एक नवम्बर 2015 को कुरुक्षेत्र में ‘देस हरियाणा’ पत्रिका की ओर से हरियाणाः साहित्य समाज और संस्कृति विषय पर सेमिनार का आयोजन किया। जिसमें अर्थशास्त्री प्रो. टी. आर. कुण्डू, लोक संस्कृतिविद् डा. सुधीर शर्मा, डा. महासिंह पुनिया ने अपने विचार रखे। प्रख्यात उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने इस सेमिनार की अध्यक्षता की। अमन वशिष्ठ, प्र्रोफेसर जोगा सिंह, डा.रविन्द्र गासो, माजिद मेवाती तथा साहिल कुमार ने बहस में हिस्सा लिया। सेमिनार का संचालन संपादन मंडल के सदस्य डा. कृष्ण कुमार ने किया। इसमें 150 के करीब श्रोता उपस्थित थे। इसी सेमिनार के अवसर पर देस हरियाणा के दूसरे अंक का विमोचन किया गया। निर्मल ने इसमें मेवाती, ब्रज, बागड़ी, बांगरू आदि हरियाणा की विभिन्न बोलियों में लोकगीतों का गायन किया।यहां हम प्रोफेसर टी. आर. कुण्डू के वक्तव्य के साथ-साथ अमन वाशिष्ठ व रविन्द्र गासो, भाषावैज्ञानिक प्रोफेसर जोगा सिंह की टिप्पणियों को प्रकाशित कर रहे हैं। शेष वक्तव्यों तथा टिप्पणियों को अगले अंकों में प्रस्तुत करने की कोशिश रहेगी। (संपादक)
संस्कृति दिमाग की सामूहिक ‘प्रोग्रेमिंग’ है, जो किसी समुदाय को उसकी अलग पहचान देती है। सामाजिक पटल पर जो नजर आ रहा है, वह कम्यूटर स्क्रीन पर दिखाई देने वाले चित्र की तरह है, जिसका मूल ‘साफ्टवेयर’ तो संस्कृति है। समुदाय द्वारा आत्मसात किए गए जीवन मूल्य, उन पर आधारित प्रत्याशित आचरण के मानदंड, सांझी आस्थाएं एवं मनोवृतियां इस मानसिक रूपी साफ्टवेयर के कुछ मुख्य निर्देश है, जो सामाजिक जीवन का संचालन एवं मार्गदर्शन करते हैं।
दूसरी परिभाषा जो आपके साथ सांझा करना चाहता हूं कि संस्कृति वातावरण का मानव निर्मित भाग है। निसंदेह इस पर स्थानीय प्राकृतिक वातावरण की गहरी छाप होती है, जो संस्कृति की क्षेत्रीय विविधता में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। प्रकृति न केवल जीवन का आधार है, बल्कि समानता, सहनशीलता, सह-अस्तित्व एवं सहस्वस्ता जैसे महत्वपूर्ण जीवन मूल्यों का प्रमुख स्रोत भी है। प्रकृति एवं संस्कृति के घनिष्ठ संबंध को एक हरियाणवी कहावत में कुछ इस तरह से व्यक्त किया गया है ‘दस कोस पर पाणी (प्रकृति) और बारह कोस पर बाणी(संस्कृति) बदल जाती है।’ मानव निर्मित होने के कारण संस्कृति पर समाज के सामयिक शक्ति समीकरण एवं उनसे जुड़े वर्ग एवं व्यक्तिगत हितों का प्रभाव बराबर रहता है। संस्कृति की कई बाहरी एवं भीतरी परतें होती हैं। भीतरी परतें जहां अदृश्य होते हुए भी अधिक महत्वपूर्ण होती हैं, वहां ऊपरी परतें अपेक्षाकृत सतही एवं दृश्य होती हैं। ऐतिहासिक एवं धार्मिक महापुरुष, स्थानीय ‘हीरोज’ एवं ‘आइकॉन’, कलाकृतियां, अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड बाह्य परत के कुछ प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं। माध्यमिक परतों में सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक आचरण के मापदंड, रीति-रिवाज एवं परम्पराओं को शामिल किया जा सकता है, लेकिन संस्कृति की सबसे गहरी व महत्वपूर्ण परत मूल्यों की होती है, जिनसे समाज रूपी किश्ती बंधी हुई होती है। समय व स्थान के साथ संस्कृति की बाहरी परतें अक्सर बदलती रहती हैं, जबकि मूल्यों में परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत धीमी होगी। वास्तव में संस्कृति की परतें नदी की परतों के समान हैं, जिनकी चाल गहराई के साथ मंद होती जाती है।
