फासला – ज्ञान प्रकाश विवेक

वालैंट्री रिटायरमेंट स्कीम किसी उपकार की तरह पेश की गई थी, जिसमें लफाज्जियों का तिलिस्म था और कारपोरेट  जगत का मुग्धकारी छल! इस छल का मुझे बाद में पता चला। फिलहाल तो मैं इस बाईस लाख के चैक को देखकर अभिभूत था, जो मुझे कम्पनी ने थमाया था।

बाईस लाख! मैं तो उछल पड़ा था। मैं खुद को बादशाह सलामत समझ रहा था। मैं बेहद खुश था। इतना खुश कि चैक को मैंने कई-कई बार देखा। बाईस के बाद लिखी ‘जीरो’ की मैंने दसियों बार गिनती की। मैंने चैक को चूमा, माथे से लगाया।

यह तो मुझे बाद में पता चला कि तंत्र ने यह ‘गोल्डन शेकहैंड’ लोहे के दस्ताने पहनकर किया।

मैंने चैक को कमीज के एक जेब में रखा, लेकिन कमीज के दूसरे जेब से कुछ गिरा – वो खालीपन था।

वालैंट्री रिटायरमेंट के पसःमंजर एक तीखा और चुभन पैदा करता सवाल भी आ खड़ा हुआ था। पहले मैंने इस सवाल की परवाह नहीं की थी। बाद में यही सवाल रफ्ता-रफ्ता मेरे अंतरलोक तक जा पहुंचा कि मैंने ‘वी आर’ क्यों ली? मैंने अपने-आपको खालीपन के दश्त और अकेलेपन के बीहड़ में क्यों लावारिस छोड़ दिया?

बाईस लाख का चैक मैंने अपने दोनों बेटों को दिखाया। मैंने सोचा कि वो खुश होंगे। हाथ मिलाकर ‘कंग्रेट’ करेंगे। भविष्य की योजना बनाएंगे, लेकिन वो खुश नहीं हुए थे। मैं उनके चेहरों को देखता रहा। उनके चेहरे खाली ब्लैकबोर्ड जैसे। जिस पर कोई इबारत नहीं थी। हम तीनों आमने-सामने थे। बेहद करीब। लेकिन  फासला कितना लंबा था।….इस महानगर में मेट्रो बिछा दी थी और लग्जरी कारों के अम्बार लगा दिए  थे कि दूरियां कम हों। लेकिन हम तीनों के बीच का फासला जो दृश्य में दो फुट था, लेकिन अदृश्य में हजारों मील का था। उसे कोई मेट्रो तय नहीं कर सकती थी। चूंकि अदृश्य का कोई स्टेशन होता ही नहीं।

मेरे दोनों बेटे मेरे सामने उपस्थित थे, लेकिन लगता था। वो अनुपस्थित हैं। उनकी इस उपस्थिति ने मुझे बेचैन कर दिया था।

मैं चैक लेकर चला आया।

पत्नी को गुजरे कई साल हो गए थे। वो होती तो चैक उसे दिखाता। लेकिन वो इस संसार को विदा कहके जा चुकी थी।

यह तो मुझे बाद में पता चला कि मेरा सारा दिन घर में रहना। उनके जीवन में हस्तक्षेप की तरह था। मैं सोचता था परिवार जैसी कोरी आत्मीय जज्बातों से लबरेज कोई चीज होती है। मेरी सोच पुराने जमाने की थी। नए जमाने ने बेहद जरूरी, लेकिन सिन्थेटिक लफ़्ज ईजाद किया था, वो था – प्राईवेसी।

और मेरी वालैंट्री रिटायरमेंट उस प्राइवेसी को बेपर्दा करती थी।

जब मुझे पता चला था कि डोर क्लोजर क्यों अनिवार्य होते गए हैं, हमारे समाज में। पहले, डोर क्लोजर दफ्तरों में होते  थे, अब घरों में। बंद दरवाजों के उस पार मेरे बरखुरदार, इधर मैं।

