अमनदीप वशिष्ठ
भारत लगभग दो सौ साल तक अग्रेंजी साम्राज्य के अधीन रहा। साम्राज्यवाद ने भारत के प्राकृतिक-भौतिक संसाधनों का केवल दोहन ही नहीं किया, बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करके दिमागों और आत्मा को गुलाम बनाने की कोशिश की। ज्ञान-विज्ञान व विचारों की प्रकृति वैश्विक होती है, लेकिन साम्राज्यवाद ने शिक्षा, पाठ्यचर्या के माध्यम से उपनिवेशों के नागरिकों में हीनता पैदा करने के लिए ज्ञान को हथियार की तरह प्रयोग किया। अपनी उपलब्धियों को श्रेष्ठ-अनुकरणीय, आधुनिक-प्रगतिशील बताया तो उपनिवेशों की उपलब्धियों को हेय व पिछड़ा। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई उससे राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ पुनरूत्थानवादी धारा भी पनपी जो उसी तरह से अपनी भाषा व संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ व अनुकरणीय मानती थी। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीय बौद्धिक जगत में गहरे संघर्ष, बेचैनी व जद्दोजहद थी। 1947 में भारत राजनीतिक तौर पर तो आजाद हो गया, लेकिन साम्राज्यवाद ज्ञान की प्रणालियों-पद्धतियों में इतने गहरे तक घुसा हुआ है कि कई बार उसका अहसास भी नहीं होता। साम्राज्यवाद हमारे ज्ञान, शिक्षा, संस्कृति बोध किस प्रभावित कर रहा है, इस विषय पर परिचर्चा के लिए पिछले अंक में कृष्ण कुमार के आलेख ‘औपनिवेशक दासता का ज्ञान-काण्ड’ सहमति-असहमति पर टिप्पणी-प्रतिक्रिया अथवा इस विषय के दूसरे पहलुओं पर आलेख आंमत्रित किए थे। इस अंक में अमनदीप वशिष्ठ का आलेख प्रकाशित कर रहे हैं। – सम्पादक
जब हम ‘औपनिवेशिक काल’ की बात करते हैं, तो एक ऐसा चित्र बनता है, जिसमें समस्त राजनीतिक क्रिया-कलाप, सामाजिक जन जीवन, सांस्कृतिक प्रक्रियाएं और ज्ञान-परम्परा अपनी सहज स्वायत्त गति छोड़ कर किसी विचित्र तनाव से गुजर रहे हैं। इस तनाव को हम कैसे देखें और समझें? विशेष रूप से इस तनाव को जो हमारी ज्ञान परम्परा के भीतर तक प्रवेश कर गया था और आज भी महसूस किया जाता है। अंग्रेजों का भारत आने के बाद हम पर क्या प्रभाव रहा है? क्या जो ‘औपनिवेशिक प्रभाव’ हम पर पड़ा, उसे हमने पूरी तरह विश्लेषित कर लिया है?
जब हम भारत पर अंग्रेजी शासन के प्रभाव की बात करते हैं तो एक विचार पर करीब-करीब पूर्ण सहमति हो ही जाती है। वह ये कि अंग्रेजों ने भारत में जो ज्ञान-परम्परा स्थापित की, वो यूरोपीय सांचे में ढली हुई थी और भारत के अपने ‘इतिहास-दर्शन-ज्ञान’ को अनदेखा करती थी। यहां तक तो सारी बात एक ‘आम राय’ के रूप में ठीक-ठाक चलती है। समस्या तब शुरू होती है, जब हम ब्रिटिश काल के पूरे ज्ञान-विज्ञान के ढांचे को रेशा-रेशा करके देखना आरंभ करते हैं। जब हम इस पूरी प्रक्रिया के अंदर उतरते हैं तो पाते हैं कि ब्रिटिश-ज्ञान-दृष्टि को पूरे यूरोपीय संदर्भ से अलग नहीं देखा जा सकता। चूंकि ब्रिटेन आखिरकार यूरोपीय उथल-पुथल से अलग नहीं था। अंग्रेज शासक खुद अपने-आप में भी क्या अंतर्विरोधों से भरा हुआ नहीं है? वह एक तरफ फ्रैंच क्रांति के उदात्त मूल्यों से भी परिचित है, उस पर यूरोपीय पुनर्जागरण का भी प्रभाव है और दूसरी तरफ उसमें नस्लीय घृणा, श्रेष्ठ होने का अहंकार तथा औपनिवेशिक शोषण की क्रूरता भी मौजूद है। इस पूरी चर्चा को ब्रिटेन से होते हुए सम्पूर्ण यूरोप की आलोचनात्मक समझ तक ले जाना होगा।
