ
है मिले तुमको चश्मो गोश54 अगर
लो जो ली ज़ाए कोरो कर्र55 की ख़बर
तुम अगर हाथ पाँव रखते हो
लंगड़े लूलों को कुछ सहारा दो
तन्दरुस्ती का शुक्र क्या है बताओ
रंज56 बीमार भाईयों का बटाओ
तुम अगर चाहते हो मुल्क की ख़ैर57
न किसी हम वतन को समझो ग़ैर58
हो मुसलमान उसमें या हिन्दू
बौद्ध मज़हब हो या के हो ब्रहमू
जाफ़री होवे या के हो हनफ़ी
जैन मत होवे या के हो वैष्नवी
सब को मीठी निगाह से देखो
समझो आंखों की पुतलियाँ सबको
मुल्क है इत्तफ़ाक़59 से आजाद
शहर है इत्तफ़ाक़ से आजाद
हिन्द में इत्तफ़ाक़ होता अगर
खाते ग़ैरों की ठोकरें क्योंकर
क़ौम जब इत्तफ़ाक़ खो बैठी
अपनी पूँजी से हाथ धो बैठी
एक का एक हो गया बदख़्वाह60
लगी ग़ैरों की पडऩे तुमपे निगाह
फिर गए भाईयों से जब भाई
जो न आई थी वो बला61 आई
पाँव इक़बाल62 के उखडऩे लगे
मुल्क पर सबके हाथ पडऩे लगे
कभी तोरानियों ने घर लूटा
कभी दुर्रानियों ने ज़र लूटा
कभी नादिर ने कत्लेआम किया
कभी महमूद ने गुलाम किया
सबसे आख़िर को ले गई बाज़ी
एक शाइस्ता63 क़ौम मग़रिब64 की
ये भी तुम पर खुदा का था इनाम
के पड़ा तुमको ऐसी क़ौम से काम
वरना दम मारने ना पाते तुम
पड़ती जो सर पे वो उठाते तुम
मुल्क रौंदे गए हैं पैरों से
चैन किसको मिला है ग़ैरों से
* * *
क़ौम से जो तुम्हारे हैं बरताओ65
सोचो ऐ मेरे प्यारो और शरमाओ
अच्छे दौलत को है ये इसतग़ना66
के नहीं भाइयों की कुछ परवा
शहर में क़हत67 की दुहाई है
जाने आलम लबों पे आई है
भूक में है कोई निढाल पड़ा
मौत की माँगता है कोई दुआ
बच्चे एक घर में बिलबिलाते हैं
रो के मां बाप को रूलाते हैं
कोई फिरता है माँगता दर दर
है कहीं पेट से बँधा पत्थर
पर जो है इनमें साहिबे मक़दूर68
इनमें गिनती के होंगे ऐसे ग़यूर69
के जिन्हें भाइयों का ग़म होगा
अपनी राहत का ध्यान कम होगा
जितने देखोगे पाओगे बेदर्द
दिल के नामर्द और नाम के मर्द
ऐश में जिनके कटते हैं औक़ात70
ईद है दिन तो शब बरात71 है रात
क़ौम मरती है भूक से तो मरे
काम उन्हें अपने हलवे माँडे से
उनको अब तक ख़बर नहीं असला72
शहर में भाव क्या है गल्ले का
ग़ल्ला अरज़ाँ73 है इन दिनों के गरा74
काल है शहर में पड़ा के समाँ
काल क्या शै है किस को कहते हैं भूक