मेरे दोनों साहबजादे ऊंचे पदों पर थे। ऊंची सेलरी ऊंचा पैकेज और ऊंची उड़ान। वो कम बोलते। वो ज्यादा वक्त लैपटाप के सामने होते। कई बार उनका अपना चेहरा भी लैपटाप के स्क्रीन जैसा नजर आता – जिस पर कई सारे तनाव होते, लेकिन भावना गायब। उनके कुछ अहम शब्द थे – ग्रोथ, प्रेजेंटेशन, आटीच्यूड, सेलरी, स्किल, टाईम मैनेजमेंट, रेस, ब्रॉड, लुक, प्रफोर्मेंस, मीेटिंग, रिव्यू क्लाइंट, टारगेट अचीवमेंट…। यही उनकी जिंदगी का शब्दकोश था। यही उनका सभ्य संसार भी था।

मैं एक महीना घर में रहा — जिसे मैंने बनवाया था और जिसमें मैं खुद, सबसे ज्यादा बेगाना और सबसे ज्यादा लापता था।

हकीकत पर कल्पना के वर्क चढ़े रहें तो अच्छा होता है। हम मुगालते में रहते हैं और मुगालते हमें खुश रखते हैं। विडम्बना यह थी कि हकीकत बेपर्दा होकर सामने आ खड़ी हुई थी। इतने सालों का विभ्रम एक महीने में टूट गया था।

मैंने दफ्तर जाने का सोचा। घर की एकरसता को तोड़ने  के लिए मुझे ये विचार अच्छा लगा।

एक महीने बाद दफ्तर जा रहा हूं। ‘वी आर एस’ के बाद पहली बार दफ्तर। किस काम से जा रहा हूं? नहीं, कोई काम नहीं। फिर किस लिए जा रहा हूं? यह एक सामान्य सा प्रश्न है, लेकिन सामान्य-सा सवाल मेरी भावनाओं को झिंझोड़ रहा है, लेकिन मैं इस प्रश्न से नहीं उलझना चाहता। मैं बेहद उत्साहित हूं। जोश से भरा हुआ मैं पुरानी यादों को ताजा करता हुआ। गुजरे हुए समय को पुनर्जीवित करता मैं।

मैं जब घर में था, तो मैंने एक-दो बार ड्रिंक्स भी लिए। अकेला मैं और अकेला मेरा गिलास। मुझे लगा, मैं अपने गिलास में खालीपन के आइस क्यूब डाल रहा हूं। इस एक महीने के दौरान में बहुत चुप रहा हूं। मैं चुप मेरा गिलास चुप। कमरा चुप और दीवारें चुप।

दफ्तर में था तो हजारों बातें निकल आती थी। हम सब दफ्तर के सहकर्मी फाइल, केबिनेट, मेज-कुर्सी से लेकर चाय के कपों पर लगे, स्त्रिायों के लिपस्टिक के निशानों पर घंटों बात कर सकते थे। हमारे पास और कुछ नहीं था, लेकिन बातों का खजाना था। तब हम सोचते थे कि हम दोस्ती का जश्न यूं ही जिंदगी भर मनाते रहेंगे और हमारे बीच संबंधों के दरिया कभी नहीं सूखेंगे।

लेकिन इस बीच एक महीने से मैं आवाजों की दुनिया से बाहर रहा। अजीब सा घटित हुआ है मेरे अंदर। मुझे बाइस लाख का चैक बेकार लगने लगा है, आवाजें बेशकीमती।

इस एक महीने के दौरान मैंने शेलफ पर रखी उस चाबी को भी कई बार उठाया है – चाबी, जो मेरी मेज की दराज की थी। पता नहीं क्यों, मैं दराज की चाबी जेब में डालकर चला आया? यह कोई मोह था या फंतासी या पागलपन? कई बार बेजान चीजों से मोह छूटता नहीं। मुझे अपनी मेज से बेहद प्यार था। मैं इस पर कोहनियां टिकाकर बैठता तो मेज मेरा तसव्वुर बन जाती। कभी पृथ्वी तो कभी दोस्त!

मैं अपनी मेज की चाबी उठाकर बैठता हूं जैसे चाबी न हो, मैडल हो। मैं इस चाबी को हाथ में रखता हूं तो स्मृतियां आकर किसी न दिखाई देने वाले ताले को खोल देती हैं – बेआवाज!