एक ओर कुछ ब्रिटिश अफसर ‘एशियाटिक सोसायटी’ जैसी संस्थाएं बना रहे थे। 1784 में बनी ‘एशियाटिक सोसायटी’ ने हजारों ग्रंथ इकट्ठे किए, संस्कृत-फारसी-अरबी में लिखी किताबों का अनुवाद करवाया। कितने ही प्राचीन सिक्के, पांडुलिपियां, ताम्रपत्र, चित्र और ग्रंथ इकट्ठे किए गए। बौद्ध ग्रंथों को एकत्र किया गया। थोड़े समय के बाद विज्ञान की विभिन्न शाखाओं जैसे भू-विज्ञान और जीव विज्ञान से संबंधित वस्तुओं एवं जीव-कंकाल आदि को सहेजकर संग्रहालय बनाया गया। ब्रिटिश अधिकारियों, कर्मचारियों ने परिश्रमपूर्वक विभिन्न रिपोर्टें तैयार करवाई। भूमि संबंधों पर आधारित ‘सेटलमेंट रिपोर्टें’ गहन अध्ययन के बाद लिखी गई। जिलों से संबंधित ‘डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियरों’ में जिलों का ‘भौगोलिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक’ ब्यौरा प्रकाशित किया गया। बात यहीं तक नहीं रुकी। लोक-जीवन, लोक-भाषा, लोक-संस्कृति से संबंधित पहलुओं पर भी अंग्रेज अधिकारियों ने अध्ययन किए। जैसे जनसंख्या पर आधारित विस्तृत जनगणना दस्तावेज (सेन्सस) और गांव आधारित आर्थिक सर्वेक्षण। और भी न जाने कितने ही सैंकड़ों दस्तावेजों की सूची बन सकती है।
इन सभी अध्ययनों के साथ-साथ ब्रिटिश राज से जुड़े अधिकारी आंदोलनों को कुचलने में भी लगे थे। एक के बाद एक भयंकर अकाल पड़ रहे थे। जैसा कि कई राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने अपने शोध में सिद्ध किया-‘पूंजी भारत से बाहर की ओर बहती रही।’ क्या अंग्रेजों द्वारा भारत से संबंधित अध्ययनों और शासन कार्य में कोई सीधा एवं नकारात्मक शोषण-प्रोत्साहक संबंध था?
एक बात को निश्चियपूर्वक कहा जा सकता है कि शासन कार्य और भारत-अध्ययन आपस में जुड़े थे। पर इस बात का विश्लेषण आवश्यक है कि यह अध्ययन कितना पूर्वाग्रह ग्रसित था और कितना नहीं। इस सारे विषय पर चर्चा करते हुए हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि ‘औपनिवेशिक प्रभुत्व वाले देश’ और बाकी ‘पश्चिमी देश’ ज्ञान-परम्पराओं और संबंधों में कितने अलग हैं। उदाहरण के लिए, क्या ब्रिटिश अकादमिक इंडोलॉजी और जर्मन इंडोलॉजी में फर्क किया जाना चाहिए था? नहीं। ‘इंडोलॉजी’ यानि भारत की परम्पराओं-शास्त्रों-संस्कृति का अध्ययन। भारत जर्मनी का उपनिवेश नहीं रहा है। जिस औपनिवेशिक दमन-शोषण की बात अकसर होती है, भारत के सिलसिले में जर्मनी का वैसा दमन-शोषण वाला रूप नहीं रहा है। तो ब्रिटेन के भारत अध्ययन और जर्मनी के भारत अध्यन में गुणात्मक अंतर तो होना चाहिए। यानी