अल्ताफ़ हुसैन हाली पानीपती
ऐ मांओं बहनों, बेटियों, दुनियां की ज़ीनत1 तुमसे है
मुल्कों की बस्ती हो तुम्ही, क़ौमों की इज़्ज़त तुमसे हैतुम घर की हो शहज़ादियाँ, शहरों की हो आबादियाँ
ग़म गीं दिलों की शादियाँ, दुख-सुख में राहत तुम से है
चुप की दाद
(1905 ई.)
ऐ मांओं बहनों, बेटियों, दुनियां की ज़ीनत1 तुमसे है
मुल्कों की बस्ती हो तुम्ही, क़ौमों की इज़्ज़त तुमसे है
तुम घर की हो शहज़ादियाँ, शहरों की हो आबादियाँ
ग़म गीं दिलों की शादियाँ, दुख-सुख में राहत तुम से है
तुम हो तो गुरबत है वतन, तुम बिन है वीराना चमन
हो देस या परदेस, जीने की हलावत2 तुम से है
नेकी की तुम तस्वीर हो, इफ़्फत की तुम तदबीर हो
हो दीन की तुम पासबाँ, ईमाँ सलामत तुम से है
फ़ितरत3 तुम्हारी है हया, तीनत4 से है महरो वफ़ा
घुट्टी में है सब्रों रज़ा, इन्साँ इबारत तुम से है
मरदों में सच वाले थे जो, सत बैठे अपना कब का खो
दुनियां में ऐ सतवन्तियों!, ले देके अब सत तुम से है
मोनिस5 हो खाविन्दों6 की तुम, ग़मख़्वार फ़रजन्दों7 की तुम
तुम बिन है घर वीरान सब, घर भर की बरकत तुम से है
तुम आस हो बीमार की, ढारस हो तुम बेकार की
दौलत हो तुम नादार8 की, उसरत9 में इशरत10 तुम से है
आती हो अक्सर बेतलब, दुनिया में जब आती हो तुम
पर मोहिनी से अपनी याँ, घर भर पे छा जाती हो तुम
मैके में सारे घर की थीं, गो मालिको मुख्तार तुम
पर सारे कुन्बे की रहीं, बचपन से ख़िदमतगार तुम
माँ बाप के हुक्मों पे, पुतली की तरह फिरती रहीं
ग़मख़्वार बापों की रहीं, माँओं की ताबेदार11 तुम
दिन भर पकाना रेंधना, सीना, पिरोना, टाँकना
बैठी ना घर पर बाप के, ख़ाली कभी जि़न्हार12 तुम
रातों को छोटे भाई बहनों की, ख़बर उठ उठ के ली
बच्चा कोई सोते में रोया, और हुई बेदार13 तुम
ससुराल में पहुँची तो वाँ, एक दूसरा देखा जहां
जा उतरी गोया देस से, परदेस में एक बार तुम
वाँ फ़िक्र थी हर दम, नाखुश न हो तुम से कोई
अपने से रंजिश के कभी, पाओ न वाँ आसार तुम
बदले न शौहर की नज़र, सुसरे का दिल मैला न हो
आँखों में सास और ननद की,खटको न मिस्ले ख़ार14 तुम
पाला बुरों से गर पड़े, बदखू15 हों सब छोटे बड़े
चितवन पे मैल आने न दो, गो दिल में हो बेज़ार तुम
ग़म को ग़लत करती रहो, ससुराल में हँस बोल कर
शर्बत के घूंटों की तरह, पीती रहो खूने जि़गर
***
शादी के बाद एक एक को, थी आरज़ू16 औलाद की
तुम फंस गयीं ज़ंजाल में, ख़ालिक17 ने जब औलाद दी
दर्दो के दुख तुमने सहे, जापे की झेलीं सख़तियाँ
जब मौत का चखा मज़ा,तब तुम को ये दौलत मिली
मैके में और ससुराल में, सबके हुए दिल बाग़ बाग़18
घर में उजाला तो हुआ, पर तुम पे बिपता19 पड़ गई
खाना पहनना ओढऩा,अपना गयी सब भूल तुम
बच्चों के धन्दे में, तुम्हें अपनी न कुछ सुध बुध रही
तब तक भी समझो ख़ैर थी, जब तक भले चंगे थे सब
पर सामना आफ़त का था, गर हो गया मन्दा कोई
सूली पे दिन कटने लगे, रातों की नींदें उड़ गयीं
एक-एक बरस की हो गयी, एक-एक पल एक-एक घड़ी
बच्चों की नेवा में तुम्हें, गुजरे हैं जैसे दस बरस
क़द्र इसकी जानेगा वही, दम पर हो जिसके यूँ बनी
की है मुहिम जो तुम ने सर, मर्दों को इसकी क्या ख़बर