क्या विडम्बना है, रिटायरमेंट के वक्त लोग अपनी दराजों में रखे बालपेन, कैलकुलेटर, पंचिंग मशीन, स्टेपलर मशीन यहां  तक कि पेपरवेट झोले में डालकर ले आते हैं अपने घर! मैंने सब चीजें दराज में पड़ी रहने दी। दराज को खुला रख दराज की चाबी उठा लाया। कोई पूछे कि मैं चाबी का क्या करूंगा, तो यकीनन, यह सवाल मुझे भाले की तरह चूभेगा।

मुझे एक और बात का भी पता चला है इन दिनों! जिन आवाजों को आप बाहर छोड़ कर आते हैं, जब आप अकेले होते हैं, वही आवाजें आपके अंदर शोर मचाने लगती हैं। आवाजें, तार पर बैठी चिड़ियाओं की तरह हो जाती है।

मैं इन शोर मचाती आवाजों के बारे में किसी को कुछ नहीं बताता। मैं एक खाली पड़े टापू जैसा हो गया हूं। खालीपन अगर कैरीबैग की तरह होता तो उसे वस्तुओं से भर देता। खालीपन कोई छाया है, न दिखाई देने वाली छाया।

इधर, एक अजीब बात मैंने महसूस की है। गली के लोग मुझसे अब उस भाव से नहीं मिलते, जैसे कि पहले मिला करते थे। शायद मैं खाली और व्यर्थ हो गया हूं या शायद काम पर जाने वाले लोगों को कुछ और नजरिए से देखती है दुनिया!

क्या यह सच नहीं कि व्यस्तताएं स्टेटस का निर्माण करती हैं। मैं नौकरी में था तो मेरा भी एक स्टेटस था और आत्मविश्वास…उसे तो मैं कभी मफलर की तरह लपेटता कभी टाई की तरह कमीज  के कॉलरों के बीच सजाता। तब, मैं अपने-आपको मैनेज करता था और एक मेनेरिज्म में अपना लाइफ स्टाइल चमकाता। प्रोफाइल भी एक जरूरी चीज होती है जेंटिलमैन!

जॉब मैं था तो एक रूटीन था। रूटीन लफ़्ज सेे मैं खूब चिढ़ता था। नौ बजे निकलता। सात बजे वापिस घर। थका टूटा। खा-पीकर चारपाई या दीवान पर गिरता। इतनी गहरी नींद कि जलजले चारपाई के नीचे से गुजर जाते और मुझे पता न चलता।

लेकिन अब बहुत देर से नींद आती है। कई बार तो बिल्कुल भी नहीं आती। तारे देखने या तारे गिनने का शौक होता तो उस शौक को पूरा कर लेता। बड़े बेटे ने इसे सिस्टेमेटिक चेंज बताया तो छोटे वाले ने मेटाबालिक चेंज। वो चाहते तो अंग्रेजी के कुछ और प्रभावित करने वाले शब्दों का इस्तेमाल कर सकते थे।

कैमिस्ट ने एक दिन चिंता व्यक्त करते हुए कहा ‘सर, ये वे वेलियम फाइव किसकी सलाह पर ले रहे हैं? इससे तो अच्छा है कि आप ऐलप्रेक्स लें।’

अनजान कैमिस्ट अपनी बात कहकर मुझे देखता रहा। मेरे चेहरे पर अकेलेपन के धब्बे थे। दिल को देखता तो उसमें भी हरे जख़्मों की छोटी-सी बस्ती बस रही थी।

मेरी अलमारी में वैन हयूजन, लुइस फिलिप, पार्क ऐवेन्यू, जारा, पीयरे कार्दिन और अरमानी ब्रांड की बीसियों कमीजें हैंगरों पर टंगी थी। फॉरमल पैंटों के अलावा, ली कूपर लिवायस की जींन्स भी थीं। कफ लिंक्स, परफ्यूम, क्रीम, रूमाल, शानदार रेड टैप और वुडलैंड के जूते…सब कुछ मेरे सामने।

और मैं! कुर्ता-पाजामा पहनकर अपने कमरे में भटकता हुआ। रेलगाड़ी का एक अकेला डिब्बा-खाली सा डिब्बा!