जिन जर्मन विद्वानों जैसे मैक्समूलर, अल्ब्रेख्त वेबर, गोल्डस्टक्कर, ऑटो वान बोट्लिंग और रूडोलक रॉथ आदि ने जो संस्कृति पर कार्य किया, क्या उसे ‘औपनिवेशिक ढांचे’ के भीतर ही समझें या अलग से ‘पश्चिमी परम्परा’ नाम की इकाई भी विकसित करें। एक तथ्य जो इसमें ध्यान देने योग्य है, वह यह कि इन जर्मन विद्वानों में सबसे प्रसिद्ध ‘मैक्समूलर’ ने अपना कार्य ब्रिटेन में रहकर किया। ठीक इसी तरह थियोडोर गोल्डस्टक्कर ने अपना पाणिनी पर आधारित कार्य ब्रिटेन में रहते हुए ही किया। बाकी जर्मन विद्वान जर्मनी में रहते हुए ही अपना कार्य करते रहे। तो हम कह सकते हैं कि पश्चिम का एक हिस्सा ऐसा भी था जो ‘पश्चिमी होते हुए भी ‘औपनिवेशिक ढांचे’ के अंदर शोषणकर्त्ता के रूप में सीधे-सीधे मौजूद नहीं था। यह सूक्ष्म फर्क ध्यान रखने की जरूरत इसलिए है, क्योंकि जब ‘औपनिवेशिक ब्रिटेन – की बात चलती है और उसकी आलोचना होती है, तो उस बहाने पूरा यूरोप घेरे में आ जाता है। ब्रिटेन के अलावा बाकी यूरोप की आलोचना तो होनी चाहिए, पर वैसे नहीं जैसे साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी ब्रिटेन की। हालांकि हम देखेंगे कि इसमें एक प्रसिद्ध विद्वान की राय अलग है। ये पूछा जा सकता है कि ब्रिटेन और बाकी पश्चिम में फर्क तो है, पर क्या सम्पूर्ण पश्चिम भारत की ओर प्रकारांतर से एशिया को ईमानदारी से समझता है और क्या वहां कोई पूर्वाग्रह है ही नहीं?
पश्चिम ने बड़े परिश्रम से ‘पूर्व’ को समझने का प्रयास किया है। ‘पूर्व’ अर्थात अरब-चीन-भारत आदि इलाके। पर ये समझने का प्रयास क्यों? उपनिवेशों पर राज्याधिकार वाले ब्रिटेन-फ्रांस के बारे में कहा जा सकता है कि यह ‘समझने की कोशिश’ शासन का जरूरी हिस्सा था। जब तक शासक अपने ‘सब्जेक्ट’ यानी प्रजा को समझेगा नहीं, तब तक वह राज कैसे करेगा? शायद इसीलिए ब्रिटिश अधिकारी भारत में परम्पराओं का अध्ययन करते थे और यहां के धर्म ग्रंथों के अनुवाद करवाकर उन्हें पढ़ते थे। यानी वो शासक वर्ग जो अध्ययन करता था वो शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए करता था।
यदि पूरा विमर्श इतने पर ही समाप्त हो जाए तो असंगत नहीं होगा, पर अधूरा जरूर होगा। अगर हम इस पूरी बात को केवल ब्रिटिश विद्वानों के भारत अध्ययन तक सीमित रखें तो शायद ‘शासन के लिए अध्ययन’ वाली व्याख्या हमें संतोष दे और हम कह सकेंगे कि वो अध्ययन पूर्वाग्रहों से भरा था। पर ये एक यांत्रिक और अति-सरलीकृत विचार होगा। अतः पहले हम ब्रिटिश अफसरों द्वारा भारत में किए गए अध्ययन को अलग-अलग वर्गों में बांट लेते हैं और फिर इसका विश्लेषण करें।
पहला वर्ग है-धर्म से जुड़े दर्शन-साहित्य ग्रंथों का अनुवाद और मूल-पाठों का प्रकाशन। दूसरा वर्ग समाज-विज्ञान से संबंधित अध्ययन और तीसरा वैज्ञानिक विषयों जैसे-भौतिकी, रसायन, भूगर्भशास्त्रा और चिकित्सा आदि से संबंधित अध्ययन-सर्वेक्षण वगैरह। इनके अलावा और भी सूक्ष्म विभाजन हो सकते हैं पर वर्तमान चर्चा के लिए फिलहाल इन्हें ही इस्तेमाल कर लेते हैं