जाने पराई पीड़ वो, जिसकी बिवाई हो फटी
था पालना औलाद का, मर्दों के बूते से सिवा
आख़िर ये ए दुखियारियो!, ख़िदमत20 तुम्हारे सर पड़ी
पैदा अगर होतीं न तुम, बेड़ा न होता पार ये
चीख़ उठते दो दिन में, अगर मर्दों पे पड़ता भार ये
***
लेतीं ख़बर औलाद की, माएं न गर छुटपन21 में याँ
ख़ाली कभी का नस्ल से, आदम की हो जाता जहाँ
ये गोश्त23 का एक लोथड़ा, परवान चढ़ता किस तरह
छाती से लिपटाए न हरदम, रखती गर बच्चे को माँ
वो दीन और दुनिया के मसले, जिन के वाज़ और पन्द24 से
ज़ुल्मतों25 में बातिल26 की हुआ, दुनिया में नूरे हक़ अयाँ
वो इल्म और हिक़मत के बानी, जिन की तहक़ीक़ात से
ज़ाहिर हुए आलम में, इसरारे ज़मीनों आसमाँ
वो शाहे किश्वर27 गीर, इसकन्दर कि जिसकी धाक से
थे बेद की मानिन्द, लरज़ाँ ताजदाराने जहाँ
वो फ़ख्रे शाहाने अज़म किसरा, कि जिसके अद्ल28 की
मशरिक़ से ता मग़रिब, ज़बानों पर है जारी दास्ताँ
क्या फूल फल ये सब उन्हीं, कमजोर पौधों के न थे
सींचा था माँओं ने जिन्हें, ख़ूने जिगर से अपने याँ
क्या सुफ़ियाने बा सफ़ा, क्या आरिफ़ाने29 वा खुदा
क्या औलिया क्या अम्बिया, क्या ग़ौस क्या कुतबे ज़माँ
सरकार से मालिक की, जितने पाक बन्दे हैं बढ़े
वो माँओं की गोदों के ज़ीने30 से, हैं सब ऊपर चढ़े
***
अफ़सोस! दुनिया में बहुत, तुम पर हुए जोरो जफ़ा
हक़ तलफ़ियाँ31 तुमने सहीं, बेरहमियां झेली सदा
अक्सर तुम्हारे क़त्ल पर, क़ौमों ने बाँधी है कमर
दे ताके तुम को यक क़लम, खुद लौहे हसती से मिटा
गाड़ी गई तुम मुद्दतों, मिट्टी में जीती जागती
हामी तुम्हारा था मगर, कोई ना जुज़ ज़ाते खुदा
जि़न्दा सदा जलतीं रहीं तुम, मुर्दा ख़ाविन्दों32 के साथ
और चैन से आलम33 रहा, ये सब तमाशे देखता
ब्याही गयीं उस वक़्त तुम, जब ब्याह से वाक़िफ़ न थीं
जो उम्र भर का अहद34 था, वो कच्चे धागे से बंधा
ब्याहा तुम्हें याँ बाप ने, ऐ बेज़बानों! इस तरह
जैसे किसी तक़सीर पर, मुज़रिम35 को देते हैं सज़ा
गुज़री उम्मीदों वीम में, जब तक रहा बाक़ी सुहाग
बेवा36 हुई तो उम्र भर फिर, चैन क़िस्मत में ना था
तुम सख़्त से सख़्त, इम्तहां देती रहीं
कीं तुमने जानें तक फ़िदा, कहलायीं फिर भी बेवफ़ा
गो सब्र का अपने, न कुछ तुम को मिला इनाम याँ
पर जो फ़रिश्ते37 से ना हो, वो कर गयीं तुम काम याँ
***
की तुमने इस दारूल-महन38 में, जिस तहम्मुल39 से गुज़र
ज़ेबा है गर कहिए तुम्हें, फ़ख्रें बनी नोए बशर
जो संग दिल सफ़्फ़ाक, प्यासे थे तुम्हारे ख़ून के
उनकी हैं बेरहमियाँ40, मशहूर आलम में मगर
तुम ने तो चैन अपने, खरीदारों से भी पाया न कुछ
शौहर41 हों उस में या पिदर42, या हों बिरादर43 या पिसर44
उल्फ़त तुम्हारी कर गयी, घर दिल में जिस बेदीद के
वो बदगुमाँ तुम से रहा, ऐ बदनसीबो उम्र भर
गो नेक मर्द अक्सर, तुम्हारे नाम के आशिक़ रहे
पर नेक हों या बद,रहे सब मुत्तफ़िक़45 इस राह पर
जब तक जिओ तुम, इल्मो दानिश46 से रहो महरूम47 याँ
आई हो जैसी बेख़बर, वैसी ही जाओ बेख़बर
तुम इस तरह मज़हूल48, और गुमनाम दुनिया में रहो
हो तुम को दुनिया की,न दुनिया को तुम्हारी हो ख़बर
