गीता जयन्ती म्है तो कमाल ही होग्यो

सुनील कुमार, इकबाल सिंह

कुरूक्षेत्र में हर साल की तरह इस बार भी 11 से 21 दिसम्बर 2015 तक ‘गीता जयन्ती’ उत्सव धूमधाम से मनाया गया। इस बार पहले की अपेक्षा चहल-पहल और रौनक तो ज्यादा थी ही, मेले में चूड़ी-मणकों, चाट-पकौड़ी, सूट दुप्पटों, नाच-गाणे के अलावा एक खास बात भी थी, जो थी साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच ‘देस हरियाणा’। पूरे दस दिन इस मंच पर सबने खुद को अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त किया। देस हरियाणा पढ़ते ही लोगों के मुंह से स्वतः ही उच्चरित होता ‘देसां म्ह देस हरियाणा, अपने मतलब की बात’। और फिर जोर-जोर से देस हरियाणा की चौखट पर छपी बुल्लेशाह की ये पंक्तियां पढ़ते-

मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे,
ढा दे जो कुछ ढैंदा।
पर किसी दा दिल ना ढाईं,
रब्ब दिलां विच रैंदा।

इससे उनका ध्यान जाता जोतिबा फुले की प्रसिद्ध पंक्तियों पर और अपने आप उच्चारण करने लगता, मानो उनके मानसिक पटल पर लिखी हों।

विद्या बिना मति गई,
मति बिना गति गई।
गति बिना नीति गई,
नीति बिना वित्त गया।
इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए।

स्टाल में लगे कबीर, रविदास, जोतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर के विचारों व जयपाल की कविताओं को लोगों ने खूब पढ़ा। साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के इस मंच पर 15 दिसम्बर को कविता गोष्ठी हुई जिसमें जसबीर लाठरो, कपिल भारद्वाज ने कविता सुनाई व हरियाणा के लोकगीत भी गाए गए। इस दौरान न केवल उपस्थित श्रोताओं ने बल्कि बाहर खड़े लोगों ने भी कविताओं व गीतों का आनन्द लिया। 16 दिसम्बर की शाम को हरियाणा के साहित्यिक परिवेश पर चर्चा हुई, इसमें हरियाणा की साहित्यिक परम्पराओं और समाज पर बात हुई। खूबी ये रही कि बात बहुत गम्भीर होते हुए भी सहज ढंग से हुई।  जसबीर जस्सी, इकबाल, ओमप्रकाश करुणेश व जसबीर लाठरो ने जोशपूर्ण ढंग से कविताएं प्रस्तुत की जिनके केन्द्र में किसान रहा। 17 दिसम्बर की शाम को समकालीन समय की जटिलताओं को अपनी कविताओं में बहुत ही सहज ढंग से प्रस्तुत करने वाले ‘दरवाजों के बाहर’ कविता-संग्रह के कवि जयपाल ने अपनी कविताओं का पाठ किया। छोटे-बड़े दरवाजों से होते हुए कवि ने समाज के सभी पक्षों को खोलकर रख दिया। भगवान से संवाद करते हुए उन्होंने भगवान का जो साधारणीकरण किया वह वाकई कमाल का था। राजविन्द्र चंदी के ‘छल्ला वे छल्ला’ के साथ शाम सुहानी रही।

19 दिसम्बर को काकोरी काण्ड के शहीदों रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां की शहादत को याद करते हुए विचार-गोष्ठी हुई। प्रो. सुभाष चन्द्र ने शहीदों के आजाद भारत के सपने व समकालीन परिस्थितियों पर बात करते हुए ‘शहीदों के विचारों की प्रासंगिकता को रेखांकित किया। कुरुक्षेत्र से ओमसिंह अशफाक व राजविन्द्र चन्दी ने इन शहीदों के जीवन व बलिदान को रेखांकित किया। रोहतक से अमन वशिष्ठ ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान चल रही विभिन्न धाराओं का जिक्र करते हुए कहा कि लोकतंत्र ही शासन का सबसे उत्तम विकल्प है। इसी में सभी के विकास के अवसर मिलने की संभावना होती है। लोकतंत्र की मजबूती में योगदान करना ही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि है।