भूक में क्यों के मरते हैं मफ़लूक75
सैर भूके की क़द्र क्या समझे
उसके नज़दीक सब हैं पेट भरे
* * *
अहले दौलत का सुन चुके तुम हाल
अब सुनो रूदादे अहले कमाल
फ़ाजि़लों को है फ़ाजि़लों से इनाद76
पंडितों में पड़े हुए हैं फ़साद
है तबीबों77 में नोक झोंक सदा
एक से एक का है थोक जुदा
रहते दो अहले इल्म हैं इस तरह
पहलवानों में लाग हो जिस तरह
ईदो वालों का है अगर पट्ठा
शेख़ों वालों में जा नही सकता
शायरों में भी है यही तकरार
ख़श नवीसों को है यही आज़ार
लाख नेकों का क्यों न हो एक नेक
देख सकता नहीं है एक को एक
उस पे तुर्रा ये है के अहले हुनर
दूर समझे हुए हैं अपना घर
मिली एक गाँठ जिसको हल्दी की
उसने समझा के मैं हूँ पंसारी
नुस्ख़ा एक तिब का जिसको आता है
सगे भाई से वो छिपाता है
जिसको आता है फूंकना कुश्ता79
है हमारी तरफ से वो गूँगा
जिसको है कुछ रमल में मालूमात
वो नहीं करता सीधे मुँह की बात
बाप भाई हो या के हो बेटा
भेद पाता नहीं मुनज्जिम81 का
काम कन्दले का जिसको है मालूम
है ज़माने में उसके बुख़्ल82 की धूम
अलग़रज़ जिसके पास है कुछ चीज़
जान से भी सिवा है उसको अज़ीज़
क़ौम पर उनका कुछ नहीं एहसाँ
उनका होना न होना है यकसाँ
सब कमालात और हुनर उनके
कब्र में उनके साथ जायेंगें
क़ौम क्या कहके उनको रोयेगी
नाम पर क्यों के जान खोएगी
तरबियत याफ्ता हैं जो माँ के
ख्वाह बी.ए. हों उसमें या एम.ए.
भरते हुब्बे वतन का गो दम हैं
पर मोहिब्बे83 वतन बहुत कम हैं
कौम को उनसे जो उम्मीदें थीं
अब जो देखा तो सब ग़लत निकली
हिस्ट्री उनकी और जोगरफी
सात पर्दों में मुँह दिए है पड़ी
बन्द उस कुफ़्ल में है इल्म उसका
जिसकी कुंजी का कुछ नहीं है पता
लेते हैं अपने दिल ही दिल में मज़े
गोया गूंगे का गुड़ हैं खाये हुए
करते फिरते हैं सैरे गुल तन्हा
कोई पास उनके जा नहीं सकता
अहले इँसाफ शर्म की जा है
गर नहीं बुख़्ल ये तो फिर क्या है
तुमने देखा है जो वो सबको दिखाओ
तुमने चक्खा है जो वो सबको चखाओ
ये जो दौलत तुम्हारे पास है आज
हम वतन इसके हैं बहुत मोहताज
मुँह की एक एक तुम्हारे है तकता
के निकलता है मुँह से आपके क्या
आप शाइस्ता हैं तो अपने लिए
कुछ सुलूक अपनी क़ौम से भी किए?