संस्कृति दिमाग की सामूहिक ‘प्रोग्रेमिंग’ है, जो किसी समुदाय को उसकी अलग पहचान देती है। सामाजिक पटल पर जो नजर आ रहा है, वह कम्यूटर स्क्रीन पर दिखाई देने वाले चित्र की तरह है, जिसका मूल ‘साफ्टवेयर’ तो संस्कृति है। समुदाय द्वारा आत्मसात किए गए जीवन मूल्य, उन पर आधारित प्रत्याशित आचरण के मानदंड, सांझी आस्थाएं एवं मनोवृतियां इस मानसिक रूपी साफ्टवेयर के कुछ मुख्य निर्देश है, जो सामाजिक जीवन का संचालन एवं मार्गदर्शन करते हैं।
सरल शब्दों में संस्कृति एक धरोहर है। एक पोटली है, जिसे हर पीढ़ी अपने हिसाब से कुछ ओर मूल्यवान बनाकर अपनी अगली पीढ़ी को सौंपती है। इस पोटली में मूल्य है, व्यवहार के मानदंड व तौर- तरीके हैं। लोक कथाएं एवं लोक गीत व कलाकृतियां हैं। भाषा एवं साहित्य है। इतिहास है, सदियों से संजोया ज्ञान एवं दर्शन है, लेकिन इसके अलावा संस्कृति का एक अनकहा भाग भी रहता है, जो इनमें निहित होता है।
इस संदर्भ में मुझे याद आ रहा है कि हमारे अध्यापक हमें प्यासे कौवे की कहानी बताकर उसकी शिक्षा बताते थे कि ‘जहां चाह वहां राह’। एक छात्र ने बड़ा साहस करके पूछा कि ये बात तो इस कहानी में है ही नहीं, तो अध्यापक ने जो जवाब दिया वह बड़ा महत्वपूर्ण है। उन्हाेंने कहा कि कहानी की शिक्षा वह है जो ‘कहा नहीं’। कहा नी (नहीं)। शिक्षा इसमें निहित है, छुपी हुई है।
इसी तरह संस्कृति में भी सीख निहित होती है। जीवन दर्शन छुपा रहता है, जिसमें निरंतर संशोधन होता रहता है। संस्कृति नाम की सड़क सदैव कार्याधीन रहती है। यह एक सतत् प्रवाह है, जिसका अनुभव के साथ नवीनीकरण होता रहता है। वास्तव में यह नवीनीकरण बदलती परिस्थितियों के साथ सामाजिक जीवन का सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया है, जिसकी सकारात्मकता किसी भी संस्कृति की मुख्य कसौटी होती है।
हरियाणा में विकास के नाम पर पिछले दशकों में जो बदलाव आया है, उसे मैं आपके साथ सांझा करना चाहूंगा। विकास एक समावेशी धारणा है, जिसे समग्र रूप में समझने की आवश्यकता है। इसमें आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास तीनों ही शामिल हैं। हरियाणा में विकास की इस समावेशी धारणा की बहुत बुरी तरह अनदेखी हुई है, जो विकास के विकृत रूप में स्पष्ट नजर आती है। आर्थिक क्षेत्र में हमने बहुत उन्नति की है। सामाजिक क्षेत्र में भी कुछ आगे बढ़े हैं, लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र में हम बुरी तरह पिछड़ गए हैं व न के बराबर उन्नति की है। हरियाणा ने आर्थिक क्षेत्र में लंबी छलांग लगाई है। हरियाणा ने सबसे पहले अपने हर गांव व शहर में बिजली व सड़क पहुुंचाकर आने वाले समय में त्वरित विकास की नींव रखी। प्रदेश ने कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों में प्रगति के नए कीर्तिमान बनाए। आज हरियाणा की गिनती देश के चुनिंदा समृद्ध राज्यों में होती है। इस विकास से जहां हरियाणा का आत्मविश्वास बढ़ा, वहीं दूसरे समाजों में सम्मान एवं प्रतिष्ठा भी बढ़ी। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में हमारी उपलब्धियां न केवल अपेक्षा के विपरीत रहीं, बल्कि अत्यंत निराशाजनक रही, विशेषकर सांस्कृतिक क्षेत्र में।
आज देश तेजी से बदल रहा है, लेकिन हमारी सोच इसके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रही। बल्कि पीछे की ओर जा रही है। पुरातन सामन्ती व पितृसतात्मक मूल्यों की समाज में पुनर्स्थापना हो रही है। चाहे खाप पंचायतों की निजी जीवन में दखलदांजी हो या अनुसूचित जातियों और महिलाओं के प्रति उपेक्षा व भेदभाव हो, सब की पुनरावृति हो रही है। हरियाणा में महिलाओं एवं दलितों पर अत्याचार जगजाहिर हैं। यह मात्र कानूनी व्यवस्था की असफलता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विफलता का भी सूचक है।