इस बात पर आगे चलने से पहले हम ऐसे दो विद्वान आचार्यों का जिक्र करें, जिन्होंने पिछली आधी सदी में इन सारी ज्ञान-प्रणालियों से जुड़े पक्षों को समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पहले हैं, शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बर्नार्ड एस कॉन एवं दूसरे कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एडवर्ड सईद। सईद का नाम अधिक जाना पहचाना लग सकता है, पर जिन विचारों को सईद ने अपनी कृति ‘ओरिएंटलिज़्म’ में पिरोया, वे बर्नार्ड कॉन के लेखों और कक्षा-व्याख्यानों में बीज-रूप से पहले आ चुके थे। कॉन का कार्य इतिहास-एंथ्रोपोलॉजी को केंद्र में रखकर चल रहा था, तो दूसरी और सईद का काम साहित्यिक आलोचना और संस्कृति विमर्श के इर्द-गिर्द था। दोनों ने हमें ‘पश्चिम’ और ‘पूर्व’ के संबंधों को समझने की कुंजियां प्रदान की। गौरतलब है कि बर्नाड कॉन पीएचडी थीसिस के कार्य के लिए भारत आए और एक दलित जाति के बदलते स्वरूप पर शोध पत्र भी लिखा। कॉन ने आगे चलकर औपनिवेशिक काल की ब्रिटिश ज्ञान प्रणालियों पर बहुत कुछ लिखा, जिसका हम आगे काफी प्रयोग करेंगे। जिस ‘जर्मन इंडोलॉजी’ यानी भारत के संबंध में जर्मन अकादमिक कार्य का जिक्र पहले हुआ। उसके बारे में सईद ने अपनी विख्यात कृति ‘ओरिएंटलिज़्म’ में आरंभ में ही लिखा है। (‘ओरिएंटलिज़्म’ का हिन्दी अनुवाद ‘प्राच्यवाद ’ किया जाता हैे) सईद के अनुसार एंग्लो फ्रेंच यानी बर्तानवी-फ्रेंच और अमेरिकन प्राच्यवाद में तथा जर्मन प्राच्यवाद में एक चीज तो समान थी। वह थी-पूर्व पर पश्चिम की बौद्धिक ‘सत्ता’। यानी सईद के अनुसार जर्मन बौद्धिक कार्य भी पूर्णतः ‘शुद्ध’ नहीं कहा जा सकता।
अब हम लौटें और एक-एक करके जिन तीन वर्गों का हमने खाका तैयार किया था, कॉन के कार्य के आधार पर उनका विश्लेषण करें, यह ध्यान रखें कि यह तीन वर्ग बहुत मोटे पर तौर फौरी ढंग से बनाए गए हैं। बिल्कुल सटीक वर्गीकरण के लिए बर्नार्ड कॉॅन की पुस्तक ‘कोलोनिएलिज़्म एंड इट्स फॉर्मस आफ नॉलेज’ देखी जा सकती है, जहां कॉन पुस्तक के शुरूआत में ही कई ‘मौडेलिटीज’ का उल्लेख करते हैं। (गौरतलब है कि बर्नार्ड कॉन सब-आल्टर्न स्टडीज समूह के साथ कार्य करते रहे हैं और इसी समूह के वरिष्ठतम विचारक रणजीत गुहा ने किसान आंदोलनों, बगावतों पर आधारित अपनी पुस्तक में एक अध्याय का नाम ही यही रखा था-‘मौडेलिटी’ जिसका नजदीकी अनुवाद हो सकता है-एक निश्चित ढंग या रीति।)