मेज़ कुर्सी अगर लगाते हैं आप
क़ौम से पूछिए तो पुन है न पाप
मुंडा जूता गर आपको है पसंद
क़ौम को इससे फ़ायदा न गज़ंद84
क़ौम पर करते हो अगर एहसाँ
तो दिखाओ कुछ अपना जोशे निहाँ85
कुछ दिनों ऐश में ख़लल डालो
पेट में जो है सब उगल डालो
इल्म को करदो कू-बकू अरमाँ
हिन्द को क़र दिखाओ इंगलिस्ताँ
सुनते हो सामने86 बात मकीं87
सुनते हो हाजि़रीने सदर नशीं
जो हैं दुनियां में क़ौम के हमदर्द
बन्दर क़ौम उनके हैं ज़नो मर्द
बाप की है दुआ ये बहरे पिसर
क़ौम की मैं बनाऊं इसको सिपर
माँ खुदा से ये मांगती है मुराद
क़ौम पर से निसार88 हो औलाद
भाई आपस में करते हैं पेमाँ89
तू अगर माल दे तो मैं दूँ जाँ
अहले हिम्मत कमाके लाते हैं
हमवतन फ़ायदे उठाते हैं
कहीं होते हैं मदरसे जारी
दख़्ल90 और ख़र्ज91 जिनके हैं भारी
और कहीं होते हैं कलब क़ायम
मुबहसे92 हिकमो अदब क़ायम
नित नए खुलते हैं दवाख़ाने
बनते हैं सैंकड़ों शिफ़ाख़ाने
मुल्क में जो मजऱ् है आलमगीर
क़ौम पर उनकी फ़जऱ् है तदबीर
हैं सदा इस उधेड़ बुन में तबीब
के कोई नुस्खा हाथ आए अजीब
क़ौम को पहुँचे मुनफ़िअत93 जिससे
मुल्क में फैले फ़ायदे जिससे
रस्मे बद का असर जहाँ पाया
हमले पर हमला उस पे होने लगा
कहीं मज़लिस में होती है तक़रीर
कहीं मज़मून होते हैं तहरीर
एक नाटक बना के लाता है
दूसरा उसको कर दिखाता है
लाख तदबीरें जी से जोड़ते हैं
आख़िर उसको मिटाके छोड़ते हैं
क़ौम की ख़ातिर उनके हैं सब काम
ख़्वाह उसमें सफ़र हो ख्ुवाह मुक़ाम
सैंकड़ों गुल रूख़ और मह पारे
लाडले माँ के बाप के प्यारे
जान अपनी लिए हथेली पर
करते फिरते हैं बहरो बर के सफ़र
शौक़ ये है के जान जाए तो जाए
पर कोई बात काम की हाथ आए
जिससे मुशकिल हो क़ौम की हल
मुल्क का आए कोई काम निकल
खप गए कितने बन के झाड़ों में
मर गए सैंकड़ों पहाड़ों में
लिखे, जब तक जिए, सफ़रनामे
चल दिए हाथ में क़लम थामे
गो सफ़र में उठाए रंज कमाल
कर दिया पर वतन को अपने निहाल
हैं अब उनके गवाह हुब्बे वतन
दरो दीवार पेरिसो लन्दन
कहिए दुनियां का जिसको बाग़े जिनाँ
है फ्राँस आज या है इंगलिस्ताँ
काम हैं सब बशर के, हमवतनों
तुम से भी हो सके जो मर्द बनो
छोड़ो अफ़सुर्दगी94 को जोश में आओ
बस बहुत सोए उठो होश में आओ
क़ाफ़िले तुम से बढ़ गए कोसों
रहे जाते हो सबसे पीछे क्यों?
क़ाफ़िलों से अगर मिला चाहो
मुल्क और क़ौम का भला चाहो
गर रहा चाहते हो इज़्ज़त से
भाइयों को निकालो जि़ल्लत95 से
उनकी इज़्ज़त तुम्हारी इज़्ज़त है
उनकी जि़ल्लत तुम्हारी जि़ल्लत है
क़ौम का मुबतज़ल96 है जो इंसाँ
बेहक़ीकत है गरचे हैं सुल्ताँ
क़ौम दुनियाँ में जिनकी है मुमताज
है फ़क़ीरी में भी वो ब एज़ाज़97
इज़्ज़ते क़ौम चाहते हो अगर
जाके फैलाओ उनमें इल्मो हुनर
ज़ात का फ़ख़्र और नसब का गुरूर
उठ गए अब जहां से ये दस्तूर
अब ना सैय्यद का इफ़्तख़ार98 सही
न ब्रहमन को शूद्र पर तरजीह
हुई तरक्की तमामख़ानों की
कट गई जड़ ख़ानदानों की
कौम की इज़्ज़त अब हुनर से है
इल्म से या के सीमोज़र99 से है
कोई दिन में वो दौर आएगा
बेहुनर भीक तक ना पाएगा
ना रहेंगे सदा यही दिन रात
याद रखना हमारी आज की बात
गर नहीं सुनते क़ौल हाली का
फिर न कहना के कोई कहता था