मानव-विकास-सूचकांक विकास का एक समावेशी अंतर्राष्ट्रीय व निर्विवादित सूचकांक है। यह सूचकांक मुख्य रूप से इन तीन मानदंडोें पर तैयार किया जाता है – आबादी का औसत जीवनकाल, बच्चों एवं व्यस्कों को उपलब्ध शिक्षा के अवसर पर तथा प्रतिव्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय। हरियाणा की प्रति व्यक्ति आय देश के सभी प्रमुख राज्यों की प्रति व्यक्ति आय से अधिक है। लेकिन मानव विकास सूचकांक पर हम छठे स्थान पर हैं। यदि इस सूचकांक से प्रति व्यक्ति आय का घटक निकाल दें तो हरियाणा दसवें-बारहवें स्थान पर खिसक जाता है।
यदि आंकड़ों के पार जाएं तो स्थिति और भी बदतर है। हमारे पास स्कूल, कालेज व शिक्षक हैं पर शिक्षा नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि तीसरी कक्षा के 30 प्रतिशत विद्यार्थी पहली कक्षा की पुस्तक नहीं पढ़ सकते। पांचवीं कक्षा के 50 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो जोड़-घटा के साधारण सवालों को भी हल नहीं कर सकते।
इसी तरह स्वास्थ्य क्षेत्र में मैडिकल कालेज बन गए। जिला स्तर पर बड़े अस्पताल, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र बन गए, लेकिन डाक्टर नहीं है। डाक्टर हैं तो दवाई नहीं है। दवाई है तो मशीन नहीं। कुल मिलाकर इलाज नहीं है। नतीजन 65 प्रतिशत जनता निजी क्षेत्र में महंगा इलाज करवाने के लिए बाध्य है।
हरियाणा में कार, मोटर-साइकिल, स्कूटर, टेलीविजन, टेलीफोन व मोबाइल की सुविधाएं रखने वाले परिवारों का प्रतिशत लगभग पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र व अन्य अग्रणी राज्यों के परिवारों के बराबर है, लेकिन जब बात घर की चारदिवारी में शौचालय, नल की टोंटी, पृथक रसोई, स्नान गृह व अन्य मूलभूत सुविधाओं की आती है तो हम इन राज्यों से पिछड़ जाते हैं
प्रदेश में सांस्कृतिक विकास की स्थिति और भी दयनीय है। समय के साथ सरकारों ने आर्थिक, सामाजिक व प्रशासनिक ढांचा तो विकसित किया, लेकिन सांस्कृतिक ढांचा बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। गांव स्तर पर पुस्तकालय, नाट्यशालाएं व सांस्कृतिक केंद्र स्थापित करने की कोई पहल नहीं की गई।
आज देश तेजी से बदल रहा है, लेकिन हमारी सोच इसके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रही। बल्कि पीछे की ओर जा रही है। पुरातन सामन्ती व पितृसतात्मक मूल्यों की समाज में पुनर्स्थापना हो रही है। चाहे खाप पंचायतों की निजी जीवन में दखलदांजी हो या अनुसूचित जातियों और महिलाओं के प्रति उपेक्षा व भेदभाव हो, सब की पुनरावृति हो रही है। हरियाणा में महिलाओं एवं दलितों पर अत्याचार जगजाहिर हैं। यह मात्र कानूनी व्यवस्था की असफलता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विफलता का भी सूचक है।
हरियाणा की संस्कृति मूल रूप से एक किसानी संस्कृति है, जिसमें समय के साथ कई महत्चपूर्ण बदलाव आए हैं। इसकी गहरी छाप हमारे सामाजिक जीवन में आज भी स्पष्ट नजर आती है। कृषि व्यवसाय की अपनी विशेषताएं हैं, जो कृषि समाज को उसकी अलग पहचान देती हैं कृषि खुले आसमान के नीचे किया जाने वाला एक सरल एवं पारदर्शी कार्य है, जिसमें छुपाने के लिए कुछ भी नहीं होता। हमने किसानी को सदियों जीया है और अपने व्यक्तित्व में आत्मसात किया है। हम हरियाणवी आज भी अपने सहज एवं निष्कपट व्यवहार के लिए जाने जाते हैं सैद्धांतिक तौर पर भी हम सरलता एवं स्पष्टता के कायल रहे हैं।