पहले वर्ग को समझने का प्रयास करते हैं। आखिर 1784 में जो ‘ऐशियाटिक सोसायटी’ बनी, उसकी क्या पृष्ठभूमि है? इसे बनाने वाले विलियम जोन्स की भूमिका क्या है? सईद के शब्द का इस्तेमाल करते हुए पूछें, कि लेखक की ‘स्ट्रेटीजिक लोकेशन’(रणनीतिक जगह) कहां है? विलियम जोन्स संस्कृत ग्रंथों को क्यों समझना चाह रहे थे? न सिर्फ समझना बल्कि उनके अनुवाद करके मानक संस्करण भी छापना। यह ध्यान रखना होगा कि विलियम जोन्स 1783 में कलकत्ता में स्थित न्यायालय में जज बनकर आए थे। हिन्दुओं से संबंधित कानून बनाने के लिए हिन्दू ग्रंथों का अध्ययन जरूरी था। अनुवाद उपलब्ध थे नहीं, जो थे वे फारसी में ही थे और गड़बड़ियों से भरपूर। जोन्स खुद एक प्रतिष्ठित फारसी विद्वान थे पर उनका संस्कृत ज्ञान आरंभ में न के बराबर था। सितम्बर 1785 से लेकर अक्तूबर 1786 तक संस्कृत अध्ययन ने विलियम जोन्स को इस लायक बना दिया कि वह अब स्थानीय कोर्ट के पंडितों को सही-सही समझ पाएं और उन्हें दुरूस्त भी कर सकें। विलियम जोन्स की इस परिश्रमपूर्ण बौद्धिक कवायद में ‘मनुस्मृति’ का अनुवाद करना एक महत्वपूर्ण घटक था। बर्नार्ड कॉन के शब्दों में कहें तो भारतीय विचार और संस्कृति का ‘ऑब्जेक्टिफिकेशन’ (वस्तु में तबदील करना) और रिऑर्डरिंग (पुनर्रचना) चल रहे थे। कॉन के शोध निबंध का शीर्षक इस पूरी समस्या को समझने में मददगार है। ‘दि कमांड ऑफ लैंग्वेंज एंड दि लैंग्वेज ऑफ कमांड’ अर्थात्-भाषा पर अधिकार एवं अधिकार की भाषा। इसी विषय पर क्योटो में अपने व्याख्यान में प्रोफेसर रोमिला थापर जी ने एक और पक्ष भी रखा है। (संदर्भ-कल्चरल पास्ट्स, एसेज इन अर्ली इंडियन हिस्ट्री, आक्सफोर्ड इंडिया पेपरबैक्स, पृष्ठ 157) रोमिला जी के अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसर जो अध्ययन कर रहे थे वो स्थानीय ब्राह्मण विद्वानों की मदद से हो रहा था। अतः बौद्ध ग्रंथों पर इतना काम नहीं हो पाया। इसका एक कारण यह भी था कि बौद्ध गं्रथों पर कार्य के लिए बौद्ध भिक्षु उपलब्ध नहीं थे और दूसरे यह कि इन्हें हिन्दू धर्म की ही हीन (इन्फीरियर) शाखाएं समझा गया।
यहां प्रश्न ये उठ सकता है कि आज हम इतने समय बाद तो ब्रिटिश विद्वानों के बौद्धिक कार्य की आलोचना कर रहे हैं, पर उस औपनिवेशिक दौर में भारतीय विद्वान इसे किस ढंग से देखते थे? इसका उत्तर होगा – प्रशंसात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह से। स्वामी विवेकानंद 1897 में अपने शिष्य से बात करते हुए कहते हैं – ‘‘ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस ऋग्वेद को छपवाने के लिए 9 लाख रुपए नगद दिए थे, उससे भी काम पूरा नहीं हुआ …(पुनः) ज्ञान के निमित्त इतना व्यय और ऐसी प्रबल ज्ञान तृष्णा वर्तमान समय में क्या किसी ने इस देश में देखी है’’ इससे पहले स्वामी विवेकानन्द मैक्समूलर के बारे में अति-प्रशंसात्मक लहजे में कहते हैं, ‘‘मुझे कभी-कभी ऐसा अनुमान होता है कि सायणाचार्य ने अपने भाष्य का अपने ही आप उद्धार करने के निमित्त मैक्समूलर के रूप में पुनः जन्म लिया है।’’ जब विवेकानंद जी का शिष्य जर्मन मूल के ब्रिटेन में कार्यरत विद्वान मैक्समूलर को ‘मलेच्छ’ कहता है तो विवेकानंद जी जवाब में कहते हैं कि ‘जो ज्ञान की तेजस्वी मूर्ति है, उनके लिए वर्णाश्रम या जातिविभाग कैसा’….(इससे पहले) ‘हम आर्य हैं’, ‘वे मलेच्छ हैं’, आदि विचार अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं।’ इस पूरे प्रकरण से स्पष्ट है कि स्वामी विवेकानंद पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर का गहरा सम्मान करते थे। मैक्समूलर के बारे में यह जान लेना उपयोगी होगा कि वह 1823 में जर्मनी में जन्में पर 1850 में ऑक्सफोर्ड में प्रोफेसर की नियुक्ति पाकर मृत्युपर्यन्त 1900 तक, यानी पचास साल इंग्लैंड में ही रहे। इसके अतिरिक्त महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज जी का भी नाम लिया जा सकता है, जो भारतीय दर्शन के विद्वान थे और अपने पुरालेख शास्त्रा के विदेशी गुरु डा. वेनिस का बहुत सम्मान करते थे।
दूसरा वर्ग है-समाज विज्ञान से संबंधित अध्ययन। यही वो वर्ग है, जहां औपनिवेशिक काल में किए गए सर्वेक्षण जैसे जनगणना, जाति अध्ययन की चर्चा होती है और वो पूरी प्रक्रिया सामने आती है, जिससे भारत का सामाजिक ताना-बाना प्रभावित हुआ। समाज विज्ञान के अंतर्गत योें तो बहुत सारी चीजें आती हैं, पर हम फिर से बर्नार्ड कॉन के काम पर लौटते हुए जनगणना यानी ‘सेन्सस’ का अध्ययन करें। बर्नार्ड कॉन का एक बहुत प्रसिद्ध निबंध है-‘दि सेन्सस, सोशल स्ट्रक्चर एंड ऑब्जेक्टिफिकेशन इन साऊथ एशिया’ ये निबंध कई अलग-अलग किताबों में मिल जाता है। इस निबंध में कॉन जनगणना की पूरी प्रक्रिया को उधेड़ कर रख देते हैं। बहुत अधिक विस्तार के लिए इस निबंध को पढ़ा जाना चाहिए पर जो मुख्य बात कॉन ने कही, वह सोचने लायक है। कॉन का कहना है कि जब जनगणनाएं हुई (पहली बार 1871-72) तो भारतीयों को एकदम इस सवाल का सामना करना पड़ा कि वो कौन हैं? और उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था क्या है? अगर हम जनगणना के फार्मों में भरे जाने वाले सवालों को देखें तो हम देखते हैं कि उनमें भारी दिक्कते थीं। इन सवालों ने किसे प्रभावित किया? क्या एक किसान को जिसने इन सवालों का जवाब दिया? नहीं, बल्कि उन पढ़े-लिखे करीब पांच लाख आदमियों को जो ये जनगणना का काम कर रहे थे।
असल में हुआ ये, कि पहली बार भारतीयों को उनके धर्म-जाति के बारे में ठोस जवाब देने पड़े। अतः एकदम से जो जाति-चेतना ढुलमुल थी, उसने एक पक्की शक्ल ले ली। इसको आसानी से समझने के लिए कुछ यूं देखें। मान लीजिए, आज इक्कीसवीं सदी में एक आदमी दूसरे व्यक्ति से पूछे कि ‘तुम जिंदगी में क्या करना चाहते हो? तुम्हारा प्लान क्या है?’ अब अगर दूसरे व्यक्ति ने इन सवालों के बारे में सोचा ही न हो और बिल्कुल बेफिक्र जिंदगी बिताता रहा हो तो क्या होगा? होगा ये कि इस दूसरे व्यक्ति को अब कुछ अपने बारे में सोचना पड़ेगा कि वो क्या करना चाहता है। उसे अपने आप से सवाल पूछने पड़ेंगे और इस पूरी प्रक्रिया में वो व्यक्ति बदलेगा। उसकी पूरी चेतना बदलेगी। अब उसका रवैया ढुलमुल नहीं हो सकता। चाहे उसे कोई भी जवाब बनाना पड़े, पर ‘जवाब बनाने’ की प्रक्रिया से गुजरना तो पड़ेगा। ये पूरा मामला उसकी चेतना के एक हिस्से को ठोस बना देगा।
