धुनकर-बुनकर

डा. श्रेणिक बिम्बिसार

तुक-तुक तांय-तांय
शब्दों को रूई सा धुनें
आओ कविता बुनें

चौपाईयों सी लय
थाप हो गज़ल के काफिए सी
दोहों की सुगमता में भर जाए

कबीर सी क्रांति
रसों के तानों-बानों में उलझें
रुपक कुछ ऐसे चुनें
आओ कविता बुनें

छंदों की धड़कन में
चर्खे सी चाल हो
स्वतःस्फूर्त आंदोलन से दमक उठे
कविता का तार-तार

निर्वस्त्र हो जाए राजा की कुटिलता
वस्त्र कुछ ऐसा बुनें
शब्दों को रूई सा धुनें

बेबसी का रंग नहीं
केसरिया बाना हो
छंदों के बन्ध नहीं

मुक्ति-गीत गाना हो
भय-मुक्त अंतस् हो
जब हम तुम सब सुनें
तुक-तुक तांय-तांय
शब्दों को रूई सा धुनें
आओ कविता बुनें।

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