कई दिनों से बहुत बोर हो रहा था। बोर तो क्या अपने भीतर बासीपन महसूस करने लगा था। बासीपन को तोड़ने का मुझे एक ही जरिया नजर आया – अपने दफ्तर चला जाऊं। पुराने सहकर्मियों से मिलूं। खूब हंसूं। खूब बातें करूं। चाय के कप और अनन्त बातें। मैं तसव्वुर में डूब गया।

चुनांचे, एक महीने बाद अपने दफ्तर जा रहा हूं। ‘अपना  दफ्तर’ कहते हुए मेरी जबान थोड़ी लड़खड़ा गई है। दुनिया-ए-फानी में जब देह तक अपनी नहीं, तो दफ्तर कैसे अपना हुआ?

इस सच्चाई का अहसास मुझे अब होने लगा है। हमारे समय के एडम स्मिथों ने नए आर्थिक जोन बनाए हैं और ऐसे जोन में लैपटाप जितना महत्वपूर्ण हुआ है आम आदमी उतना अपमानित।

वालैंट्री रिटायरमेंट जैसे कारपोरेट जगत के प्रपंच ने मनुष्यों को उनकी औकात का रेज़ा-रेज़ा करते हुए बड़े बेशर्म लहजे में समझा दिया है कि उन्हें जब चाहे एक अदद चैक के साथ दाखिल-खारिज किया जा सकता है।

मैं आफिस के बिल्कुल पास खड़ा हूं। आरती मैडम मेरे बिल्कुल पास से होकर निकली है। वही चाल में तेजी। वही आंखों में झलकता भविष्य। वही चेहरे पर टप-टपाता आत्मविश्वास और वही परफ्यूम-चैनल फोर! और वही स्नॉबरी।

आरती मैडम का इस तरह अजनबी होकर गुजर जाना मुझे चकित कर गया है। मैं थोड़ा-सा व्याकुल भी हो गया हूं। आरती मैडम के साथ मैंने कई बार चाय पी है सैंकड़ों  बार। चाय के कप से मैं टी-बैग निकालता तो वो तुरंत कहती, इधर दीजिए। डस्टबिन यहां रखी है।’

एक टी-बैग होता। चार उंगलियां। दो मेरी दो आरती मैडम की। हमारी उंगलियां एक-दूसरे की उंगलियों को छू रही होतीं। टी-बैग धागे के साथ बीच में लटक रहा होता। एक क्षण के लिए सब कुछ ठहर गया प्रतीत होता। यह एक क्षण का अनुभव, एक अनुभूति में बदल जाता।

अब मुझे कई बार महसूस हुआ है जिंदगी एक खाली पड़ा चायघर है। चाय है, टी बैग है। मैैंने टी बैग पकड़ रखा है, लेकिन आरती मैडम की उंगलियां नहीं होती। जो टी बैग को पकड़ लिया करती थीं।

आरती मैडम का इस तरह चले जाना जैसे कोई अजनबी हो, मुझे अभी तक व्याकुल कर रहा है। यह भी संभव है कि उसने मुझे देखा ही न हो। या शायद देखा हो। या शायद देखकर अनदेखा कर गई हो। या शायद वो जल्दी में हो।

वो सचमुच किसी जल्दी में थी। जिन्हें जल्दी होती है, वो चले जाते हैं। जो  दुविधा में होते हैं ठिठके खड़े रहते हैं जैसे कि मैं। अब यह दुविधा मुझे ज्यादा परेशान करने लगी है कि मुझे दफ्तर नहीं आना चाहिए था। ऐसा लगता है कि यह कोई आरती मैडम इफैक्ट है।…

अचानक पछतावे का कोई पथरीला पेड़ उग आया है मेरे अंदर! मैं चकित हूं और बेचैन!