महिलाओं की समाज में स्थिति, सांस्कृतिक उन्नति का पैमाना मानी जाती है। हरियाणा में महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय है। प्रदेश में निम्न लिंग अनुपात, बड़े पैमाने पर महिलाओं में कुपोषण व खून की कमी तथा अधिकांश महिलाओं का वजन निर्धारित मानदंडों से कम होना सब महिलाओं के प्रति भेदभाव व समाज में उनकी निम्न स्थिति को दर्शाते हैं। वास्तविकता में आम महिलाओं का हरियाणा में कोई अस्तित्व ही नहीं है। या तो वह सांस्कृतिक संबंधों बेटी, मां, बहन, पत्नी से जानी जाती हैं या फिर विवाह-शादी में रस्मों-रिवाज निभाने और व्रत आदि रखने के औजार के रूप में प्रयोग की जाती हैं इसके अतिरिक्त उसका ओर कोई अस्तित्व ही नहीं।
हरियाणा की संस्कृति मूल रूप से एक किसानी संस्कृति है, जिसमें समय के साथ कई महत्चपूर्ण बदलाव आए हैं। इसकी गहरी छाप हमारे सामाजिक जीवन में आज भी स्पष्ट नजर आती है। कृषि व्यवसाय की अपनी विशेषताएं हैं, जो कृषि समाज को उसकी अलग पहचान देती हैं कृषि खुले आसमान के नीचे किया जाने वाला एक सरल एवं पारदर्शी कार्य है, जिसमें छुपाने के लिए कुछ भी नहीं होता। हमने किसानी को सदियों जीया है और अपने व्यक्तित्व में आत्मसात किया है। हम हरियाणवी आज भी अपने सहज एवं निष्कपट व्यवहार के लिए जाने जाते हैं सैद्धांतिक तौर पर भी हम सरलता एवं स्पष्टता के कायल रहे हैं। वो चाहे गुरुओं की सीधी-साधी बाणी हो, कबीर के बेबाक दोहे, गुरु जम्भेश्वर का भविष्य के गर्भ में झांकता पर्यावरण बचाओ का दूरदर्शी उपेदश या फिर दयानंद सरस्वती का कर्मकांड से मुक्त सरल समाज का संदेश, सभी को हमने हाथों-हाथ लिया।
कृषि किसी दफ्तर के कोने में बैठकर किया जाने वाला कार्य नहीं है। इसमें तो किसान व उसके परिवार को कंधे से कंधा मिलाकर खेत में काम करना पड़ता है। इसमें बराबरी और भाईचारे का अहसास सहजता से हो जाता था। हरियाणा में सांस्कृतिक रिश्तों में बराबरी बखूबी देखने को मिलती है। दादा, चाचा एवं अन्य नातों में जाति का कोई महत्व नहीं होता। दादा सबके लिए दादा, चाचा सब के लिए चाचा, बेटी सारे गांव की बेटी। किसानों के घर ही नहीं, खेत भी एक-दूसरे से सटे होते हैं। ऐसे में आपसी मेलजोल व लेनदेन के रिश्ते स्वतः ही बन जाते हैं। किसानों के व्यवसायिक हित भी सांझे होते हैं। मौसम एवं मंडी सभी समान रूप से प्रभावित करते हैं इन सबके रहते हमारे कृषि समाज में पारस्परिक लगाव, भाईचारा एवं सामुदायिक भावना आम देखने को मिलती है।
मेहनती होना कृषि समाज की पहली शर्त है। हरियाणा का व्यक्ति मेहनतकश है। मेहनत के साथ ईमानदारी व खुद्दारी छोटी बहनों की तरह आ जाती हैं। कठिन परिश्रम, ईमानदारी और खुद्दारी यही हमारी पहचान रही है। हरियाणा की एक कहावत है, ‘कमा के खा लिया और लेके दे दिया’। लेकिन आज यह पहचान कुछ फीकी पड़ गई है। पढ़-लिखकर सयाने हो गए हैं। सत्ता के गलियारों के चक्कर लगाने लग गए हैं।
यदि कठोर परिश्रम कृषि व्यवसाय की अनिवार्यता है तो पौष्टिक आहार परिश्रम के लिए जरूरी है। इसी के चलते, ‘देसां में देस हरियाणा जित दूध-दही का खाणा’, हमारी सार्वभौमिक पहचान बनी। दूध बेचना घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। ‘दूध बेच दिया ऐसा पूत बेच दिया’, हमारे यहां आम कहावत थी। बाजारवादी संस्कृति के चलते आज हमारे खानपान की आदतें बदल रही हैं। मैगी, न्यूडल, पीजा व कोला युवा पीढ़ी की पसंद बन रही है। गाय का हमारी संस्कृति में स्थान होता था। इससे जहां खाने-पीने के लिए दूध-दही मिल जाता था। वहीं खेती करने के लिए बैल व बछड़े भी मिल जाते थे। अब कृषि का बड़े पैमाने पर मशीनीकरण हो चुका है। गाय का महत्व सांकेतिक ही रह गया है। वास्तव में तो ट्रैक्टर, थ्रेसर और ट्यूबवैल ही आज के ब्रह्मा, विष्णु व महेश हैं।