20 दिसम्बर को स्टाल पर लोकगीतों और रागनियों का धमाल रहा। निर्मल ने हरियाणा की ब्रज, मेवात, खादर, बांगर व बागड़ के लोकगीतों को गाया। सैंकड़ों लोगों ने लोकगीतों का आनन्द लिया।  इन गीतों से लोग अपने बचपन को याद कर रहे थे। महिलाएं जब साथ-साथ गा रही थी, उनके चेहरों पर साफ झलक रहा था जैसे उन्हें नया जीवन मिल गया। कपिल ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ के किस्से से ‘चस चस हो रही चीस लाग रही, गात बोचियो मेरा’ इस अंदाज में गाईं कि श्रोताओं की करूणा उनकी आंखों से व्यक्त हो रही थी।  स्टाल पर देसराज सिरसवाल की पुस्तक का विमोचन हुआ। देसराज सिरसवाल ने पुस्तक के बारे में बताया। 21 दिसम्बर को मेला घूमने आई ‘उमंग डेमोक्रेटिक स्कूल’ गन्नोर की तीस लड़कियों की टीम ने कमाल का गीत ‘आज मुझे करनी है पढ़ने की शुरूआत’ गाया। विरेन्द्र व राजीव ने नाटकीय अंदाज में कबीर का भजन गाया जिसे सभी लोगों ने पसन्द किया। कबीर के इस गीत में ऊंच-नीच की भावना पर कटाक्ष था तथा बराबरी का संदेश था। ‘बेटी बचाओ’ का संदेश देते राजीव सान्याल के बोल –

‘बेटी बचेगी देस बचेगा,
माटी बचेगी खेत बचेगा।
खेत बचेगा फसल बचेगी,
फसल बचेगी तो नस्ल बचेगी’

सुनकर लोग जहां थे वहीं ठहर गए। इन्होंने कबीर, नानक, बुल्लेशाह के गीतों-भजनों को अपनी डफली और अलगोजे के साथ अदभुत अंदाज में गाया। इनकी आवाज और धुन से सरोवर गूंज उठा। डा. कृष्ण कुमार की प्रेम का संदेश देती गजलों पर जिस तरह मुण्डियां हिल रही थी उससे अनुमान लग रहा था कि गजलें  सीधा पाठकों के दिलों में उतर रही थी।

गीता जयन्ती उत्सव पर दस दिन तक देस हरियाणा पत्रिका के स्टाल पर लगातार साहित्यिक गोष्ठियां होती रही। कविताएं, रागनी, लोकगीत, गजल सभी विधाओं की प्रस्तुति हुई और लोगों ने बहुत आनन्द लिया। कार्यक्रमों का सिलसिला बढ़ता ही गया, उनमें गुणात्मक बढ़ोतरी होती गई। लोकगीतों का बुगचा व प्रतिनिधि रागनियां पुस्तक के प्रति आर्कषण से अनुमान लगा सकते हैं कि लोग लोक साहित्य में रूचि लेते हैं। लोगों में पत्रिका के प्रति जिज्ञासा भाव भी था और उससे जुड़ने की ललक भी।

इन दस दिनों में स्टाल पर अनेक लेखकों का आगमन हुआ। कमलेश चौधरी, ओमप्रकाश करुणेश, ओमसिंह अशफाक, हरपाल, देसराज सिरसवाल, राजेन्द्र देसवाल, कृष्ण कुमार, व जयपाल ने लगातार टीम का मार्गदर्शन किया व हौंसला अफजाई की। स्टाल पर बुजुर्गों ने जब रागनियों की पुस्तक ली तो उनकी आंखों में चमक देखकर सारी मेहनत सफल हो गई। इससे टीम को प्रेरणा और उत्साह मिला। देस हरियाणा की टीम के सदस्यों ने दस दिन तक तत्परता से लगातार काम किया। दर्शकों ने देस हरियाणा की स्टाल पर आकर संतुष्टि जाहिर की व हरियाणा की कला, संस्कृति, साहित्य व खान-पान की मेले में कुछ कमी महसूस करते हुए इन्हें बढ़ावा देने की इच्छा भी जताई। जिससे पता चला कि हरियाणा में साहित्य के ग्राहक भी हैं। दस दिन में किसिम-किसिम के लोगों से मिलकर, सुनकर-सुनाकर, बहुत से अनुभवों को संजोकर, टीम पूरी ऊर्जा के साथ बहुत कुछ सीखकर लौटी।

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