वैसे जिंदगी है भी क्या? जिंदगी और जो भी हो, जिंदगी पछतावों का ग्रेंड टोटल भी होती है। हम तमाम उम्र पछताते ही तो रहते हैं।

तमाम गर्दो-गुबार को झाड़ता हुआ आज मैं दफ्तर आया हूं। दरअसल मैं उन गुम हो चुकी खुशियों, उदासियों, ठहाकों की तलाश में निकला हूं।

दफ्तर तीसरी मंजिल पर है। सांस की तकलीफ के बावजूद मैं सीढ़ियों से चढ़ रहा हूं। दफ्तर की लिफ्ट मैंने छोड़ दी है। जानबूझ कर। सीढ़ियां चढ़ते-उतरते, सीढ़ी के रेलिंग पर हाथ रखकर खड़े होना। सोचना। नाखून से कुछ कुरेदना। मार्बल की सीढ़ी को उस पर टिके अपने पांव को देखना – ये सब एक जमाना पहले होता था। मैं उसी जमाने की कल्पना लेकर सीढ़ियां चढ़ रहा हूं। रेलिंग पर हथेली टिकाता हुआ। रेलिंग की गर्द को अपनी हथेली में समेटता हुआ। जैसे गर्द दोस्त हो या कलीग! या जैसे गर्द के भीतर गए दिनों की यादें हों। या जैसे रेलिंग पर जमी गर्द खुद एक स्मृति हो।

रेलिंग पर हाथ रखकर मैं कुछ देर खड़ा सोचता रहा और याद करता रहा कि निंदाओं, तुच्छताओं, झूठ, अनबन की भी अपनी एक दुनिया थी। वो दुनिया कितना भ्रमित करती थी।

मैं इसलिए भी रुक गया हूं कि थोड़ा हांफने लगा था। पता नहीं मेरी सांसों को कैसे पता चला कि मैं सीढ़ियां चढ़ रहा हूं? उनका हांफना शुरू। मैं ठिठक गया। एस्थलीन इनहेलर भी घर रह गया। यही गलत  हुआ। दफ्तर में, सर्विस के दौरान मैं इनहेलर हमेशा जेब में रखता था। खुद को फिट और स्मार्ट नजर आने का मुझे जुनून था। कपड़े भी मैं शानदार पहनता था। शीशा तो कई-कई बार देखा।

लेकिन आत्ममुग्धता का वो फितूर जमीन पर आ गिरा है। कपड़े तो आज भी मैंेने ठीक ठाक पहन रखे हैं, लेकिन पहले जैसा न आत्मविश्वास न शीशा देखने की इच्छा!

तीसरी मंजिल पर पहुंच कर मैं रुक सा गया हूं। यहीं कहीं दीवार पर मैंने अपना नाम लिखा था। तब जैल पेन नहीं थे। जॉटर पेन थे। उनकी लिखाई पक्की होती थी। इतनी पक्की कि मैं ‘वी आर’ लेकर घर चला गया हूं, जॉटर पेन से लिखा  ‘नाम’ मुझे अब भी दिखाई दे रहा है। बेशक, स्याही धुंधला गई है।

वक्त के हाथ भी अजीब होते हैं। बेवजह हर शय को मिटाते-पोंछते चलते हैं – वो रास्ते पर पांव के निशान हों या फिर स्मारकों पर लिखी इबारतें। हर शय धुंधली पड़ जाती है और निशानियों में बदल जाती है।

वक्त की जटिलताएं जब प्रेम जैसे तत्व को जिंदगी से खारिज कर देती हैं तो प्रेम पत्र भी निशानियों में बदल जाते हैं।

मैं भी अजीब हूं। तीसरी मंजिल पर रेलिंग के सहारे खड़ा मैं न जाने किस दुनिया में जा पहुंचा हूं।

मैं दफ्तर के गेट के सामने खड़ा हूं। इस सोच में डूबा हूं कि शीशे का दरवाजा खोलूंगा और मेरे सब कलीग…मेरे सब पुराने सहकर्मी मुझे देखकर उठ खड़े होंगे। मेरे करीब आएंगे। मुझे घेर लेंगे। शोर सा मच जाएगा। सब इस कोशिश में होंगे कि मैं उनकी चाय पीऊं। उनकी मेज के साथ वाली कुर्सी पर बैठूं। सबकी कोशिश होगी कि ज्यादा से ज्यादा बातें करें। जैसे कि हम पहले किया करते थे – जेम क्लिप जैसी निकृष्ट वस्तु से लेकर मिसाइल तक पर हम बड़े बेतकल्लुफ अंदाज में बातें किया करते थे।