शारीरिक रूप से मजबूत होना भी कृषि व्यवसाय की एक आवश्यकता है, जिसके लिए कुश्ती, कबड्डी जैसे खेलों को अपनी संस्कृति का हिस्सा बनाया। प्रत्येक किशोर के लिए अखाड़े में जाना उतना ही अनिवार्य होता था, जितना कि आज उसके लिए स्कूल जाना। इन खेलों से जहां एक ओर मजबूत शरीर का निर्माण होता है, वहीं समानता का भी अनूठा अहसास होता है। वैसे तो हर खेल समानता का अहसास दिलाता है लेकिन यह अहसास कुश्ती व कबड्डी में अपने शिखर पर होता है। इन खेलों को खिलाड़ी एक-दूसरे से दूर रहकर नहीं खेल सकते, सब छुआछात से परे शारीरिक स्पर्श इनकी अनिवार्यता है। इन खेलों के खेलने में कोई लागत भी नहीं आती। ये बिना लागत के खेल हैं, जिन्हें अमीर-गरीब सब खेल सकते हैं। कुश्ती के बड़े-बड़े दंगल लगते थे, जिनमें सभी जातियों के पहलवान एक-दूसरे से कुश्ती करते थे एवं बराबर का सम्मान पाते थे। सभी जातियों के लोग एक-दूसरे से सट्ट कर खड़े होकर या इकट्ठे जमीन पर बैठकर समान रूप से कुश्तियों का आनंद लेते थे। आज भी ये हमारे लोकप्रिय खेल हैं और इनमें हमारा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबदबा है। हां ये बात और है कि अब दूसरे खेलों की तरह इनका भी व्यवसायीकरण हो रहा है।
खेती जोखिम भरा धंधा है। मौसम व भाव की अनिश्चितता बराबर बनी रहती है। ऐसे में इसके लिए साहस चाहिए। साहस हरियाणा की पुरानी परम्परा रही है। खाद्य सुरक्षा हो या सीमाओं की सुरक्षा दोनों में ही हरियाणा अग्रणी रहा है। हाजिर जवाबी भी हमारी एक खास पहचान रही है। हाजिर जवाबी कोई अलग चीज नहीं, बल्कि साहस व ईमानदारी का ही रूप है। ‘जैसा सोचा वैसा कह दिया’। जैसा महसूस किया, व्यक्त कर दिया, बिना किसी परिणाम की परवाह किए। और इसके लिए साहस चाहिए। हरियाणा का समाज जिंदादिली के कारण जाना जाता है। हंसी-ठट्ठा, चुटकले-ठिठोलियां आम जीवन का गहरा हिस्सा हैं, जिससे लोग ऊर्जावान रहते हैं।
मुझे एक अनुभव याद आ रहा है। हमारे गांव के पास एक नहर थी। कई हफ्तों के इंतजार के बाद उसमें पानी आता था। जब पानी आता था तो हम सब बच्चे लाठी-डंडे लेकर नहर पर जाते और उसके ‘मोंड’ (अगले हिस्से) की लाठी-डंडों से पिटाई करते थे। हम उसकी आरती नहीं उतारते थे, पूजा नहीं करते थे कि तू जल्दी आना। बल्कि पीटते थे कि तू देर से क्यों आई, यह खालिस हरियाणवी अभिव्यक्ति थी।
हमारे लोकगीत अपनी सरलता एवं मधुरता के लिए जाने जाते हैं। इनकी तर्ज पर बने फिल्मी गीत आज राष्ट्रीय पहचान बना रहे हैं। हमारे लोकगीत अपनी विविधता के लिए भी प्रसिद्ध हैं हर गीत किसी विशेष ऋतु या मौके का भाव लिए होता है। सावन, कार्तिक और फाल्गुन के गीत अलग-अलग होते हैं। शादी के गीतों की विविधता तो देखते ही बनती है। भात, फेरों व विदाई के गीतों की अपनी-अपनी नजाकत होती है। हमारे प्रमुख वाद्ययंत्रों बीन-बांसुरी घड़वा-तुम्बा, चिमटा-खड़ताल पर किसानी की स्पष्ट छाप है। ऐसे साधारण वाद्ययंत्रों से मधुर से मधुर संगीत निकालना संगीत कौशल एवं रचनात्मकता का प्रमाण हैं। स्वांग जहां मनोरंजन स्थल होते थे वहीं स्कूल, धर्मशाला, चौपाल, अस्पताल आदि सामूहिक सुविधाएं जुटाने के लिए धन एकत्रित करने का महत्वपूर्ण साधन भी होते थे। सिनेमा और टेलीविजन के बढ़ते प्रसार से हरियाणवी संस्कृति की यह महत्वपूर्ण विधा तेजी से लुप्त हो रही है।