खैर, ये उदाहरण और जाति का प्रश्न अलग-अलग है। पर इस उदाहरण को हम इतना तो समझ लें कि प्रश्न पूछने की प्रक्रिया और उत्तर देने की बाध्यता, एक ‘मासूम’ प्रक्रिया नहीं है। ये इतना सहज नहीं जितना लगता है। ये प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति और उत्तर देने वाले इंसान, दोनों को बदल जाता है। यही काम जनगणनाओं ने किया। उनके बाद भारतीय समाज वो नहीं रहा, जो वह पहले था। हालांकि इस पूरे विमर्श का ये मतलब नहीं निकालना चाहिए कि पहले सब जाति-व्यवस्था बहुत भली और अच्छी थी और अंग्रेज शासक इसे खराब कर गए। जातियों का टकराव और शोषण पहले भी था, पर औपनिवेशिक प्रक्रिया ने इन टकरावों को पैना और तेज कर दिया।
तीसरा वर्ग है विज्ञान से संबंधित। ये एक तरह से अजीब भी लग सकता है कि वैज्ञानिक तथ्य तो ‘तथ्य’ होता है उसमें औपनिवेशिकता क्या करेगी? यह एक बेहद विवादग्रस्त क्षेत्र है। इसके लिए इतना जिक्र काफी होगा कि सबाल्टर्न विचारक ज्ञान प्रकाश और समाज-मनोविज्ञानी आशीष नंदी ने अपनी-अपनी किताबों में औपनिवेशिक तथा पश्चिमी विज्ञान-वैज्ञानिक परम्पराओं की आलोचना प्रस्तुत की है। हालांकि सुब्रतदास गुप्त ने सोशल साइंटिस्ट (मई-जून 2014) में एक शोध पत्र लिखा-‘साईंस स्टडीज सैन्स साईंस’ और ज्ञान प्रकाश एवं आशीष नंदी जी के कार्य की यह कहकर आलोचना की कि उनके कार्य में ‘विज्ञान के मूल कंटेट’ को अनदेखा किया गया है।
इतनी बात कर चुकने के बाद अब हम ये पूछें कि क्या पूरा पश्चिम हमें ठीक से कभी नहीं समझ सकेगा? क्या पश्चिम ‘अन्य’ (दि अदर) को हमेशा गलत ही पेश करता है? जब अल बेरूनी भारत आए और उन्होंने यहां व्याप्त संकीर्ण विचारों की सख्त आलोचना की, तो क्या वो गलत थे? अल बेरूनी आज से करीब एक हजार साल पहले भारत आए थे। वो न तो कोई उपनिवेशवादी थे न ही यूरोपवासी अंग्रेज। इसका अर्थ यह है कि अंग्र्रेजों या पश्चिमी विचार की आलोचना के बीच हमें यह ध्यान रखना है कि हम स्वयं को ‘महान-शुद्ध-पवित्र’ घोषित न कर बैठें। यह भी निष्कर्ष न निकाले जाएं कि पश्चिम से आने वाले विचार किसी काम के ही नहीं है। एक तटस्थ और संतुलित आलोचना का भाव हममें रहे। आधुनिक काल में अंग्रेजों के आने के बाद दलितों-स्त्रिायों की स्थिति में जो परिवर्तन आए उन पर बहस बाकी है। हालांकि आज बौद्धिक जगत में औपनिवेशिक काल के दुष्परिणामों पर करीब-करीब सहमति है पर फिर भी यह याद रखें कि आधुनिक-शोषक सभ्यता के पश्चिमी मॉडल की आलोचना करते हुए गांधीजी ने थोरो-रस्किन जैसे पश्चिमी विचारकों की मदद ली और इस लेख में भी पश्चिमी एवं औपनिवेशिक ज्ञान-परम्पराओं की पड़ताल के लिए बर्नार्ड कॉन जैसे मूर्धन्य विद्वान के कार्य का भरपूर सहारा लिया गया।
आज जबकि पुराने अंदाज का उपनिवेशवाद संभव नहीं रहा और नए ढंग का साम्राज्यवाद पूरे विश्व में एक जटिल-जाल फैलाए हुए है, हम स्वयं को शुष्क पश्चिम विरोधी होने से और ताकतवर अमेरिकी-यूरोपीय महाशक्तियों के सम्मुख घुटने टेकने से, दोनों प्रवृतियों से बचाएं।