मैंने अपने बैग में चॉकलेट और बिस्कुट के कुछ पैकेट डाल लिए थे। एक छोटी-सी पार्टी और जश्न। और चाय और ठहाके।

मैं उत्साह के अतिरेक में हूं। कितने सारे खूबसूरत ख्याल बुनता हुआ मैं। जश्न मनाने से पहले का रोमांच मेरे मन में है। मैं सोच रहा हूं पुराना वक्त, पुराना माहौल फिर से जी उठेगा। एक महीना घर में रहा। अपने अकेलेपन से मुठभेड़ करता हूआ मैं। आज मैं अपने-आपको ताजादम ठहाकों के साथ बदल दूंगा।

मैंने दफ्तर का शीशेवाला दरवाजा खोला है। दरवाजे के पास खड़ा हूं। पूरे हाल में मैंने नजर दौड़ाई है। मैं भौंचक हूं, चकित! चकित या विचलित – पता नहीं। मैं अपने पुराने सहकर्मियों को देख रहा हूं। मुझे भी देखा है उन्होंने, शायद। सब व्यस्त हैं। इतने व्यस्त! इतने व्यस्त तो पहले कभी नज़र नहीं आए थे इस दफ्तर के एम्पलाई, जितने कि आज। जितने कि अब। कुछेक मुझे देख रहे हैं। देख चुके हैं। मुस्कराए हैं दूर से। बैठे हुए मुस्कराए हैं। कुछेक ने हाथ के इशारे से हेलो की है – वहां बैठे-बैठे।

तीस लोगों का स्टाफ और इकत्तीसवां मैं। मेरे और उनके बीच जैसे बिना पुल की कोई नदी। उस पार वो सब। इधर मैं। उधर व्यस्त लोग। इधर मैं खाली और व्यर्थ!

दरवाजे के पास खड़ा सोच रहा हूं कि मैं किसके पास जाऊं? किसके पास बैठूं? मुझे किसी ने नहीं बुलाया। कोई भी अपनी कुर्सी से उठकर, मुझसे हाथ मिलाने नहीं आया। क्या मैं खुद-ब-खुद चला जाऊं उनके पास। उनके पास जा बैठूं, बिन बुलाए मेहमान जैसा।

मैं देख रहा हूं सबके सब सहकर्मी इतने व्यस्त हैं जैसे इम्तिहान दे रहे हों। जैसे तीन घंटे के अंदर उन्होंने सैंकड़ों-हजारों सवालों के जवाब लिखने हों।

कुछेक ने मुझे अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे इस भाव से देखा है जैसे मैं अब उनका कलीग नहीं रहा। इंशोरैंस कराने वाला कोई क्लाइंट हूं।

अब मुझे महसूस हो गया है, एक दिन में दुनिया बेशक न बदलती हो, एक महीने में जरूर बदल जाती है।

मन करता है केबिन के भीतर बैठी आरती मैडम के पास चला जाऊं। वो चाय का आर्डर दे। एक बार फिर हमारी उंगलियों में झूलता टी-बैग हो।

मैं उसकी टेबल के सामने कुर्सी खींच कर बैठूं। और वो साधारण सा सवाल मेरे सामने उछाल दे कि कैसे आना हुआ दफ्तर? तो क्या जवाब दूंगा?

मैं हॉल में आगेे नहीं जा पा रहा। किसी ने बुलाया नहीं तो किसके पास जाऊं? लेकिन मेरे लिए वापिस मुड़ना भी मुश्किल है। मैंने वापिस मुड़ने की कोशिश की है। पांव उठा नहीं। शर्म का या संकोच का या कशमकश का कोई कील, पांव में गड़ गया हो जैसे।

दफ्तर में सब यथावत! काम करते हुए। सब लोग शुष्क मैनुअल जैसे। या फिर सब लोग किसी लैपटॉप जैसे। ऐसा लगता है, दोस्ती के स्पेलिंग सब भूल चुके हैं। सबके पास समीकरणों की डायरैक्टरी है। काश, किसी के पास स्मृतियों की डायरी भी होती।

मैं खड़े-खड़े सोच रहा हूं – क्या सचमुच लोग डोर क्लोज़र बन चुके हैं या फिर दरवाजों को खुला रखने की तौफीक भूल चुके हैं।

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