आज हरियाणा की संस्कृति एक मुश्किल दौर से गुजर रही है। औद्योगिककरण, शहरीकरण और शिक्षा के प्रसार के बढ़ते सदियों पुरानी किसानी संस्कृति अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। कृषि क्षेत्र का महत्व लगातार कम हो रहा है। इसका उत्पादन व रोजगार में हिस्सा घट रहा है। गैर कृषि व्यवसायों से रोजी-रोटी कमाने वालों की संख्या बढ़ रही है। किसानों की अपनी ही पहचान पतली पड़ती जा रही है। बड़ी संख्या में किसान अपनी जमीन को स्वयं काश्त न करके ठेके पर दे रहे हैं और नाममात्र के ही किसान रह गए हैं। छोटे एवं सीमांत किसान मजदूरी करने पर विवश हो रहे हैं।
शहरीकरण व शिक्षा के बढ़ते प्रसार के साथ हरियाणा की बोली बोलने वालों की संख्या लगातार घट रही है। हरियाणवी बोली हिन्दी भाषा का शिकार हो रही है। हिन्दी की समीपता इसे खाए जा रही है।
इसको हरियाणा में शहरीकरण प्रक्रिया की विडम्बना ही कहिए कि गांव से शहर में आकर बसने वाले परिवार अपना धर्म, जाति, गोत्र एवं गांव का नाम तो साथ ले आते हैं, लेकिन अपनी बोली वहीं छोड़ आते हैं। प्रगति के नाम पर हम अपने बच्चों को हरियाणवी बोली से दूर रख रहे हैं। बोली महज बातचीत का ही औजार नहीं है। यह संस्कृति का वाहक भी है। बोली के बगैर संस्कृति बच ही नहीं सकती।
एक अन्य चुनौती हरियाणा को सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध बनाने की है। इस दिशा में हमें कुछ ऐसे ही प्रयास करने की आवश्यकता है। जैसे हमने खेलों के क्षेत्र में करके अपनी पहचान बनाई। खेलों की भांति हमें एक सुदृढ़ सांस्कृतिक ढांचा बनाना होगा एवं सांस्कृतिक विकास के लिए एक ठोस नीति तैयार करनी होगी। देहात एवं शहरों में पुस्तकालयों, नाट्यशालाओं, सांस्कृतिक केंद्रों एवं मंचोें की श्रृंखला स्थापित करने की आवश्यकता है। दूसरी ओर साहित्यकारों, कलाकारों एवं सांस्कृतिक पत्र-पत्रिकाओं को एक योजनाबद्ध तरीके से बढ़ावा देना होगा।
अंत में हरियाणा की संस्कृति के समक्ष कुछ मौजूदा चुनौतियों को आप से सांझा करना चाहता हूं। निश्चित तौर पर सबसे बड़ी चुनौती तो हरियाणवी बोली को बचाने की है। हमें ये समझना होगा कि बोली ज्ञान का भंडार एवं एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है, जिससे हम अपने बच्चों को वंचित नहीं रख सकते। माना हिन्दी भाषा हरियाणवी बोली के करीब है लेकिन हरियाणा की संस्कृति से कोसों दूर है। बोली में क्षेत्र विशेष की महक होती है। लहजा होता है। उसका एक-एक शब्द संस्कृति से सराबोर होता है। बोली किसी भी अनुवाद से परे होती है। हरियाणवी बोली को बचाना वक्त का तकाजा एवं सांझी जिम्मेवारी है। इसके लिए आवश्यक है कि रचनाकार अपनी रचनाएं हरियाणवी बोली में लिखे और सरकार एवं हरियाणा साहित्य अकादमी इसको एक नीति के तहत प्रोत्साहन दे। हरियाणा शिक्षा बोर्ड व प्रदेश के विश्वविद्यालय इन हरियाणवी में लिखी रचनाओं को अपने पाठ्यक्रमों में उचित स्थान दें। राष्ट्रीय स्तर पर हरियाणवी बोली एवं संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार के लिए ‘ब्रांड एम्बैसेडर’ नियुक्त करें। लेकिन इससे पहले जरूरी है कि हम जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाएं। आज प्रसिद्ध अभिनेता आमिरखान हरियाणवी बोली सीख रहा है वो इसलिए कि हमने खेलों में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर अपनी पहचान बनाई। जब हम दूसरे क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाएंगे, तो दूसरे लोग भी हमारी बोली सीखने का प्रयास करेंगे।