जो इल्म मर्दों के लिए, समझा गया आबे हयात49
ठहरा तुम्हारे हक़ में वो, ज़हरे हलाहिल50 सर बसर
आता है वक़्त इंसाफ़ का, नज़दीक है यौमुल हिसाब51
दुनियां को देना होगा, इन हक़ तलफ़ियों का वाँ जवाब
***
गुज़रे थे जग तुम पर, हमदर्दी न थी तुम से कहीं
था मुनहरिफ़52 तुम से फ़लक53, बरगश्ता54 थी तुम से ज़मीं
दुनिया के दाना और हकीम, इस ख़ौफ़ से लरज़ां थे सब
तुम पर मुबादा इल्म की, पड़ जाए न परछाईं कहीं
ऐसा न हो मर्द और औरत में, रहे बाक़ी न फ़र्क़
तालीम पाकर आदमी बनना, तुम्हें ज़ेबा नहीं
याँ तक तुम्हारी हज़्व55 के, गाए गए दुनियां में राग
तुम को भी दुनियां की कुहन56 का, आ गया आख़िर यकीं
इल्मो हुनर से रफ़्ता रफ़्ता57, हो गयीं मायूस तुम
समझा लिया दिल को, के हम खुद इल्म के क़ाबिल नहीं
जो जि़ल्लतें लाजि़म हैं दुनियां में, ज़हालत के लिए
वो जि़ल्लते सब, नफ़स पर अपने गवारा तुमने कीं
समझा न तुम को एक दिन, मर्दों ने क़ाबिल बात के
तुम बेवफ़ा कहलायीं, लेकिन लोंडियाँ बन कर रहीं
आख़िर तुम्हारी चुप दिलों में, अहले दिल के चुभ गई
सच है के चुप की दाद, आख़िर बे मिले रहती नहीं
बारे ज़माना नींद के मारों को, लाया होश में
आया तुम्हारे सब्र पर, दरिया-ए-रहमत जोश में
***
नौबत तुम्हारी हक़रसी की, बाद मुद्दत आई है
इंसाफ़ ने धुंदली सी, एक अपनी झलक दिखलाई है
गो है तुम्हारे हामियों को, मुश्किल का सामना
पर हल हर एक मुश्किल यूं ही, दुनियां में होती आई है
अटके हैं रोड़े चलती गाड़ी में, सदा सच्चाई की
पर फ़तह58 जब पायी है, सच्चाई ने आख़िर पाई है
ऐ बेज़बानों की ज़बानों, बेबसों के बाज़ुओं
तालीमे निस्वाँ59 की मुहिम, जो तुम को अब पेश आयी है
ये मरहला आया है तुम से पहले, जिन क़ौमों को पेश
मंजि़ल पे गाड़ी उनकी, इस्तक़बाल60 ने पहुँचाई है
है राई भी पर्वत अगर, दिल में नहीं अज़्में61 दुरुस्त
पर ठान ली जब जी में, फिर पर्वत भी हो तो राई है
ये जीत भी क्या कम है, खुद हक़ है तुम्हारी पुश्त62 पर
जो हक़ पे मुँह आया है, आख़िर उसने मुँह की खाई है
जो हक़ के जानिबदार हैं, बस उनके बेड़े पार हैं
भोपाल की जानिब से ये, हातिफ़ की आवाज़ आई है
है जो मुहिम दरपेश, दस्ते ग़ैब है इस में निहाँ
ताईदे हक़ का है निशाँ, इम्दादे सुल्ताने जहाँ
अर्थ
- सजावट। 2. मिठास। 3. स्वभाव। 4. स्वभाव। 5. गम खाने वाली। 6. पति। 7. बेटा। 8. गरीब। 9. कंगाली। 10. आराम। 11. सेवक। 12. हरगिज। 13.जागना। 14. कांटा। 15. बुरी आदत। 16. इच्छा। 17. खुदा। 18. प्रसन्नता।19. विपति। 20. सेवा। 21. बचपन। 23. मांस। 24. नसीहतें। 25. अंधेरा। 26. झूठ। 27. दुनिया। 28. इंसाफ। 29. पहचानने वाले। 30. सीढ़ी। 31. अधिकार हनन। 32. पति। 33. संसार। 34. वचन। 35. अपराधी। 36. विधवा। 37. देवता। 38. आजमाइश का घर। 39. सब्र। 40. निर्दय। 41. पति। 42. बाप। 43. बेटा। 45. सहमत। 46. ज्ञान। 47. वंचित। 48. अन्जान। 49. अमृत। 50. जान लेने वाला जहर। 51. हिसाब का दिन। 52. इंकार करने वाला। 53. आकाश। 54. रूठना। 55. बुराई। 56. पुरानापन। 57. धीरे धीरे। 58. विजय। 59. औरतें। 60. हिम्मत। 61. इरादा। 62. पीढ़ी।