एक अन्य चुनौती हरियाणा को सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध बनाने की है। इस दिशा में हमें कुछ ऐसे ही प्रयास करने की आवश्यकता है। जैसे हमने खेलों के क्षेत्र में करके अपनी पहचान बनाई। खेलों की भांति हमें एक सुदृढ़ सांस्कृतिक ढांचा बनाना होगा एवं सांस्कृतिक विकास के लिए एक ठोस नीति तैयार करनी होगी। देहात एवं शहरों में पुस्तकालयों, नाट्यशालाओं, सांस्कृतिक केंद्रों एवं मंचोें की श्रृंखला स्थापित करने की आवश्यकता है। दूसरी ओर साहित्यकारों, कलाकारों एवं सांस्कृतिक पत्र-पत्रिकाओं को एक योजनाबद्ध तरीके से बढ़ावा देना होगा। एक और गंभीर चुनौती तेजी से बदलते परिदृश्य में एक सर्वसमावेशी हरियाणा की छवि बनाने की है, जिसमें प्रदेश के सभी क्षेत्र, समुदायों एवं वर्गों की झलक हो। क्षेत्र की दृष्टि से हरियाणा एक छोटा राज्य है पर सांस्कृतिक विविधता बहुत है। सभी विविधताओं को चिन्हित करने एवं रचना का केंद्र बनाने की आवश्यकता है। इन सब को मिलाकर ही पूरे हरियाणा समाज की ‘सांझी’ पहचान बनेगी।
अमन वाशिष्ठ , रोहतक
हरियाणा के साहित्य का दस्तावेजीकरण हुआ है शंकरलाल यादव, भीमसिंह मलिक के निर्देशन में सैंकड़ों शोध हुए। ‘जनसत्ता’ में एक गांव की कहानी शुरु हुई जिसमें बहुत से गांवों के बारे में जानकारियां सामने आई। ‘हरियाणा संवाद’ में भी लगातार दस्तावेजीकरण होता रहा है, लेकिन इस दस्तावेजीकरण में अतीत के प्रति अतिरिक्त मोह का भाव स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। संस्कृति को स्थैतिक स्थिति में समझकर और बदलाव के साथ साथ समझने की आवश्यकता है।
दस्तावेजीकरण में अतीत के गौरव के अतिरेक से ग्रसित न हो। वरना तो ग्रामीण महिला पर बात करते हुए कहा जाएगा कि कितना सोणा ओल्हा (सुंदर घूंघट) है। जरूरत इस बात की है कि घूंघट के सौंदर्य के साथ-साथ नारीवादी दृष्टि से उसका विश्लेषण हो। गांव में मौजूद भिति चित्रों व लोक कला तो हों, लेकिन गांव में मौजूद जातिगत द्वन्द्व भी हो। तमाम सामाजिक आयामों को देखने की आवश्यकता है। गांव के अतीत का उत्सव मनाने के साथ-साथ उसमें मौजूद समस्याओं को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। ध्यान रखने की बात यही है कि दस्तावेजीकरण न तो अतीत की रोमानियत से ग्रस्त हों और न ही अतीत के प्रति उपेक्षा का भाव हो। एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर प्रेम चौधरी ने हरियाणा का दस्तावेजीकरण किया है उसमें गांव की रोमांटिक तस्वीर नहीं, बल्कि वहां के अन्तर्विरोध है।
हम कंशेसन सीकर इसलिए हो गए हैं कि पूरा भारत जब स्वतंत्रता आंदोलन में था तो हम लेजस्लेटिव राजनीति में लगे थे। पंजाब की राजनीति पर निगाह डालें तो उसमें संघर्ष तो हैं, लेकिन जोर इसी पर है कि किसी न किसी तरह से सत्ता के गलियारों में पहुंचा जाए। यूनियनिस्ट, जमींदारा पार्टी की राजनीति की परंपरा है हमने मान लिया कि काम कैसे होगा कि विधायक की जेब में परची डालने से।
जोगा सिंह
दो एक साल पहले अपने दोस्त को फोन किया कि उसने कहा कि मेरी झूठ की दुकान चल रही है। वह प्रोपर्टी डीलर है। भारत ने झूठ से प्रेम कर लिया है। हमारे दिमाग में झूठ बिठा दिया कि समस्त कलाएं और साहित्य तो यूरोप में है। सेक्सपीयर ही महान साहित्यकार हैं, हमारे साहित्यकारों को तो कुछ पता ही नहीं।
अपनी धरोहर, विरासत की समृद्धि के प्रति उपेक्षा है। अपनी संस्कृति को गरीब न समझें, उसका विश्लेषण करें। उसे अपनाएं।
मैं गांव के आदमी की समझ के आगे मूर्ख नजर आते हैं। प्रोफेसर के बारे में खास तौर पर कह सकता हूं।
हमने आर्थिक विकास किया, लेकिन लोग आत्महत्या कर रहे हैं। मैने अपने बचपन में कभी आत्महत्या नहीं सुनी। कभी कभार ऐसा हो भी जाता था तो सारा गांव शोक में डूब जाता था और ऐसा मानता था मानो कि प्रलय आ गई हो। अब हर रोज आत्म हत्याएं हो रही हैं। गांव के अभावग्रस्त जीवन था, खाने को कुछ नहीं था, लेकिन कोई आत्महत्या नहीं करता था। अब वैसे अभाव तो नहीं है, लेकिन हम आत्महत्या करने पर उतारू रहते हैं। इसका कारण है कि सांस्कृतिक तौर पर हम खोखले हो चुके हैं। हमने झूठ से प्यार कर लिया है।
हम एक खोखली भाषा बोलते हैं, जिसे हम मानक भाषा कहते हैं। इससे हमारा जुड़ाव नहीं होता। हमारे दिमाग में बिठा दिया कि अंग्रेजी से ही हमारा बेड़ा पार होगा। इसी भाषा से ही हम तरक्की करेंगे, लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। सत्रहवीं शताब्दी में दुनिया के कुल उत्पादन का 22 प्रतिशत भारत में पैदा होता था। आज दुनिया का ढाई प्रतिशत है। किसी को अंग्रेजी नहीं आती थी, लेकिन अब हमें खूब अंग्रेजी आती है पर हमारा दुनिया में व्यापार कम होता जा रहा है। शिक्षा का भट्ठा बैठ रहा है। 1990 के बाद अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा अपनाने से हमारी शिक्षा व्यवस्था बरबाद हो रही है।
स्कूल-कालेजों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। यहां तक कि अंग्रेजी में भी हमारा स्तर गिर रहा है। अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा से अंग्रेजी तो नहीं आती। भाषाशास्त्री होने के नाते विश्वास से मैं ये बात कह सकता हूं कि जो बच्चा मातृ भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करता उसे अंग्रेजी भी नहीं आयेगी। ये बात हो रही है कि हम संप्रेषण नहीं कर पाते, अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाते उसका कारण है हमारी दिमागी गुलामी है। नीति-निर्माताओं को समझने की जरूरत है कि जब तक दिमागी गुलामी से छुटकारा नहीं पायेंगे, तब तक न शिक्षा का विकास होगा और न आर्थिक विकास होगा, न संस्कृति बच पाएगी।
रविन्द्र गासो
संस्कृति हमारे सामाजिक संबंधों की आंतरिकता है उसकी अभिव्यक्तियां हुई हैं तरह-तरह से। यही हमारी धरोहर है। संस्कृति की बुनियाद है हमारा काम-धंधे। काम के तरीके उत्पादन के साधन अलग-अलग दौर में अलग-अलग रहे हैं वे हमारी विरासत है। उसको जानना समझना, उसकी सूझ-बूझ को जानना। वही हमारा इतिहास है। यह समझने के लिए हैं पूजने के लिए नहीं।
हमने बड़े-बड़े भवनों को संजो के रखा हुआ है उसको पूजने या धोक मारने के लिए नहीं रखा हुआ। बल्कि उसकी समझ को, बनावट को जनता और सत्ता के संबंधों तथा जनता के परस्पर संबंधों को जानने के लिए। संस्कृति निरंतरता है। इस बात को अनदेखा किया जा रहा है, कि समय के साथ संस्कृति बदलती है और हमें इस बदलाव का स्वागत करना चाहिए। इसके प्रति ऐसे भाव की आवश्यकता नहीं कि पुरानी चीज तो रही नहीं। उसका मर्शिया पढ़ने लगें। सवाल है कि बदलते समय के साथ हम संबंधों को बदल पा रहे हैं या नहीं। संस्कृति का धर्म व जाति के साथ कोई संबंध नहीं है, बल्कि संस्थागत धर्म व जाति संस्कृति को नाश करने वाले हैं। हमारे जीवन में धर्म भी है जाति भी है लेकिन संस्थागत रूप में नहीं है। ये निहित स्वार्थों के कारण बनी हैं। यदि संस्कृति को बचाना है तो संस्थागत धर्म व जाति को समझते हुए इनके खिलाफ भी काम करना होगा।